राजन पण्डित सुबह शाम आया करते थे। चाय पर। एक पखवाड़े से ज्यादा हो गया, आना बंद हो गया। यहां के अलावा वे तूफानी (राधेश्याम दुबे) की किराना दुकान पर भी बैठक करते थे। वहांं भी नहीं नजर आते रहे।
आज अचानक उनके तूफाने की दुकान के बाहर दर्शन हुये। मैंने पूछा – आजकल दिखते नहीं राजन भाई?

“आजकल निकलना नहीं हो रहा। कोरोना बड़ा टाइट बा।” – उन्होने दूर से ही हाथ जोड़ अभिवादन किया। संक्रमण की दशा के बारे में यह वाक्य मुझे सबसे सटीक लगा। बड़ा “टाइट” है कोरोना।
आसपास के बहुत से लोग बुखार, बदन दर्द, स्वाद और गंध हीनता आदि के शिकार हो चुके हैं। उनकी संख्या का आंकड़ा नहीं है पर जितना सुनने में आता है, उसके अनुसार 20-30 प्रतिशत ग्रामीण आबादी इस तरह के लक्षणों को झेल चुकी है। अधिकांश ठीक हो गये हैं। कई अभी भी बुखार आदि से जूझ रहे हैं। आसपास के लगभग झोला छाप डाक्टरों ने जो भी कुछ इलाज किया है, वे ठीक हुये हैं या हो रहे हैं। अधिकांश यह कहते दिखते हैं कि वे इस तरह के बीमार पहले कभी नहीं हुये। कोई संक्रमण का टेस्ट नहीं कराया है उन लोगों ने। कुछ समर्थवान लोगों ने कराया भी है और अगर पॉजिटिव आया है तो चुपचाप घर में पृथकवास कर रहे हैं। उसके बारे में ज्यादा लोगों को बता भी नहीं रहे।
हदस इतनी है कि लोग खुद ब खुद जितना दूरी बना सकते हैं, बना रहे हैं। आधे लोग मास्क लगा रहे हैं। पर वह एक फसाड जैसा ही है। झिंलगा सा मास्क या गमछा बहुत सतर्कता नहीं दिखाता। बहुत से लोगों की नाक खुली रहती है। इसके अलावा सेनीटाइजर की बात ही नहीं होती। शायद लोगों के पास उतने पैसे भी नहीं हैं। साबुन से हाथ धोना भी उतना नहींं होता जितना होना चाहिये। गांव में नल के पानी की सप्लाई तो है नहीं। ऑक्सीमीटर का नाम भी बहुत से लोगों ने नहीं सुना। लोगों के यहां तापमापी भी शायद ही मिले। स्थितियां जितनी खराब हो सकती हैं, उतनी हैं।

छठ्ठन जी की पतोहू नयी प्रधान बनी है। डी-फेक्टो प्रधान तो छठ्ठन ही होंगे। वे रेलवे में गेट मैन रह चुके हैं। मैंने सोचा कि शायद रेलवे का कुछ विभागीय अनुशासन उनके अंदर हो जिससे वे इस समय कुछ सार्थक काम कर सकें। शायद वे गांव के स्तर पर जो कुछ भी स्वास्थ्य व्यवस्था है, उसे जीवित कर पायें। मैंने छठ्ठन जी को फोन किया। उन्होने बड़ी अदब से मुझसे बात की – “प्रधान नहीं, मुझे अपना कर्मचारी ही समझिये। मैं आपसे आ कर मिलूंगा। पर अभी मेरी तबियत ठीक नहीं चल रही। चुनाव के दिन से ही बिगड़ी है। एक दो दिन तो मैं करीब बेहोश ही रहा। अब जब ठीक हो जाऊंगा तो आपके पास आऊंगा।”

छठ्ठन जी का यह आदर भाव से कहना मुझे अच्छा लगा। पर अभी उनसे कोई एक्टिव रोल अदा करने की अपेक्षा नहीं कर सकता। शायद 8-10 दिन लगें उन्हें ठीक होने में। गांव में प्रधान जी का सचिव होता है (पता नहीं कौन है), आशा वर्कर है। एक दो एन.जी.ओ. वाली बहन जी भी घूमा करती थीं। आजकल तो ये सभी सीन में दिखते नहीं हैं। राज्य या जिला प्रशासन खुद लुंजपुंज सा है – उससे कोई अपेक्षा नहीं कि वह इन लोगों को कुछ करने के लिये झिंझोड़ सके।
सुग्गी से बात की मैंने। वह बता रही थी कि उसको बुखार आया। शरीर में जैसे जान ही नहीं थी। ऐसा बुखार और शरीर की हालत पहले कभी नहीं हुई। हमने उसे अपने भोजन की पौष्टिकता पर ध्यान देने को कहा। सुग्गी मेरी अधियरा है। इस बार फसल अच्छी हुई है, सो भोजन और उसमें दाल की प्रचुरता की कोई दिक्कत नहीं। उसका पति सब्जी का ठेला लगाता है। इसलिये सब्जी की भी समस्या नहीं। एक दो सप्ताह उसे नित्य दूध देने का काम हम कर सकते हैं। अन्यथा, खरीद कर दूध सेवन उसकी प्राथमिकता में नहीं आ सकता। … लोगों से उनका हालचाल पूछना और थोड़ी बहुत मदद का प्रयास करना – यही हमारे बस में है।
गांव में तीन चार लोग एक महीने में दिवंगत हुये हैं। पता नहीं किस कारण से। अभी हाल ही में भगवानदास बिंद की माई की मृत्यु हुई। वह अच्छी भली टनाटन बतियाने बोलने वाली महिला थी। उसके अंतिम संस्कार के लिये लोग गये पर अपने को जितना बचा कर रख सकते थे, उतना बचाये। ये सब लोग रिकार्ड में कोरोना संक्रमित नहीं थे; पर लक्षण सारे संक्रमण के ही हैं।
कुल मिला कर सीन बड़ा ऑबसीन है। और कुछ समझ भी नहीं आता कि क्या किया जाये। अपने को बचाये रखना ही बड़ी प्राथमिकता है। मेरे पास तो बड़ा घर है। साधन भी ठीक ही हैं। पर आम ग्रामीण तो असहाय सा ही दिखाई देता है। बस, फर्क शायद यह है कि वह बहुत व्यथित टाइप नहीं है। अपना कामधाम कर रहा है। कुछ गड़बड़ होने पर वह अपने प्रारब्ध या दैवी आपदा को दोष देता है। यही शायद सरकार के लिये सिल्वर लाइन है। वैसे अगले चुनाव में वह क्या करेगा, यह वही जानता है।
फिलहाल – कोरोना बड़ा टाइट बा!
इन परिस्थितियों में जब चिकित्सीय संसाधनों का अभाव हो, घर में बने रहना श्रेयस्कर है। गाँवों में जिनको हो भी रहा है, उनके लिये उसे सहना कठिन अवश्य है पर अन्ततः शरीर तोड़कर ही सही, वे सब बाहर आ पा रहे हैं। नगर में ताण्डव मचा है, नगरीय सुविधाभोगी जीवनशैली ने सहने और लड़ने की क्षमता भी क्षीण कर दी है।एक माह से बाँह की पीड़ा से जूझ रहा था, चिकित्सक के पास जाने में भय लगता था, फ़ोन पर पूरा समझा नहीं पाता था। अभी तो ठीक हो गया है, पर व्यथा कथनीय है, लिख रहा हूँ।
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यहां उन झोलाछाप डाक्टरों को भी साधुवाद, जो इन मरीजों को देख रहे हैं, दवा दे रहे हैं, इलाज कर रहे हैं। शहरों ने नामी गिरामी डाक्टर तो अपने चेंबर के बाहर ही मरीज को खड़ा रख कर हल्के में सुनते और टरका रहे हैं।
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ईश्वर से प्रार्थना है कि आप व आपके पूरे परिवार को स्वस्थ व संक्रमणहीन रखें।
🙏🙏🙏🙏
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धन्यवाद, संतोष!
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मुझे आपको कहने की आवश्यकता नहीं है पर फिर भी कहूंगा कृपया अपना और परिवार का पूरा ध्यान रखिये। one cannot be too careful with this novel virus.
दस दिन अस्पताल में बिता कर लौटा हूँ और वो तब जब अपनी ओर से सावधानी में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
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धन्यवाद. बहुत सालों बाद दिखे Ghost Buster जी! कैसे हैं? आशा है अब पूरी तरह स्वास्थ हो गए होंगे. शुभकामनाएं.
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जी हाँ, अब मैं ठीक हूँ । आपका ब्लॉग देखता रहता हूँ और फ़ेसबुक भी। आप मैदान में डटे हुए हैं और सूक्ष्म विषयों पर बहुत रोचक भी लिख रहे हैं। टिप्पणी हमेशा सम्भव नहीं हो पाती।
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धन्यवाद जी!
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योगी जी तो गौशालाओं में आक्सीमीटर और थर्मोमीटर का प्रबंधन कर दिए हैं। खुद का कोरोना इलाज पीजीआई में टनाटन करा कर आ गए हैं, और बाहर आते ही कड़क आदेश जारी किए हैं कि खबरदार जो कोई अस्पताल में बेड नही, दवा नहीं, आक्सीजन नहीं, की कमी का बात बोलेगा तो मुकदमा दर्ज किया जाएगा, संपत्ति जब्त की जाएगी।
अब इ बिचारे प्रधान का करेंगे।
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प्रधान अपने स्तर पर ताकतवर हस्ती हैं…
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