भरसायँ, जगरन और कंहारों की चर्चा

रक्षाबंधन के बाद के दूसरे दिन की बात है। पगडण्डी के किनारे दो महिलाओं और एक नौजवान को भरसायँ सुलगाते पाया। भरसायँ में नौजवान पत्तियां झोंक रहा था। उसपर कड़ाहा चढ़ा था। कड़ाहे में बालू गरम हो रहा था। कुछ पोटलियां, बोरी और भऊंकी पास में थीं। उनमें अन्न रहा होगा – मक्का, बाजरा, धान आदि। एक ओर तिरपाल बिछाया गया था। उसके ऊपर चादर।

बीच में, भरसायँ के पीछे एक दोहरे शरीर वाली महिला बैठी थी। वह अपना दाना भुंजाने आयी प्रतीत होती थी। नौजवान टीशर्ट पैण्ट पहने था। ट्रेडीशनल भुंजवा नहीं लग रहा था। वह एक हाथ से पत्तियां पीछे से ले कर भरसायँ के मुहाने पर रख रहा था और दूसरे हाथ में पकड़ी एक लकड़ी से पत्तियों को भरसायँ में ठेल रहा था। बाद में बसंत ने बताया कि वह कोई अहिराने का नौजवान है। आग लग गयी थी, पत्तियों का धुआं भी हो रहा था। लगभग रेत गर्म हो गयी थी दाना भूनने के लिये। दूसरी औरत; लाल साड़ी पहने, खड़ी यह गतिविधि देख रही थी – वह भरसायँ वाली थी। बसंत ने बाद में चित्र चीन्ह कर बताया कि वह भुजाली की मेहरारू है।

मैंने पूछा – रोज यहां भरसायँ जलती है क्या?

बीच वाली महिला ने जवाब दिया – “आज जली है। जगरन के लिये। जगरन पर पांच दाना भुना जाता है। वही भुनायेगा।”

मुझे समझ आ गया कि जगरन कोई त्यौहार है जिसपर भुना अन्न इस्तेमाल होता है। आगे मेरे सप्लीमेण्टरी प्रश्नों पर दोनो महिलाओं ने जानकारी दी – जगरन लड़कियों, महिलाओं का त्यौहार है। तीज का त्यौहार। इस दिन पार्वती माता को पांच प्रकार का भुना अन्न और जलेबा (बड़े आकार की जलेबी) अर्पित की जाती है और लड़कियां/महिलायें रात में जागरण कर कजरी गाती हैं। माता की पूजा में कजरी गाती हैं सामुहिक रूप से।

भुजाली की पत्नी, लाल साड़ी में खड़ी हुई।

जगरन के दिन जगह जगह भरसाँय जलेगी। भरसाँय का पारम्परिक काम कंहार लोगों का है।

गांव में, देवेंद्र भाई के अहाता के सामने दांयी ओर कंहार बस्ती है। आठ-दस घर होंगे कंहारों के। उनका पुश्तैनी पेशा कुंये से पानी खींचना, तालाब से गाय-गोरू के लिये पानी लाना, पालकी ढोना और दाना भूनने के लिये भरसाँय जलाना है। इनमें से कई काम बदलती तकनीक ने उनसे छीन लिये हैं। कुंये अब चांपाकल और ट्यूबवेल के आने से अप्रासंगिक हो गये हैं। गाय-गोरू पालने की कल्चर ही कम हो गयी; जब बैलों का स्थान ट्रेक्टर ने ले लिया। पालकी अब कार और दुपहिया वाहनों से पूरी तरह रिप्लेस हो गयी। मैंने अपने बचपन के बाद पालकी कभी देखी ही नहीं। ले दे कर भरसाँय का काम बचा है। वह भी काफी कुछ अंकल चिप्स, कुरकुरे, नमकीन और पुपुली (चावल की बनी बेलनाकार खाद्य वस्तु जो बच्चे चना चबैना की बजाय पसंद करते हैं) ने घटा दिया है। इस लिये कंहारों ने अन्य नॉन ट्रेडीशनल काम भी अपनाने शुरू कर दिये हैं।

मसलन भुजाली देवेंद्र भाई के यहां गायों की देखभाल, दूध दुहने और अन्य घरेलू काम करता है। चक्कू या जयश्री (श्रीराम?) कोलाहलपुर में भरसाँय जलाने के साथ छोटे मोटे काम करता है। वह साइकिल रिपेयर का काम भी जानता है। कल उसे लेवल क्रासिंग गेट पर चेक-रेल के अंतरे में मिट्टी खोद कर साफ करते देखा मैंने। गेट मैंन ने बताया कि सी.एस.ओ. (चीफ सेफ्टी ऑफीसर) साहब का इंस्पेक्शन है; इसलिये मास्साब (कटका रेलवे स्टेशन के स्टेशन अधीक्षक) चक्कू को दिहाड़ी पर काम दे कर सफाई करवा रहे हैं।

सी.एस.ओ. साहब का इंस्पेक्शन है; इसलिये मास्साब चक्कू को दिहाड़ी पर काम दे कर सफाई करवा रहे हैं। चक्कू (जयश्री या श्रीराम/श्रीनाथ) कँहार है।

चक्कू का भाई जोखन नेशनल हाईवे पर साइकिल रिपेयर की दुकान रखे है और जोखन मेरी साईकिल की रिपेयर करना, हवा भरना आदि करता है। उसकी दुकान पर बैठ कर मैं साइकिल चर्चा के साथ साथ गांवदेहात पर इनपुट्स भी लेता हूं। जब कोरोना संक्रमण जोर मारे हुये था तब वह मुझे सावधान रहने की सलाह जरूर दिया करता था (यद्यपि उसे मास्क लगाये नहीं देखा मैने! :-) )

जोखन नेशनल हाईवे पर साइकिल रिपेयर की दुकान रखे है

मेरे साले साहब के यहां चाकरी करने वाला लड़का धर्मेंद्र भी कंहार है। उसी ने मोटरसाइकिल पर आसपास का इलाका दिखाया था और उसके साथ भ्रमण कर ही मैंने मन बनाया था गांव में बसने का। आजकल धर्मेंद्र बंबई में कामधाम करता है और वहां कंहार का पारम्परिक काम तो करता नहीं होगा।

आसपास के सात आठ गांवों के लिये कंहारों की बस्ती इसी गांव में है तो उन्होने अपने अपने इलाके बांट लिये हैं। मसलन हाईवे के पार का इलाका, जहां भुजाली बहू भरसाँय जलाये थी, भुजाली के हिस्से गया है। चक्कू का इलाका कोलाहलपुर का है। वह चूंकि रोज वहां जाता है, गंगा जी की बाढ़ का हाल वह सटीक बताता है – “अब बाढ़ उतार पर है। पर पानी अभी भी पहले जैसे लेवल पर नहीं आया है।” इसी तरह से विक्रमपुर, भगवानपुर, चमरऊट – सब के इलाके अलग अलग कंहार के हिस्से हैं।

खैर, जगरन के लिये उस एकांत में जल रही भरसाँय को मैंने न देखा होता तो कंहारों के बारे में न इतना सोचता और न यह पोस्ट लिखता। साइकिल सैर का फायदा तो हुआ यह! मेरी गांवदेहात के बारे में समझ बेहतर हुई। :lol:

भरसाँय

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

6 thoughts on “भरसायँ, जगरन और कंहारों की चर्चा

  1. आपके ब्लॉग से गाँव की समझ बढ़ी है। गाँव चलाने के लिये सब व्यवसाय आवश्यक थे तब, सबने मिल जुल कर सीख लिये। कालान्तर में कुछ ने गौरव पा लिया, कुछ को लोगों ने गोबर बना दिया।

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    1. बहुत से तकनीकी परिवर्तन को मैनेज नहीं कर पाए. बहुत लोगों को महानगर बेहतर ऑप्शन लगे. आगे तकनीकी परिवर्तन और भी तेज होने जा रहे हैं और बहुत से लोगों की दुर्गति सम्भव है.
      कई ऐसे भी दिखते हैं जो तकनीकी जानकारी के बल पर इतना कमा ले रहे हैं कि गांव के डाक्टर भी उनके सामने पानी भरें.
      ऐसे दो चरित्रों के बारे में मैं लिखना चाहता था पर उनके पास इतनी फुर्सत ही नहीं दिखी कि वे इनपुट दे सकें 😁.

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    1. कोशिश यह होती है कि गांव के पक्ष या विपक्ष में पक्षपात न हो. कभी कभी खुन्दक में कुछ गलत आकलन हो जाए तो बात अलग है…

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  2. आपके साथ साथ हमारी भी ज्ञान में बढ़ोतरी हुई हैं। कुछ भूली चीज याद आई, कुछ रस्में याद आ गई। पालकी के ठाठ, कहारों के चेहरे पर उसे उठाने का उल्लहास, पसीने से तरबतर शरीर, पालकी में बैठे दूल्हे को अंदर ही रहने का मनुहार रूपी गर्व, पर अब तो सब गायब है। याद नहीं पालकी आखिर कहां देखी, पर पहली अब तक याद है।

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