कोलाहलपुर के सुरेश


सेण्टर से कच्चा माल ले कर आते हैं और डिजाइन अनुसार बुनने के बाद सेण्टर पर देने से उन्हे काम के अनुपात में भुगतान होता है। सुरेश के अनुसार दो सौ रुपया रोज की आमदनी है। “इससे बढ़िया कहीं नौकरी/वाचमैनी होती?”

प्रेमचंद को यकीन है कि मोक्ष मिलेगा कभी न कभी


वे अपने एक ट्रांस के अनुभव को बताने लगे – “सवेरे की रात थी। नींद में मुझे लगा कि त्रिशूल गड़ा है – धरती से आसमान तक। त्रिशूल के ऊपरी भाग पर डमरू लटका है और पास में शिवजी आसन लगा कर ध्यानमग्न हैं।

कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा स्नान और मुनीबाबा की पूजा


किशोर वय की लड़कियां थीं। वे यह पूजा-अनुष्ठान किस लिये करती होंगी? हर व्यक्ति कोई न कोई ध्येय गंगा स्नान और पूजा से जोड़ता है। उनके सामने क्या ध्येय होगा?

गंगा किनारा और बालू लदान के मजदूर


काम मेहनत का है। सो 3-4सौ (गांव का रेट) न कम है न ज्यादा। जो गांव में रहना चाहते हैं, वे इसको पसंद करेंगे; वर्ना अवसर देख कर महानगर का रुख करेंगे। मजदूर गांव/महानगर के बीच फ्लिप-फ्लॉप करते रहते हैं।

भरसायँ, जगरन और कंहारों की चर्चा


कंहारों का पुश्तैनी पेशा कुंये से पानी खींचना, तालाब से गाय-गोरू के लिये पानी लाना, पालकी ढोना और दाना भूनने के लिये भरसाँय जलाना है। इनमें से कई काम बदलती तकनीक ने उनसे छीन लिये हैं।

“जिल्ला टाप” नचवैय्या रहे नगीना


बात करने के लिये मैंने उनसे पूछा – कुछ लहा (कुछ हाथ लगा?)
नगीना ने जवाब दिया – “अबहीं का? अबहीं तो आ के बैठे हैं। घण्टा डेढ़ घण्टा बैठेगे। तब पता चलेगा। कौनो पक्का थोड़े है। लहा लहा नाहीं त दुलहा!”