मनोज सिंह की नाव का वार्षिक अनुरक्षण

मनोज सिंह की नाव अपेक्षाकृत छोटी है – मारुति कार जैसी। उसपर एक लाख का ओवरहाल खर्च करने पर उसकी लाइफ 7-10 साल बढ़ जायेगी। जब वह बनी थी तो यूकलिप्टस – सफेदा – की लकड़ी का प्रयोग हुआ था। वह जल्दी खराब हो गयी। अब वे साखू की लकड़ी ही लगवायेंगे।

दो ‘नावकंकाल’ हैं द्वारिकापुर गंगाघाट पर। एक नाव मनोज सिंह की है और दूसरी मयंक सिंह की। दोनो का ए.ओ.एच. – Annual Overhaul चल रहा है। उनके साइड की लकड़ी उखाड़ी जा रही है। साथ में लगा लोहे का पतरा भी निकाला जा रहा है।

आज शाम पत्नीजी के साथ गंगा घाट पर गया। अपनी नाव पर मनोज सिंह भी एक रम्मा (लोहे की नुकीली रॉड) ले कर लकड़ी निकालने में लगे थे। साथ में एक अन्य व्यक्ति भी काम कर रहा था। मनोज जी ने बताया कि तल्ले की लकड़ी सड़ती नहीं है – वह सदा पानी में रहती है। साइड की लकड़ी जो कभी पानी और कभी हवा के सम्पर्क में आती है, वह खराब हो जाती है। उसे ही बदलना होता है। उसके साथ लगा लोहे का पतरा भी जंग लग जाता है। पतरा भी नया लगता है।

मनोज (बांये से तीसरे) की नाव का ओवरहॉल हो रहा है। सबसे बायें है मेरा वाहन चालक गुलाब।

नाव की लकड़ी अच्छी क्वालिटी की होती है; साखू की। उसपर लोहे की चादर लगा कर जंग से बचाने के लिये अलकतरा का पेण्ट भी किया जाता है। इस ओवर हॉल में करीब एक लाख का खर्चा है। एक नई नाव, जो बालू ढोने के काम आती है; तीन से सात लाख की पड़ती है। मतलब एक बोलेरो या एक मारुति जितना खर्च!

मनोज सिंह की नाव अपेक्षाकृत छोटी है – मारुति कार जैसी। उसपर एक लाख का ओवरहाल खर्च करने पर उसकी लाइफ 7-10 साल बढ़ जायेगी। जब वह बनी थी तो यूकलिप्टस – सफेदा – की लकड़ी का प्रयोग हुआ था। वह जल्दी खराब हो गयी। अब वे साखू की लकड़ी ही लगवायेंगे।

नावकंकाल। अंजर पंजर खुल गये हैं।

मनोज ने बताया कि काम में करीब तीन हफ्ता और लगेगा। मैंने मनोज जी का फोन नम्बर ले लिया है – बाद में पता करने के लिये कि नाव की मरम्मत का काम कैसे चल रहा है। काम सवेरे साढ़े छ बजे शुरू हो जाता है। इसलिये सवेरे साइकिल भ्रमण के दौरान मनोज जी से मुलाकात भी हो सकती है।

एक नाव पर उसका नाविक बैठा सुस्ता रहा था।

गंगा किनारे का दृश्य हमेशा की तरह सुंदर था। सुबह और शाम के चित्र सुंदर आते भी हैं। अब शाम ढलने में आधा घण्टा ही था। बालू का काम खतम कर नावें किनारे खड़ी हो गयी थीं। पिछले कुछ दिनों में गंगाजी बढ़ी हैं। वह साफ दिख रहा था। एक नाव पर उसका नाविक बैठा सुस्ता रहा था। एक पटरा नाव पर रखा था जो किनारे जमीन पर उतरने के लिये रैम्प की तरह काम आता है। एक अन्य नाव पर बच्चे किनारे पर बैठे सूर्यास्त भी निहार रहे थे और मछली पकड़ने का मनोविनोद भी कर रहे थे। उन्होने बताया कि अभी कोई मछली पकड़ी नहीं है। जो मछली पकड़ने का कंटिया लिये था, उसने बात बात में यह दर्शा दिया कि वह “दक्ष मछली पकड़क” है! पर बाकी दोनो उसकी इस बात का समर्थन करते नहीं दिखे।

उन्होने बताया कि अभी कोई मछली पकड़ी नहीं है।

सूर्यास्त होने को था। ‘दिवस का अवसान समीप था; गगन था कुछ लोहित हो चला।’ सूरज और उनकी गंगाजल में परछाई मंत्रमुग्ध कर रही थी!

उमस भी ज्यादा ही थी। हवा रुकी हुई थी। पर उमस से और हवा न चलने से तट पर लोगों को कुछ खास अंतर नहीं पड़ रहा था। अंतर मुझ जैसे को था जो कार के वातानुकूलित वातावरण से निकल कर घाट पर घूम रहे थे।

सूरज और उनकी गंगाजल में परछाई मंत्रमुग्ध कर रही थी!

घर लौटने का समय हो गया था। सांझ के बाद गांवदेहात अपने अपने खोल में दुबकने लगता है। पंच्छी भी नीड़ पर लौटते हैं और हम भी घर को निकल लिये। बहुत दिनों से बारिश और मौसम के कारण साइकिल नहीं निकली। आज द्वारिकापुर घाट देख कर यह तय किया कि कल से निकला जाये।

आजकल काफी समय प्रेमसागार जी की द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर पदयात्रा को ट्रैक करने और उसपर ब्लॉग लिखने में व्यतीत हो रहा है। पर आसपास भी जो कुछ है, वह भी सुंदर है और शिव है! हर हर महादेव!

आसपास भी जो कुछ है, वह भी सुंदर है और शिव है!

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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