यह एक पुरानी पोस्ट है – बारह जनवरी 2013 की। मैं अस्पताल में भर्ती था। शरीर इण्ट्रावेनस इंजेक्शनों से एण्टीबायोटिक अनवरत भरने की प्रक्रिया से छलनी था। पर मन यात्रा की सोच रहा था। उस समय शरीर कह रहा था कि वह यात्रा नहीं कर सकता। मन उस समय भी – भीषण बीमारी में भी – यात्रा की याद में खोया था। पोस्ट में मैंने लिखा है –
शैलेश पाण्डेय ने पूर्वोत्तर की यात्रा ज्वाइन करने का न्योता दिया है – मोटर साइकल पर। सुकुल ने साइकल पर नर्मदा यात्रा का। मुझे मालुम है इनमें से दोनों पर मैं नहीं निकलने वाला। … पर ये न्योते, ये सोच और ये आग्रह यह बताते हैं कि एक आध ठीक ठाक ट्रेवलॉग अपने हिस्से भी भगवान ने लकीरों में लिख रखा है।
– इसी पोस्ट से।
इस पोस्ट को लिखे 9 साल हो रहे हैं। अनूप शुक्ल इस समय आयुध कारखाने के महाप्रबंधक हो गये हैं। शीर्षस्थ अफसर। शैलेश भाजपा के केंद्रिय कार्यालय में पार्टी की सतत चलने वाली चुनावी जद्दोजहद का (महत्वपूर्ण) हिस्सा हैं। दोनो को ही यात्रा का कीट काटता रहता है।
डा. विनीत अग्रवाल भी रिटायर हो चुके हैं। उन्हें बारम्बार हिमालय अपनी ओर खींचता रहता है और वे यात्रायें करते रहते हैंं।आजकल उनसे सम्पर्क नहीं हो रहा है।
मैं रिटायर हो कर भदोही जिले के एक गांव में हूं और भौतिक तौर पर यात्रा के नाम पर मेरे पास साइकिल भ्रमण भर है – आसपास के पचीस तीस गांवों का भ्रमण। पर अचानक मेरे हाथ प्रेमसागर लग गये हैं और उनके माध्यम से एक डिजिटल ट्रेवलॉग लेखन मेरे हिस्से लग गया है। यह सही होता नजर आ रहा है –
एक आध ठीक ठाक ट्रेवलॉग अपने हिस्से भी भगवान ने लकीरों में लिख रखा है।
वेगड़ नहीं, साइकिल-वेगड़ या रेल-वेगड़ भी नहीं; मैं प्रेमसागर जी के जोड़ीदार के रूप में डिजिटल-वेगड़ बन रहा हूं। द्वादश ज्योतिर्लिंग की डिजिटल-यात्रा कर रहा हूं! 😆
आप पुरानी पोस्ट पढ़ें –
अनूप शुक्ला जब भी बतियाते हैं (आजकल कम ही बतियाते हैं, सुना है बड़े अफसर जो हो गये हैं) तो कहते हैं वे नरमदामाई के साइकल-वेगड़ बनना चाहते हैं। अमृतलाल वेगड़ जी ने नर्मदा की पैदल परिक्रमा कर तीन अनूठी पुस्तकें – सौन्दर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा और तीरे तीरे नर्मदा लिखी हैं। साइकल-वेगड़ जी भी (नर्मदा की साइकल परिक्रमा कर) ट्रेवलॉग की ट्रिलॉजी लिखें, शुभकामना।
अभी यहां अस्पताल में, जब हाथ में इण्ट्रावेनस इन्जेक्शन की ड्रिप्स लग रही हैं और एण्टीबायोटिक अन्दर घुसाये जा रहे हैं; मैं यात्रा की सोच रहा हूं।
यही होता है – जब शरीर बन्धन में होता है तो मन उन्मुक्तता की सोचता है।
मैं रेल की नौकरी वाला, ट्रेने चलवाना जिसका पेशा हो और जिसे और किसी चीज से खास लेना देना न हो, उसके लिये यात्रा – ट्रेवल ही सब कुछ होना चाहिये। पर मेरे पास ट्रेवल ही नहीं है। या ट्रेवल के नाम पर शिवकुटी का गंगाजी का फाफामऊ के पुल से निषादघाट तक का वह क्षेत्र है, जहां से कच्ची शराब का बनना सेफ दूरी से देखा जा सके। मेरे कथन को एक ट्रेवलर का कथन नहीं माना जा सकता।
इसलिये, जब मैं यह अपनी स्कैपबुक में दर्ज करता हूं – एक औसत से कुछ अधिक बुद्धि का इन्सान, जिसे लोगों से द्वेष न हो, जो आत्मकेन्द्रित न हो, जो सामान्य तरीके से मानवता की भलाई की सोचता हो, जो यात्रा कर देखता, परखता, लोगों से इण्टरेक्ट करता और अपनी ऑब्जर्वेशन रिकॉर्ड करता हो; वह मानव इतिहास में आसानी से जगह पा सकता है – तो मैं अपनी सोच ईमानदारी से प्रस्तुत करता हूं। पर उस सोच की सत्यता के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं होता। ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस सोच के अनुसार हैं – गुरु नानक, जीसस क्राइस्ट या बुद्ध जैसे भी।
पर मैं साइकल-वेगड़ या रेल-वेगड़ बन कर भी आत्म संतुष्ट हो जाऊंगा।
शैलेश पाण्डेय ने पूर्वोत्तर की यात्रा ज्वाइन करने का न्योता दिया है – मोटर साइकल पर। सुकुल ने साइकल पर नर्मदा यात्रा का। मुझे मालुम है इनमें से दोनों पर मैं नहीं निकलने वाला। … पर ये न्योते, ये सोच और ये आग्रह यह बताते हैं कि एक आध ठीक ठाक ट्रेवलॉग अपने हिस्से भी भगवान ने लकीरों में लिख रखा है। निकलना चाहिये।
उठो; चलो भाई!
(यह पोस्ट कल 12 जनवरी को पब्लिश होगी। तब तक शायद डाक्टर विनीत अग्रवाल, यहां रेलवे के मुख्य फीजीशियन मुझे अस्पताल से छुट्टी देने का निर्णय कर लें।)
हर हर महादेव 🙏
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मन तो मौक़ा मिलते ही उड़ जाना चाहता है। स्थिर होकर कहाँ रह पाता है?
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अन्तर यही है कि कोई मन राजहंस होता है और कोई साँझ में अपने नीड़ पर लौट आने वाले तोते के झुंड जैसा.
हमारा वाला दूसरे प्रकार का है या फिर कौवे जैसा! अस्थिर।
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योगदर्शन पढ़ रहे हैं, मन की मनमौजी समझ रहे हैं।
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😁
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