गाडरवारा, गाकड़, डमरू घाटी और कुम्हार

10 अक्तूबर शाम –

सवेरे प्रेमसागर रेस्ट हाउस के आसपास घूमे। खपरैल के मकान देखे और उनके चित्र लिये। वन विभाग की कॉलोनी की सड़क का चित्र देख कर मुझे अपने रेलवे के दिनों की याद हो आयी। मैं छोटी जगहों में रहा हूं और वहां की रेल कॉलोनी के दृश्य इसी प्रकार के ही होते थे। सवेरे उनमें सैर करने का भी वही आनंद होता था। साफ सड़कें और वृक्ष। वृक्षों से गिरी पत्तियां। उन दृश्यों को तो बहुत याद करता हूं। यहां गांव में भी खुला माहौल है, पर खुली सड़कें और उनके किनारे पेड़ तो नहीं हैं। ऊबड़ खाबड़ सड़क और उसके किनारे गांव वालों के शौच की गंध तो बहुत ही उबकाई लाती है। पर सब कुछ तो जीवन में हर समय नहीं मिल सकता! प्रेमसागर के उन चित्रों को देख कर मैं अतीत में चला गया। वह अतीत, जहां अब जाना नहीं होगा। :-(

गाडरवारा की वन विभाग की कॉलोनी की सड़क

प्रेमसागर की ख्याति-खबर उनके आने के पहले पंहुचने लगी है। गाडरवारा में उनसे मिलने कुछ लोग आये थे। मैंने उनसे पूछा नहीं कि कौन लोग थे। प्रेमसागर भी बाकी चीजें बताते समय शायद उनके बारे में बताना भूल गये। उन्होने यह बताया कि सवेरे सड़क पर झाड़ू लगाती महिला दिखी तो उससे पूछा कि उसकी कोई सहायता कर सकते हैं क्या? महिला ने बताया कि उसने चाय नहीं पी है। उसको को उन्होने पैसे दिये थे चाय पीने के लिये। उस महिला का मरद भी सफाई के काम में था तो दो लोगों की चाय के लिये दिये।

अपने एक उसूल की बात उन्होने प्रसंगवश बताई प्रेमसागर ने – “भईया, वैसे मैं भीख मांगने वालों को भीख नहीं देता। पर वृद्ध और बीमार लोगों को जरूर सहायता करने की कोशिश करता हूं। उसके अलावा जो सार्वजनिक स्थान पर सफाई के काम में लगे मिलते हैं, उनके प्रति हमेशा कुछ न कुछ देने का भाव मन में रहता है। काहे कि यह सफाई का काम कोई करता नहीं। और यह बहुत जरूरी काम है।”

अशोक मेहरा जी गाकड़ भूनते हुये

दोपहर के खाने में मनीष तिवारी के घर पर गाकड़ भर्ता का इंतजाम था। बनाने के काम में अस्थाई कर्मी अशोक मेहरा जी लगे थे। गाकड़ वैसे ही बनता है जैसे यहां उत्तरप्रदेश में बाटी। उसमें शायद सत्तू नहीं भरा रहता। मालवा में आगे यही रूपांतरित हो कर बाफला बन जाता है। बाफला बनाने की प्रक्रिया कुछ अलग है। वहां गोल टिक्कड़ पहले उबाला जाता है फिर कण्डे पर भूना जाता है। मुझे बाटी की बजाय गाकड़ और गाकड़ की बजाय बाफला ज्यादा अच्छा लगता है। बाटी में जो सत्तू झरता है उसे समेटते हुये खाना झंझट का काम लगता है। यह जरूर है कि बाटी की तुलनात्मक बेइज्जती पूर्वांचल-बिहार वालों को कत्तई नहीं रुचेगी। :lol:

दोपहर के खाने में मनीष तिवारी के घर पर गाकड़ भर्ता का इंतजाम था।

फिलहाल प्रेमसागर के गाकड़-भर्ता-दाल-दही आदि के चित्र को देख मन किया कि मनीष का निमंत्रण स्वीकार कर गाडरवारा का चक्कर लगा ही लिया जाये। … सब मानसिक लड्डू फोड़ने वाले ख्याल हैं! :-)

शाम के समय शक्कर नदी के उस पार, पूर्वी किनारे के आगे वे डमरू घाटी गये। यहां गाडरवारा के ही किन्ही भगवान सिंह परिहार जी ने एक बड़े से परिसर में एक मंदिर-कम-टूरिस्ट स्पॉट जैसा बनाया है। सीमेंट या प्लास्टर ऑफ पेरिस की छोटी-बड़ी-विशालकाय मूर्तियां हैं। शिव जी और हनूमान जी की विशालकाय मूर्तियां और शिवलिंग हैं। बतखें हैं। प्राकृतिक दृश्य है। डमरू के आकार की इस घाटी का कोई इतिहास भी है और दो दशक पुराना वर्तमान भी। गाडरवारा से जुड़ा है डमरू घाटी का नाम। मुझे बहुत कुछ लिखा मिला नहीं नेट पर डमरू घाटी की प्राचीनता के बारे में। शायद जो है वह कुछ दशकों की परिकल्पना और दो दशकों का निर्माण है। एक खबर वहां आने वाले चढ़ावे की राशि के बारे में है, जिससे यह पता चलता है कि चढ़ावा खूब आता है – अर्थात श्रद्धालू पर्यटक खूब आते हैं। कुल मिला कर पर्यटन, तफरीह और धार्मिक स्थल का घालमेल सा लगा डमरू घाटी।

वहं के कई चित्र प्रेमसागर ने भेजे हैं। उनमें से जो अच्छे हैं उन्हें मैं यहां स्लाइड-शो के रूप में लगा दे रहा हूं। कुछ अधिक लिखने की बजाय वे चित्र ही कह देंगे कि डमरू घाटी का डमरू कैसे बजना चाहिये।

मैंने कल प्रेमसागर के यह कहने पर कि यहां गाडरवारा में उन्होने खपरैल की छतों वाली कई इमारतें देखी हैं, यह आग्रह किया था कि वे अगले दिन (अर्थात आज) उन स्थानों के चित्र लें और यह भी पता करने की कोशिश करें कि खपरैल बनाने वाले कुम्हार अब भी खपरैल व्यापक तौर पर बनाते हैं या जो है वह पुरानी इमारतें भर ही हैं। कम से कम मैं यहां भदोही में तो पाता हूं कि खपरैल – नरिया-थपुआ – का बनाना कुम्हार लोगों ने बंद ही कर दिया है। लोग सीमेण्ट की ढलईया वाली छतें या एसबेस्टॉस/स्टील की शीट की छतें ही इस्तेमाल करने लगे हैं। मड़ई सरपत, रंहठा, बांस की खपच्ची और अन्य घासफूस के प्रयोग से बनती है। खपरैल तो खतम हो गयी है। यह परिवर्तन कुछ दशकों का है।

खपरैल का घर

गाडरवारा में चूंकि प्रेमसागर आज अपनी यात्रा से अवकाश लिये थे, वे आसपास खपरैल और कुम्हार की तलाश में ही घूमे मनीष तिवारी के साथ, उनकी मोटर साइकिल पर। खपरैल की छतों की इमारतें आकर्षक लगती हैं। कुम्हार भी मिला। उसके पास अब बड़े चक्के वाला हाथ और डण्डी से घुमाने वाला चाक नहीं है। उसका स्थान एक हॉर्सपावर की इण्डक्शन मोटर से चलित चाक ने ले लिया है जिसे बटन दबा कर चलाया जाता है और चाक की स्पीड भी शायद रेग्युलेटर से नियंत्रित की जाती है।

पीडब्ल्यूडी का रेस्ट हाउस, गाडरवारा

कुम्हार ने बताया कि खपरैल की बिक्री का समय तो मानसून के पहले का था। तभी बन कर वह बिक चुका। अब तो वह घरिया बना रहा था। बहरहाल यह तो पता चला कि खपरैल बनना अभी जारी है।

कुम्हार का बिजली चालित चाक

मेरी पत्नीजी यह सुन देख कर कहती हैं – बेचारे प्रेमसागर! कहां तो द्वादश ज्योतिर्लिंग यात्रा में नाक की सीध में, कांवर उठाये कदमताल किये चले जा रहे थे और उसमें रमे हुये थे। तुमने उस शरीफ आदमी को खपरैल देखने और कुम्हार की बस्ती खोजने में लगा दिया! शंकर भगवान तुम पर किचकिचा रहे होंगे। तुम उनका शोषण कर रहे हो ‌‌डिजिटल एक्स्प्लॉइटेशन (Digital Exploitation)! :lol:

मैं कहता हूं – नहीं, ऐसा नहीं है! मैं उनकी यात्रा को एक नयी विमा – नया डायमेंशन देने का प्रयास कर रहा हूं। यह देखना-परखना-सूंघना उनके चरित्र को निखारेगा और उन्हें एक अनूठा कांवरिया बनायेगा। और यह सब करा कौन रहा है? मैं नहीं करा रहा। इस कांवर यात्रा में जो कुछ हो रहा है वह महादेव प्रेरित ही है। सब वे ही कर रहे हैं और वे ही करा रहे हैं।

कुम्हार घरिया बना रहा था।

मेरे समधी रवींद्र पांड़े की मोबाइल की रिंगटोन है – प्रभु आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है। करते तो तुम हो बाबा, मेरा नाम हो रहा है। … सो कर सब महादेव ही रहे हैं! :-)

कल भोर में ही निकल लेंगे प्रेमसागर गाडरवारा से। उनकी योजना सांईखेड़ा तक जाने की है। वह पचीस किमी दूर है। वहां रात में रुकने के दो विकल्प हैं। एक तो किसी सज्जन के घर पर है और दूसरा मंदिर में। प्रेम सागर ने कहा है कि भोर में निकल कर दस बजे तक चलेंगे। फिर जब धूप तेज हो जायेगी तो दोपहर तक कहीं छाया में ठहरेंगे। बाकी यात्रा शाम को पूरी कर मुकाम पर पंहुच जायेंगे। अब वे दिन भर चलने के कारण बीमार होने का जोखिम नहीं लेंगे। कुछ दिनों बाद जब धूप का ताप मंद पड़ जायेगा, तब दिन भर चलने की सोचेंगे।

सांईखेड़ा दूधी नदी के किनारे है। वह नदी भी सतपुड़ा के पहाड़/जंगल से निकलती है और आगे चल कर नर्मदा में मिल जाती है। वैसे ही जैसे शक्कर नदी सतपुड़ा से निकल कर नर्मदा में मिलती है। प्रेम सागर इसी तरह नर्मदा के आसपास चल रहे हैं। अभी नर्मदा के दक्षिणी/बांयी बाजू में हैं। परसों वे बोरास के पास नर्मदा लांघेंगे। वे नर्मदा के परकम्मा वाले होते तो नर्मदा माई को लांघने का काम नहीं करते! पर वे दूसरे मुहीम पर हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर यात्रा पर!

प्रेमसागर पाण्डेय द्वारा द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर यात्रा में तय की गयी दूरी
(गूगल मैप से निकली दूरी में अनुमानत: 7% जोडा गया है, जो उन्होने यात्रा मार्ग से इतर चला होगा) –
प्रयाग-वाराणसी-औराई-रीवा-शहडोल-अमरकण्टक-जबलपुर-गाडरवारा-उदयपुरा-बरेली-भोजपुर-भोपाल-आष्टा-देवास-उज्जैन-इंदौर-चोरल-ॐकारेश्वर-बड़वाह-माहेश्वर-अलीराजपुर-छोटा उदयपुर-वडोदरा-बोरसद-धंधुका-वागड़-राणपुर-जसदाण-गोण्डल-जूनागढ़-सोमनाथ-लोयेज-माधवपुर-पोरबंदर-नागेश्वर
2654 किलोमीटर
और यहीं यह ब्लॉग-काउण्टर विराम लेता है।
प्रेमसागर की कांवरयात्रा का यह भाग – प्रारम्भ से नागेश्वर तक इस ब्लॉग पर है। आगे की यात्रा वे अपने तरीके से कर रहे होंगे।
प्रेमसागर यात्रा किलोमीटर काउण्टर

*** द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर पदयात्रा पोस्टों की सूची ***
पोस्टों की क्रम बद्ध सूची इस पेज पर दी गयी है।
द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर पदयात्रा पोस्टों की सूची

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

11 thoughts on “गाडरवारा, गाकड़, डमरू घाटी और कुम्हार

  1. अंजनी कुमार सिन्ह, ट्विटर –
    मध्यप्रदेश और झारखंड में बाकी राज्यो की तुलना में कुम्हारों की संख्या अधिक है ।ये मेरा आकलन है जबलपुर शहर में ही बहुत सारे कुम्हार परिवार रहते है और अभी भी मिट्टी के बर्तन खिलौने खपरैल बगैरह बनाते है ।प्रेम सागर जी की यात्रा अनवरत जारी रहे भोले नाथ की कृपा से
    #हर__हर_महादेव

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  2. बदनाम शायर, ट्विटर –
    हर जगह देख कर लगता है वहीं जा कर रहा जाये।……
    कितनी इच्छाये ॥ कितने मन ….कितने ख़्वाब.. कितने जीवन …

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  3. सौरभ त्यागी, फेसबुक पेज –
    इस सीरीज को चाव से फॉलो कर रहा हूं सर, महादेव चाहेंगे तो यात्रा पूरी होने के बाद एक किताब की शकल दीजिएगा इस वृतांत को। अंदरूनी भारत की मिट्टी की महक है इसमें 🙏
    ————
    उत्तर – धन्यवाद सौरभ जी!

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  4. नीरज रोहिल्ला, फेसबुक पेज –
    रीताजी की बात में दम है (पूर्ण सहमति नहीं है अभी), इंजीनियरिंग में कहते हैं 1st order effect, 2nd order and 3rd order etc.
    उनकी यात्रा का 1st order ध्येय किसी भी प्रकार बाधित न हो, एक सूत भी नहीं तभी बाकी करेक्शन लगाए जा सकते हैं। 😉
    ———-
    उत्तर-
    उसे पुष्ट होने के ध्येय से ही किया जा रहा है, यही सोच है. कम से कम बाधित करने का ध्येय तो है ही नहीं.

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    1. “डिजिटल” तो आप ही का दिया है! हर पोस्ट पर टिप्पणी कर जो जोश बढ़ रहा है, उसी से काम हो रहा है.
      रही बात पार्टी की तो एक नया दल बनाया जाए PKD – पांड़े कांवर दल! 😁

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  5. शैलेंद्र सिंह ट्विटर पर –

    ——
    उत्तर –
    गूगल मैप के हिसाब से वे 972 किमी चले हैं। इससे ज्यादा ही चले होंगे। सात-आठ प्रतिशत ज्यादा जोड़ कर 1000 किमी से अधिक चल चुके हैं! प्रयाग से गाडरवारा तक।
    आपके सुझाव अनुसार एक दूरी तय किये का काउण्टर लगा दिया है पोस्ट में। अब तक की तय की दूरी 1040किमी.

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  6. पिच्छल पैरी ट्विटर पर –

    ———-
    नहीं जी! प्रेमसागर पर कोई भी पोस्ट बिना पत्नीजी की सहमति के पोस्ट नहीं होती! :‌)

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    1. पिच्छल पैरी, ट्विटर पर

      होनी भी नहीं चाहिए! इन-हाउस-देवी (IHD) की आज्ञा/अनुमति से चलें तो जीवन में शांति रहती है! IHD की भय और भक्ति दोनों ही करें!

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  7. प्रदीप मिश्र, ट्विटर पर –
    Bafla is more delicious, it’s my view though I like bati too ,in malwa bafla serve with different type of pulses ..tikhi ,mithi n chatpati…with laddu.
    ———-
    चूरमा का लड्डू दिव्य होता है. लाजवाब.

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  8. नीतू आर पाण्डेय, ट्विटर पर

    ———-
    प्रेमसागर उहापोह में होंगे कि मेरी मानें या मुझे झटक कर अपने से चलें! 😀

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