साइकिल सैर की एक दोपहर – विचित्र अनुभव

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Gadauli Dham गड़ौली धाम

बहुत दिनों बाद धूप थी, हवा नहीं बह रही थी और वातावरण में गलन भी नहीं थी। बहुत दिनों बाद गुलाब को कहा कि मेरी साइकिल की हवा चेक कर ले। बहुत दिनो बाद गांव देहात में साइकिल ले कर मैं निकला। बारह से ऊपर समय हो गया था। दक्षिणायन सूर्य उत्तर की ओर साइकिल की छाया बना रहा था। वातावरण में धूल थी, पर इतनी नहीं कि सांस में घुटन सी हो। साइकिल सैर आनंददायक नहीं थी, पर अप्रिय भी नहीं थी।

अगियाबीर के नाले में आज फिर किसी ने अपने नीचाई के खेत में पानी दिया था जो पगडण्डी पर बह कर आ गया था। उसमें से अगर साइकिल निकालता तो जरूर साइकिल फंस जाती। न आगे जाते बनता न पीछे। एक बार पहले मैं फंस चुका था; सो इस बार सतर्क था। किनारे से बच बचा कर निकला और साइकिल भी सूखे से धकेल कर निकाली। सौ दो सौ कदम चढ़ाई पर पैदल चलना पड़ा साइकिल घसीटते हुये। उतने के लिये मेरे ऑस्टियोअर्थराइटिस ग्रस्त घुटनों और छियासठ वर्षीय शरीर को ज्यादा तकलीफ नहीं हुई। तीन चार साल पहले यह नहीं कर पाता। निश्चय ही मैं चार साल पहले के खुद से ज्यादा फिट हूं। गांव का असर है!?

सामने दक्षिण की ओर गंगा को उन्मुख परिसर का विस्तार। एक रंगमंच सा सज गया था।

आगे कमहरिया के गौगंगागौरीशंकर पंहुचा। सतीश वहां नहीं मिले। फोन किया तो उनकी पत्नी ने कहा कि बाहर गये हैं और फोन घर पर ही है। शैलेश पाण्डेय ने बनारस से मेरे लिये एक डमरू भेजा था, जो सुनील ओझा जी ले कर आये थे और सतीश के टेण्ट में रखा था। वही लेना था, पर सतीश के न होने से मिला नहीं। वहां रामप्रसाद थे। वे मुनीम/केयरटेकर जैसा काम देखते हैं। उन्होने कहा – बाबू जी बैठिये, मैं चाय बनाता हूं।

रामप्रसाद जी ने चाय बनायी। इसी बीच एक पुरुष और महिला मोटर साइकिल पर वहां आये। आदमी उस महिला का पति था या नौकर स्पष्ट नहीं हो रहा था। उसने महिला के लिये कुर्सी खींच कर रखी। तब महिला उसपर बैठी। कुर्सी खींचने का काम वह खुद कर सकती थी।

इसी बीच एक पुरुष और महिला मोटर साइकिल पर वहां आये। आदमी उस महिला का पुरुष था या नौकर स्पष्ट नहीं हो रहा था। उसने महिला के लिये कुर्सी खींच कर रखी। तब महिला उसपर बैठी।

एक रंगमंच सा सज गया था। तीन खण्ड रंगमंच के। एक तरफ मोटर साइकिल और मेरी साइकिल। बीच में सतीश का टेण्ट। दूसरी तरफ एक तख्त पर बैठा मैं और सामने दक्षिण की ओर गंगा को उन्मुख परिसर का विस्तार। मोटर साइकिल के पास कुर्सी पर बैठी महिला। बीच में टेण्ट में चाय बनाता रामप्रसाद और दूसरी तरफ तख्ते पर बैठा मैं। खण्ड एक में महिला अपनी बुलंद आवाज में अपने से ही बोले जा रही थी। स्वत: स्फूर्त मोनोलॉग। मुझे नहीं लगा कि वह किसी से बात कर रही हो। बीच में रामप्रसाद ने उसके पति/नौकर से बातचीत में मेरे बारे में कहा कि “वे रेलवे के बड़े अफसर हैं; उनको चाय पिला रहा हूं।”

इतना सुनते ही वह आदमी लपक कर मेरी ओर चला आया। बिना भूमिका के पास के तख्त पर बैठ कर मुझसे कहने लगा – “मेरे दो लड़के इलाहाबाद में रह कर नौकरी की परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। आप अगर कुछ उनकी सहायता कर सकें। कोई नौकरी दिला सकें।..”

“मैं क्या कर सकता हूं भाई। मैं तो रिटायर हो चुका हूं। मेरे हाथ में तो कुछ नहीं है। आर आर बी की परीक्षा दिलवाइये। उससे ही नौकरी का कुछ हो सकता है।” – मैंने अपना ऑफ्ट-रिपीटेड डायलॉग बोला जो गांवदेहात में बार बार मुझे बोलना पड़ता है। और लोग तो कुछ जान पहचान निकाल कर, भूमिका बना कर नौकरी की बात करते हैं; यह बंदा तो घोर अपरिचय के बाद भी लप्प से नौकरी दिलाने की कह रहा है। मुझे अजीब लगा। झुंझलाहट भी हुई कि सतीश के न रहने पर मैं वहां चाय पीने के लिये रुका क्यूं?!

वह आदमी हार नहीं माना – “आप पूरी तरह रिटायर हो गये हैं?”

“भाई रिटायर तो रिटायर। आधा रिटायर कुछ होता नहीं।”

“तब भी आपके पास कौनो जुगाड़ तो होगा।” यह सुन कर मैं खीझ गया। पर तभी रामप्रसाद चाय ले आये।

“भाई मेरी खुद की नौकरी कड़ी परीक्षा पास करने पर लगी थी। वही अपने लड़कों को करने को कहो। कोई जुगाड़ काम नहीं करता।”

वह बंदा फिर भी पेस्टरिंग करता रहा। मेरा चाय पीना दूभर हो गया। इस बीच उसने बताया कि वह नौकरी करता था, पर पत्नी बीमार रहती है, इसलिये नौकरी छोड़ दी। उनको आंगनवाड़ी और जहां जाना होता है ले कर जाना होता है। उसी में बहुत समय चला जाता है। मुझे और कंफ्यूजन हुआ। पत्नी बीमार हो तो नौकरी छोड़ कर निठल्ला बनना हजम होने वाला सिद्धांत नहीं लगता था। और पत्नी किसी भी तरह से लाचार-बीमार नहीं दिखती थी। चौधरी की तरह कुर्सी पर बैठी थी। हो न हो, यह बंदा भी मेरी तरह “गुड फॉर नथिंग” ही है। गांवदेहात में ऐसे गुड-फॉर-नथिंगों की भरमार है। वे लोग जो पढ़ लिख कर खेती किसानी करते नहीं। श्रम करने की उनकी इच्छा शक्ति ही नहीं है। नौकरी भी चाहते हैं जिसमें तनख्वाह हो पर काम न हो।

जल्दी जल्दी चाय खत्म की। रामप्रसाद को अच्छी चाय बनाने का धन्यवाद दिया और वहां से चलने लगा। रंगमंच का फोकस तख्ते से टेण्ट होते मोटरसाइकिल के पास कुर्सी पर बैठी महिला की ओर शिफ्ट हुआ। बिना किसी पूर्व परिचय के वह महिला मुझसे बोली – “अरे, आप कहां चल दिये? इतनी जल्दी। आप कहां से आये हैं? कहां रहते हैं?” उसके शब्द धीरे धीरे, पूरी स्पष्टता के साथ, चबा चबा कर निकल रहे थे। मानो रंगमंच निर्देशक ने उन्हें इसी तरह डायलॉग बोलने को कहा हो। पूर्ण अपरिचित के साथ इस प्रकार बोलना मुझे बहुत वीयर्ड लगा।

उस महिला को हूँहां में जवाब दे चला। मेरे मन का नॉन-प्रेक्टिसिंग पत्रकार इस दम्पति के बारे में जानकारी लेने का प्रयास करने लगा। औरत चण्ट है और आदमी घोंघा। औरत की आंगनवाड़ी में नौकरी लग गयी है तो आदमी को लगा कि काम करने की जरूरत नहीं। वह महिला के नौकर-मोटरसाइकिल चालक के रोल में आ गया है। ज्वाइण्ट फैमिली में रहते हैं पर उसमें अपना योगदान नहीं करते। उल्टे, महिला पूरे परिवार पर तोहमद लगाती फिरती है कि वे सब मिल कर उसे मार डालना चाहते हैं। एफ आई आर लिखा कर पूरे परिवार को थाने घसीट चुकी है वह! वे दम्पति भारत के उस पक्ष को दिखाते हैं जो जाहिल-काहिल-नीच-संकुचित है। भारत अगर प्रगति नहीं करता तो ऐसे लोगों के कारण ही।

सामान्यत: गांवदेहात का यह पक्ष मेरे सामने नहीं आता। यह पता चलने पर खिन्नता भी हुई और जानकारी भी बढ़ी। मुझे नहीं लगता कि पढ़ने वाले इसे कोई रिलेवेण्ट पोस्ट मानेंगे। पर अनुभव हुआ तो लिख देने का मन हो आया। ब्लॉग है ही उस काम के लिये। :lol:


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

10 thoughts on “साइकिल सैर की एक दोपहर – विचित्र अनुभव

  1. गांव देहात में किसी की सरकारी नौकरी लग जाए तो ज्यादातर समझते है की जुगाड से लगी है ,एक साल पहले मेरी बहन का प्राइमरी स्कूल में सहायक अध्यापक के पद पर चयन हुआ था ,पूरे गांव में चर्चा यह थी की 3 लाख दिए तब हुआ ,जबकि हमने कटी चवन्नी भी रिश्वत के रूप में कही नही दिया जो हुआ योग्यता पर हुआ था । तो यह है गांव देहात की मैंटलिटी

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    1. लोग आपकी योग्यता और प्रतिभा को तो कुछ मानते नहीं. जैसे वे खुद हैं वैसे सबको देखते हैं. 😔

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  2. सप्रेम नमस्कार।आपका लिखा पढ़ना सदैव एक सुंदर अनुभव होता है।
    प्रेमसागर जी की यात्रा का वृत्तांत अब पढ़ने या जानने को नहीं मिलेगा ऐसा जान कर न बहुत दुखी हैं।
    आपसे सविनय अनुरोध है कि कमतर रूप में ही सही पर इसे बंद ना करें। अगर प्रेमसागर जी के व्यवहार में कोई त्रुटि या कमी रह गई हो तो उन्हें अनुज जान कर क्षमा करें, और हमारी ओर से भी क्षमा याचना को स्वीकार कर, इस कांवर यात्रा की ब्लॉग शृंखला को जारी रखें।
    आशा है कि आपका संपर्क उनसे बना हुआ है।

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    1. आपको टिप्पणी के लिए धन्यवाद राकेश जी. प्रेम सागर जी की ओर से जो भी जानकारी मिला करेगी, वह ब्लॉग पर साझा करूंगा. अवश्य.

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      1. धन्यवाद, आपके जवाब में मुझे आशा की किरण दीख रही है।
        पुनश्च धन्यवाद।

        पिछले दिनों में एक ऐसे डॉक्यूजरीज के बारे में जान पाया जिसमें एक व्यक्ति ( अमरदीप सिंह) ने उन सभी स्थानों पर जाकर एक डॉक्यूमेंट्री बनाया है जहां-जहां गुरु नानक गए थे। यह सीरीज हर किसी के लिए thegurunanak.com पर उपलब्ध है। प्रेम सागर जी के यात्रा का आपका ब्लॉग वृतांत भी ऐसे ही महत्व का ब्लॉग सीरीज रहा है और मेरी बड़ी इच्छा होगी कि यह बंद ना हो

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  3. Sir logo ne dimag m itna kuda bhar diya h ki bina jugad k nokri lagti h ye vishwas karne ko taiyar hi nahi hote .aur koi bada officer vo bhi railway ka mano nokri dilana pakka par inhe kon samjhaye samy badal raha h

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    1. ऐसे लोग समाज में 90 प्रतिशत हैं. और फिर कहते हैं सरकार विकास नहीं कर रही!

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  4. सत्य अनुभव । गांव में यह सामान्य चलन है कि किसी भी नौकरीपेशा या रिटायर व्यक्ति से मिलते ही पूछना कि उसका सिलेक्शन कितने पैसे देकर हुआ था या वह नौकरी दिलवा दे । यदि कोई इतना नहीं कर सकता तो कम से कम अपने सोर्स सिफारिश से उनके किसी संबंधी को स्थानीय प्रशासन विशेषतः पुलिस की कार्रवाई से बरी करवा दे । ये काम नहीं कर सकते तो कम से कम उनको उधार पैसे ही दे दे । कभी मांगे भी नहीं । यह भी नहीं तो फिर वह व्यक्ति किसी काम का नहीं । पूर्वांचल में सब जगह यही हाल है ।

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  5. सत्य अनुभव । गांव में यह सामान्य चलन है कि किसी भी नौकरीपेशा या रिटायर व्यक्ति से मिलते ही पूछना कि उसका सिलेक्शन कितने पैसे देकर हुआ था या वह नौकरी दिलवा दे । यदि कोई इतना नहीं कर सकता तो कम से कम अपने सोर्स सिफारिश से उनके किसी संबंधी को स्थानीय प्रशासन विशेषतः पुलिस की कार्रवाई से बरी करवा दे । ये काम नहीं कर सकते तो कम से कम उनको उधार पैसे ही दे दे । कभी मांगे भी नहीं । यह भी नहीं तो फिर वह व्यक्ति किसी काम का नहीं । पूर्वांचल में सब जगह यही हाल है ।

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