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इस इलाके में जहां मैं रह रहा हूं; किसानों की जोत कम से कमतर होती गयी है। लोगों के पास खेती की जमीन बीघे में नहीं बिस्वे (बीघे का बीसवां अंश) में है। और बहुत से खेती पर आश्रित लोगों के पास तो अपनी जमीन है ही नहीं। खेती की नहीं, मकान या शौचालय बनाने की भी जमीन ठीक से नहीं है। उनके विकल्प सीमित हैं – अधियरा या बटाईदारी आधार पर किसानी; एक दो बकरी-मुर्गी-भेड़ पालन और उसके साथ एक गाय या भैस रखना जिन्हे आसपास की घास चरा कर जीवित रखना और गाढ़े में उन्हे बेच कर कुछ रकम पा लेना; कालीन बुनाई करना या उससे सम्बद्ध कोई कार्य करना; मजदूरी या मकान की बेलदारी-मिस्त्री का काम करना आदि। यह सब उन्हें प्रगति की ओर नहीं ले जाते। केवल जिंदा रहने भर के साधन हैं।
इसलिये, लोग यहां से निकल कर महानगरों की ओर जाते हैं। पर वह भी (अधिकांश मामलों में) केवल सबसिस्टेंस का ही जरीया है; समृद्धि का नहीं। समृद्धि तो तभी आ सकती है, जब यहां रहते हुये उन्हें ऐसा रोजगार मिले जो उनकी आर्थिक दशा सुधारे और उसमें उत्तरोत्तर सुधारने की क्षमता हो।
उस दिन गौ-गंगा-गौरीशंकर प्रॉजेक्ट के स्थान पर सुनील ओझा जी से अप्रत्याशित भेंट हो गयी। गाय पर अपनी सोच स्पष्ट करते हुये उन्होने कहा कि ऐसा हो सकता है; गांव के मार्जिनल और खेतिहर की समृद्धि आ सकती है और वह देसी गाय आर्धारित जीवन पर निर्भर है।


पर जब ओझा जी ने कहा कि उनकी सोच इन खेतिहर किसानों को गाय पालन के आधार पर उस स्तर पर लाने की है जो ग्रामीण जीवन के लिये एक मॉडल बनेगी; तो वह बात सीधे सीधे मुझे नहीं पची। वह कहना मुझे गांधी जी के ग्राम-स्वराज्य जैसा आदर्शवाद लगा; जिसपर आज भी हम लिप-सर्विस देते हैं पर जीवन में उसे सिरे से नकार चुके हैं। मुझे गांधीजी के ग्राम की परिकल्पना के अनेकानेक प्रयोग याद आये जो आज केवल नोश्टॉल्जिया का अंग हैं; यथार्थ में गांधीजी हाशिये पर हैं। भवानी भट्टाचर्य के उपन्यास Shadow From Ladakh (1966) के समय ही बापू का ग्रामोदय प्रसंग खो रहा था और अस्सी के दशक के बाद जब बैल आर्धारित खेती खत्म हुई, ट्रेक्टर-ट्यूब वेल आये, तब गाय-बैल की अर्थव्यवस्था भी दम तोड़ने लगी थी। यह सब मेरे जमाने में हुआ है।

मैं अपनी पत्नीजी को गौ-गंगा-गौरीशंकर का वह स्थल दिखाने ले गया था, जहां इस थीम पर एक वृहत परियोजना फलीभूत होने जा रही है। हम लोग शाम चार बजे गये थे और मैं सोचता था कि पत्नीजी को दस मिनट में वह स्थान दिखा कर लौट सकूंगा। पर वहां तो दो दर्जन कारें और एसयूवी वाहन खड़े थे। लोग गंगा तट पर देखते चर्चा करते लौट रहे थे। एक बारगी तो मन हुआ कि आज लौट चला जाये; पर फिर विचार बदल कर पत्नीजी को मैंने गंगा किनारे वह स्थान दिखाया जहां महादेव का मंदिर बनेगा। उसके पश्चिम में ढलान है और उसके बाद फिर ऊंचाई। पश्चिम की ऊंचाई पर गौरीशंकर की 108 फुट की प्रतिमा, गंगा किनारे, गंगा जी को मुंह किये स्थापित होगी। पूरी थीम भारतीय जनता पार्टी की पोलिटिको-कल्चरल सोच को संवर्धित करती है।
पांच सात मिनट में हम दोनो वापस लौट रहे थे तभी एक सज्जन – धर्मेंद्र सिंह जी ने हमारी ओर आ कर हमारा परिचय पूछा और वहां आने का प्रयोजन भी। मेरे नाम से शायद वे कुछ दिन पहले मेरी ब्लॉग पोस्ट के साथ मुझे पहचान पाये और उन्होने हमें सुनील ओझा जी से मिलाया।

ओझा जी एक आर्किटेक्ट जैसे लगते सज्जन से बातचीत कर रहे थे। उनको वे समझा रहे थे कि साइट देखने के आधार पर उन्हें थीम को ध्यान में रखते हुये प्लान परिवर्धित करना है। मैंने देखा कि पचीस-तीस लोग, जो वहां थे; ओझा जी को ध्यान से सुन रहे थे। जल्दी ही उन सज्जन को विदा कर वे हमें मुखातिब हुये। उनकी बात से लगा कि वे मेरी ब्लॉग-पोस्ट पढ़ चुके थे। ब्लॉग पोस्ट तथा शैलेश जी ने जो कुछ मेरे बारे में उन्हे बताया था; उसके आधार पर वे मुझे इस योग्य पाते थे कि वे एक सवा घण्टे तक मेरे साथ बातचीत कर सकें। अन्यथा यह तो मैं जान ही गया था कि उनका समय कीमती है और आसपास आये कई लोग तो मात्र उनके द्वारा नोटिस किया जाने से ही अपने को धन्य मानते होंगे।
बारम्बार ओझा जी ने कहा कि वे यह नहीं सोचते कि हम गाय पर दया करें, वरन ऐसा हो कि हमें लगे कि गाय वास्तव में हमारी माता की तरह हमारा पालन कर रही है। यह सुन कर मैंने उनसे दो तीन बार पूछा – आप यह आर्थिक आधार पर कह रहे हैं या मात्र “गौमाता वाले इमोशन” को अभिव्यक्त कर रहे हैं? पर हर बार उनका उत्तर था कि वे शुद्ध आर्थिक आधार की बात कर रहे हैं। “गाय की जब सेवा होगी, पर्याप्त और सदा उपलब्ध भोजन उसकी चरनी में रहेगा, जब गाय की साफ सफाई का ध्यान रखा जायेगा तो वह इतना देगी कि खेतिहर के जीवन में समृद्धि आयेगी।”
उन्होने जोर दे कर स्पष्ट किया कि वे ज्यादा दूध देने के लिये जर्सी या अन्य विदेशी गायों की बात नहीं कर रहे। वे अमूल के दूध कलेक्शन या विपणन मॉडल की भी बात नहीं कर रहे – जिसमें दूध को उसमें वसा की मात्रा जांच कर उसकी खरीद करने का चलन है। वे देसी गाय के उस दूध की बात कर रहे हैं, जिसे भारतीय आयुर्वेद और संस्कृति ‘अमृत’ मानती है। और उसकी कीमत देसी गाय के शुद्ध दूध के आधार पर आंकी जानी चाहिये।

ओझा जी की बात उस समय मुझे उस यूटोपिया का अंग लगी जिसे हिंदू धर्म के समर्थक-प्रचारक बांटते हैं। उस सद्प्रचार के बावजूद सारी अर्थव्यवस्था ऐसी हो गयी है कि गाय – बैल अप्रासंगिक होते गये हैं; उत्तरोत्तर। और गाय बेचारी बहेतू जानवर की तरह (माता कहाये जाने के बावजूद) प्लास्टिक का कचरा खाने को अभिशप्त है। और बहेतू गाय बछड़ों को किसान धर्म के भय से मारता नहीं पर अपनी खेती की दुर्दशा के लिये खूब कोसता है। किसान के इस भाव को विपक्षी दल भुनाने से बाज नहीं आयेंगे; जबकि उनके पास कोई वैकल्पिक समाधान नहीं है। … इतना जरूर है कि कोई समाधान होना चाहिये। इसलिये ओझा जी की बात भले यूटोपियन लगती हो, पर उस पर ध्यान देने की जरूरत मैंने महसूस की।
पर मुझे शैलेश पाण्डेय ने बताया था कि ओझा जी आम लफ्फाज नेता की तरह नहीं हैं। वे ठोस काम करने वाले और धरातल से जुड़े, धरातल पर खड़े व्यक्ति हैं। इसलिये मैंने उनके कहे को, अपनी शंकाओं के होते हुये भी, ध्यान से सुना। और बड़े धैर्य के साथ ओझा जी ने हम से सवा घण्टे बातचीत की। उस दौरान मैं ओझा जी की सरलता का कायल हो गया। उन्होने न केवल अपनी बात कही, अपने परिचय में भी बताया और हमारा भी उतना परिचय प्राप्त किया जिससे हमारे चरित्र और प्रवृत्ति को वे समझ सकें।
ओझाजी गुजराती हैं; पर काशी को और यहां के अंचल को अपना घर मान रहे हैं। शायद यहीं बस जायें। वैसे ब्राह्मणों का इतना इधर से उधर जाना हुआ है कि अगर वे बहुत पीछे जायें तो वे शायद सरयूपारी-कान्यकुब्ज-शाण्डिल्य ही निकलेंगे। काशी के आसपास से गुजरात गये हुये। यह पूरा भारत एक है! 😆
ओझा जी की उम्र लगभग मेरे बराबर है। वे राजनीति में हैं। सक्रिय। उनकी एक ट्वीट के अनुसार वे सन 2001 के गुजरात विधान सभा के नरेंद्र मोदी जी के चुनाव में वे मोदी जी के प्रभारी थे –
ओझा जी ने बताया कि सन 2014 में वे वाराणसी आये और 2019 के चुनाव में मोदी जी के प्रभारी थे। वे काशी और गंगा मां से इतने अभिभूत हैं कि इसी इलाके में अपने जीवन का उत्तरार्ध व्यतीत करने की सोचते हैं। वे इस गौगंगागौरीशंकर प्रॉजेक्ट को अपना ध्येय मानते हैं और इसके साथ आसपास के छोटी जोत के और खेतिहर लोगों को जोड़ कर एक आर्थिक मॉडल बनाने की भी सोच रखते हैं।
इस इलाके की देसी गौ आर्धारित अर्थव्यवस्था पर ओझा जी की दृढ़ सोच पर अपनी आशंकाओं के बावजूद मुझे लगा कि उनकी बात में एक कंविक्शन है, जो कोरा आदर्शवाद नहीं हो सकता। उनकी क्षमता भी ऐसी लगती है कि वे गायपालन के मॉडल पर प्रयोग कर सकें और उसके सफल होने के बाद उसे भारत के अन्य भागों में रिप्लीकेट करा सकें।
सांझ ढलने पर हमें ओझा जी ने महुआरी के उस झुरमुट में हो रही बैठक से हमें विदा किया। वहां से चलते समय बहुत से विचार मेरे मन में थे। जीवन के इस उत्तरार्ध में मेरी राजसिक वृत्तियां लगभग समाप्त हो गयी हैं। अब तो विशुद्ध जिज्ञासा ही शेष है – यह जानने की जिज्ञासा कि क्या इस ग्रामीण अंचल का और यहां के गरीब मार्जिनल या खेतिहर किसान का भला हो सकता है?

मैंने उस मुलाकात के बाद कई ग्रामीण लोगों से और एक कृषि वैज्ञानिक से बातचीत की है। उनकी बात से यह स्पष्ट हो गया है कि ओझा जी की कही बातों पर आर्धारित आर्थिक मॉडल की सफलता की सम्भावना तो बनती है। उन लोगों ने जो कहा, वह आगे एक पोस्ट में लिखूंगा।
… पर सफलता निर्भर करती है कि उस पाइलट प्रोजेक्ट पर काम करने वाले कुछ प्रतिबद्ध लोगों की टीम काम पर लगे जो किसानों को आर्थिक और कृषि-वैज्ञानिक ज्ञान सरल भाषा में समझा सक। इसके अलावा उनके लिये दूध के मार्केट को, जो ऑनलाइन भी अब काम करने लगा है – देस और विदेश के स्तर पर भी; सुलभ कराने की दिशा में फेसीलिटेट करे। इसके अलावा हरा चारा उगाने और अन्य पशुआहार की उपलब्धता सीम-लेस बनाने की दिशा में काम करे। एक बार ये सब घटक स्ट्रीमलाइन हो जायेंगे तो गौ आर्धारित श्री-समृद्धि किसान के पास सहज आयेगी।
मैं किसान नहीं हूं। मैंने गाय भी नहीं पाली है। पर छ साल गांव में परिवेश को समझने के लिये अपनी सभी ज्ञानेंद्रियों को खोल कर रखने और अब पिछले दस दिनों में सब प्रकार के लोगों से बातचीत के बाद गाय आर्धारित मॉडल पर अगली पोस्ट लिखने में अपने को सक्षम पाता हूं।
अगली पोस्ट की प्रतीक्षा की जाये। इस बीच मैं सुनील ओझा जी को धन्यवाद देता हूं कि उन्होने उस शाम जो मुझे समय दिया, उससे मेरी मानसिक हलचल गाय की दिशा में मुड़ी। … और मैं अपनी पत्नीजी से चर्चा करने लगा हूं – एक दो देसी गायें पाल ही ली जायें! 😆
Mai Kolkata mai A2 milk 80 Rs ltr leta hu. Potential to hai A2 milk ka , marketing and distribution ka intazaam ho bas .
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बढ़िया इनपुट शैलेन्द्र जी! धन्यवाद!
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गौ पालन और उससे आर्थिक समृद्धि यूटोपियन विचार नहीं बल्कि वास्तविकता है। डीजल और डीजल आधारित उपकरणों ने किसान की अधिक कमर तोड़ी है, छोटे से खेत में जो काम बैल आसानी से खेत की मुंडेर पर लगे चारे को खाकर कर सकता है, उसके लिए किसान को हार्ड कैश खर्च करना पड़ता है।
यूपी में खेत हमेशा छोटे रहे हैं, अब और छोटे हो गए, राजस्थान में खेत बड़े हैं, लेकिन उपज नहीं है, यहां जहां भी गौपालन खेती का अभिन्न हिस्सा रहा है, वहां बारानी यानी बारिश आधारित किसान भी तीन तीन साल तक चले अकाल को झेल गए, क्योंकि हल्की फुल्की बारिश से चारा हो जाता है और गाय भोजन का आधार बना देती।
अभी देसी गाय का A2 प्रोटीन दूध दिल्ली में 190 रुपए प्रति लीटर के भाव अलीगढ़ की वैदिक ट्री गौशाला बेच रही है। इस गौशाला को एप्पल के पूर्व डाटा साइंंटिस्ट अभिनव गोस्वामी ने स्थापित किया है, अभी गोस्वामी टैक्सास में एक गौशाला और स्थापित कर चुके हैं। पूरी दुनिया देसी गाय के A2 प्रोटीन की मांग कर रही है, जहां भी लग्जरी दूध है, वहां देसी गाय का A2 दूध है। इसी कारण अमरीका के कई राज्यों में देसी गाय के बड़े बाड़े बन चुके हैं। और शुद्ध नस्ल की गाएं वहां बहुत तेेजी से बढ़ रही हैं। खासतौर पर सहीवाल, गिर और थारपारकर।
इसमें कोई दो राय नहीं कि देसी गाय आर्थिक रूप से मजबूत बनाती है साथ ही आध्यात्मिक पक्ष भी सबल है।
आपको एक गाय तो रखनी ही चाहिए, शुरूआत के लिए एक नन्ही बछिया ले आइए, आगे क्रम अपने आप बनने लगेगा।
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A2 के भाव में ही समृद्धि का राज छुपा है. आवश्यकता A2 के विपणन को गांव देहात तक सुलभ कराने की है.
आपको यह जानकारी साझा करने के लिए धन्यवाद.
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