दुबले से आदमी। दुबले आदमी पर बुढ़ापा कम ही असर करता है। वे घुटने तक की लुंगी – जो गमछा भी हो शायद – और बनियान पहले अपनी सब्जी की दुकान पर एक ओर कुर्सी पर बैठे थे। मेरी निगाहें गाजर और टमाटर तलाश रही थीं। पत्नीजी ने यही दो चीजें ले कर आने को कहा था, मर्केट से। उनकी दुकान पर ये दोनो ही नजर आ गये।
मैंने एक पाव गाजर देने को कहा। वे सज्जन लपक कर अपनी कुर्सी छोड़ दुकान की गद्दी पर पंहुच गये। मैं इसबीच टमाटर छांटने लगा। थोड़े कम पके और छोटे टमाटर। घर से यही हिदायत थी कि ‘टाइट’ टमाटर लाये जायें, ज्यादा बड़े, पिलपिले या पूरे पके नहीं।
टमाटर छांटने के बाद देखा तो उन्होने गाजर की बजाय खीरा तौल दिया था। उनको बताया कि गाजर देना था। दो तीन बार उन्होने आंय आंय किया तो साफ हो गया कि ऊंचा सुनते हैं। खैर, खीरे की जगह गाजर तौला। दोनो आईटम तौलने के बाद बोले – “और कुछ चाही? धनिया, मर्चा।”
मेरे मना करने पर उन्होने एक खीरा थैली में रख दिया – “बुढापा आ गया है। ढंग का खाया करो।” मानो उनके द्वारा दिया एक खीरा मेरे लिये स्वास्थ्यवर्धक हो जायेगा। एक खीरे की फिलेंथ्रॉपी ने उनको मुखर कर दिया – “हम सतयुग के हैं। अब कलियुग चल रहा है।”
उन्होने पूछने पर नाम बताया – मिश्रीलाल। मिश्रीलाल सोनकर। इस पूरे इलाके में सब्जी का थोक-फुटकर व्यवसाय सोनकरों के पास ही है। वैसे, उनकी उम्र के हिसाब से उनका नाम स्टाइलिश है। अन्यथा नाम सुने हैं – बर्फी सोनकर, रंगीला सोनकर आदि। उनकी सब्जियों में भले ही वैविध्य हो, पर नाम रखने में (ज्यादातर) कोई कलात्मकता नहीं दीखती।

उनका स्वयम को ‘सतयुग’ का बताना मुझे अटपटा भी लगा और अच्छा भी। उन्होने मेरी उम्र पूछी। मैंने बताया 66-67। ऊंचा सुनने के कारण दो बार रिपीट करना पड़ा। फिर उन्होने यह बताने के लिये कि उन्होने सही सुना है; दोहराया – “सड़सठ – साठ-सात सड़सठ?”
मेरे हां कहने पर उन्होने अपनी उम्र भी बताई – चौरासी। अस्सी चार चौरासी।
उनकी गणना में हो सकता है बारह साल या बीस पच्चीस साल का एक युग होता हो। उस हिसाब से उनके जन्म के बाद तीन चार युग गुजरे हों। अब कलियुग का मध्य चल रहा हो।
कहते हैं भारत ऐसा देश है जो एक साथ बीस शतब्दियों में जीता है। उस हिसाब से यह कल्पना की जा सकती है कि एक अच्छी खासी आबादी सतयुग, त्रेता, द्वापर की भी अभी होगी। मिश्रीलाल की तरह अपने सतयुगी नोश्टॉल्जिया में जीती। ईंट की कच्चे मिट्टी के पलस्तर की दीवारों और टीने की छत थी। पीछे की दीवार पर भगवान जी लोगों के कैलेण्डर टंगे थे। निश्चय ही सतयुगी मिश्रीलाल जी की चलती होगी; वर्ना नयी पीढ़ी तो फिल्मी हीरोइन वाले कैलेण्डर-पोस्टर लगाती।

दुकान पर चौरासी की उम्र में भी काम में लगे थे मिश्रीलाल। मेरे पास भी मिश्रीलाल की तरह कोई काम होता, तो शायद मैं भी उनकी तरह छटपट होता। मिश्रीलाल का चित्र लेने पर यह जरूर विचार बना कि मिश्रीलाल पर एक डेढ़ पेज लिखा ही जा सकता है।
वैसे गांवदेहात में कोई व्यक्ति अस्सी पार का मिले और जो उम्र के अलावा पूरी तरह स्वस्थ्य दीखता हो, उससे दीर्घ जीवन के सूत्रों पर बात करनी चाहिये। बावजूद इसके कि एक मोटा गोल चश्मा लगाये हैं मिश्रीलाल और ऊंचा सुनते हैं; मुझे लगता है अभी दस-पंद्रह साल और चलने चाहियें वे और कोई आश्चर्य नहीं कि शतक लगा लें। हो सकता है उनके काल निर्णय अनुसार वे अगले सतयुग तक जियें।
जीवंत, स्वस्थ और लम्बी जिंदगी। सीनियर सिटिजन के पास वही लक्ष्य होना चाहिये। … कभी फिर मिलूंगा मिश्रीलाल जी से।
अशोक कुमार श्रीवास्तव फेसबुक पेज पर –
सर काम भर की सभी सब्जियां तों मिश्री लाल जी के दुकान पर दिख रही है। उम्मीद है कि सस्ती भी होनी चाहिए बशर्तें यदि उनके खुद के खेत की हो?
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आलोक पाण्डेय, फेसबुक पेज पर –
बात सही बोल रहे हैं । थोड़ा फ़ोकस हो कर सोंचा जाये तो ऐसे भी लोग हैं आज ।
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चंद्रमोहन गुप्त, फेसबुक पेज पर –
सतयुग के ही है वे।
सब्जी के साथ फ्री धनिया/मिर्ची के बजाए फ्री खीरा जबरन दे रहे हैं वे, स्वस्थ रहने की हिदायत के साथ😊
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