मेरा सवेरे सात बजे के पहले महराजगंज कस्बे के बाजार से गुजरना और राजू का सफाई काम बहुधा एक ही समय पर होते हैं। आधा-एक किलोमीटर लम्बी बाजार की सड़क से गुजरता हूं तो राजू, उसकी ठेलागाड़ी और साथ में काम करते उसके परिवार के एक दो चित्र खींचता हूं। पहले उसे अटपटा लगता था। परिवार असहज भी होता था; अब शायद आदत पड़ गयी है।
उसकी कचरे की ठेला गाड़ी, दुकानदारों का अपने दुकान/घर के आगे कचरे का डिब्बा रखना और उसके द्वारा कचरागाड़ी में डिब्बों को पलटना, कहीं कहीं झाड़ू लगाना – यह सब मेरे मन में सवाल पैदा करता था। धीरे धीरे उन सवालों के पर्याप्त जवाब मिल गये। उन जवाबों के आज यह पोस्ट लिखी जा रही है।

पहली बात – इस बाजार की साफसफाई लोगों और इस सफाई-परिवार का व्यक्तिगत उपक्रम है। नगर पंचायत या पालिका जैसी कोई संस्था का उसमें कोई रोल नहीं। बाजार में मेरे अनुमान से करीब डेढ़-दो सौ दुकानें तो होंगी ही। उनमें से कई अपने घर या दुकान के सामने झाड़ू खुद लगाते हैं। और कचरा एक डिब्बे में भर कर सामने रख देते हैं। रोज सवेरे यह सफाई परिवार चक्कर लगा कर डिब्बे अपनी कचरा ठेलागाड़ी में पलटता है। परिवार में मुझे आदमी (नाम बताया राजू) उसकी पत्नी और एक बारह साल का बच्चा नजर आते हैं। राजू का कहना है कि डिब्बा खाली करने के लिये हर दुकान वाला उसे पचास रुपया महीना देता है।
एक दुकान से मैं सफल का फ्रोजन मटर खरीदता हूं। राजू वहां दुकान के सामने झाड़ू लगा रहा है। मुझे रुकना पड़ता है। वह थोड़ी जगह साफ कर मुझे कहता है – जाईये। जगह साफ हो गयी है।

दुकानदार मुझे राजू के काम के बारे में बताते हैं – “इनके बिना तो काम ही नहीं चलता। एक दिन ये न आये और हम लोग कूड़ा एक जगह समेट कर गोलिया भी दें तो भी पूरा बाजार बजबजाता रहता है। कोई ग्राहक आना पसंद नहीं करता। इसके लिये हम लोग पांच-पांच रुपया देते हैं?”
“पांच रुपया महीना? वह तो कुछ भी नहीं है!” – मैंने कहा।
दुकानदार ने जवाब दिया – “महीने में नहीं, पांच रुपया रोज।”
बगल में चाय की दुकान वाले के पास राजू झाड़ू लगा कर चाय पीता है। उससे पूछता हूं – “कितने की चाय पीते हो?”
राजू – “आठ साल हो गये यहां काम करते हुये। अब तक तो मैंने एक भी पैसा नहीं दिया चाय पीने का।” राजू ने बताया कि वह बनारस का रहने वाला है। यहां के किसी गांव का नहीं। किराये के घर में रहता है। दो हजार रुपया तो किराया ही लग जाता है।

राजू मुझे सीधा लगता है पर उसकी पत्नी तेज तर्रार है। कुछ मेक-अप भी किये है वह और पान से ओठ लाल हैं। सीधा तन कर चलती है। आत्मविश्वास से भरी। मुझे रतलाम की गीता बाई याद आती है। वह कोयला ट्रांसशिपमेण्ट करने वाली लेबर की नेता थी। तीन सौ लेबर उसके कहे पर चलते थे। दबंग महिला थी वह। वैसी ही लगती है राजू की पत्नी। मुझसे कहती है – “झुट्ठै फोटो खींचते हो। उससे क्या होगा? लोगों को बताओगे भी हमारे बारे में तो कोई कुछ देगा थोड़े ही। कोई मकान, कोई राशन थोड़े ही देगा। दो हजार रुपया तो मकान का किराया लग जाता है। कितनी मंहगाई है।…कोई नौकरी तो दोगे नहीं हमको।”
राजू उसे चुप कराने की कोशिश करता है। पर इस बात को तो वह भी दोहराता है कि जिंदगी मुश्किल है। मकान किराया और खर्चे पूरा करना कठिन काम है। मैं मिली हुई जानकारी से मोटा हिसाब लगाता हूं – सवेरे के इस काम से परिवार दस-बारह हजार कमाता होगा। वह भी तब जब हर दुकानदार उसकी सेवाओं का पैसा देता हो। कई शायद न भी देते हों।
मेरे पास सवेरे की सैर के समय और कोई काम नहीं है। दफ्तर-काम का बोझ भी सिर में नहीं घुमड़ता। मन-दिमाग में खाली जगह राजू, उसकी बीवी, उसका काम और जिंदगी की मुश्किलें आदि से भर जाती हैं। यह लिख कर वह मन से निकाल दूंगा। अगले दिन के लिये कोई नया विषय, कोई नया पात्र सामने आयेगा। 🙂
मैं हूं तो मन है, मन है तो पात्र हैं। पात्र हैं तो लेखन है! यही जिंदगी है मुझ रिटायर्ड की! 😆
