मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय, गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में रह कर ग्रामीण जीवन जानने का प्रयास कर रहा हूँ। मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर रेलवे अफसर; पर ट्रेन के सैलून को छोड़ गांव की पगडंडी पर साइकिल से चलने में कठिनाई नहीं हुई। 😊
दुबले से आदमी। दुबले आदमी पर बुढ़ापा कम ही असर करता है। वे घुटने तक की लुंगी – जो गमछा भी हो शायद – और बनियान पहले अपनी सब्जी की दुकान पर एक ओर कुर्सी पर बैठे थे। मेरी निगाहें गाजर और टमाटर तलाश रही थीं। पत्नीजी ने यही दो चीजें ले कर आने को कहा था, मर्केट से। उनकी दुकान पर ये दोनो ही नजर आ गये।
मैंने एक पाव गाजर देने को कहा। वे सज्जन लपक कर अपनी कुर्सी छोड़ दुकान की गद्दी पर पंहुच गये। मैं इसबीच टमाटर छांटने लगा। थोड़े कम पके और छोटे टमाटर। घर से यही हिदायत थी कि ‘टाइट’ टमाटर लाये जायें, ज्यादा बड़े, पिलपिले या पूरे पके नहीं।
टमाटर छांटने के बाद देखा तो उन्होने गाजर की बजाय खीरा तौल दिया था। उनको बताया कि गाजर देना था। दो तीन बार उन्होने आंय आंय किया तो साफ हो गया कि ऊंचा सुनते हैं। खैर, खीरे की जगह गाजर तौला। दोनो आईटम तौलने के बाद बोले – “और कुछ चाही? धनिया, मर्चा।”
मेरे मना करने पर उन्होने एक खीरा थैली में रख दिया – “बुढापा आ गया है। ढंग का खाया करो।” मानो उनके द्वारा दिया एक खीरा मेरे लिये स्वास्थ्यवर्धक हो जायेगा। एक खीरे की फिलेंथ्रॉपी ने उनको मुखर कर दिया – “हम सतयुग के हैं। अब कलियुग चल रहा है।”
उन्होने पूछने पर नाम बताया – मिश्रीलाल। मिश्रीलाल सोनकर। इस पूरे इलाके में सब्जी का थोक-फुटकर व्यवसाय सोनकरों के पास ही है। वैसे, उनकी उम्र के हिसाब से उनका नाम स्टाइलिश है। अन्यथा नाम सुने हैं – बर्फी सोनकर, रंगीला सोनकर आदि। उनकी सब्जियों में भले ही वैविध्य हो, पर नाम रखने में (ज्यादातर) कोई कलात्मकता नहीं दीखती।
मिश्रीलाल – उन्होने अपनी उम्र भी बताई – चौरासी। अस्सी चार चौरासी।
उनका स्वयम को ‘सतयुग’ का बताना मुझे अटपटा भी लगा और अच्छा भी। उन्होने मेरी उम्र पूछी। मैंने बताया 66-67। ऊंचा सुनने के कारण दो बार रिपीट करना पड़ा। फिर उन्होने यह बताने के लिये कि उन्होने सही सुना है; दोहराया – “सड़सठ – साठ-सात सड़सठ?”
मेरे हां कहने पर उन्होने अपनी उम्र भी बताई – चौरासी। अस्सी चार चौरासी।
उनकी गणना में हो सकता है बारह साल या बीस पच्चीस साल का एक युग होता हो। उस हिसाब से उनके जन्म के बाद तीन चार युग गुजरे हों। अब कलियुग का मध्य चल रहा हो।
कहते हैं भारत ऐसा देश है जो एक साथ बीस शतब्दियों में जीता है। उस हिसाब से यह कल्पना की जा सकती है कि एक अच्छी खासी आबादी सतयुग, त्रेता, द्वापर की भी अभी होगी। मिश्रीलाल की तरह अपने सतयुगी नोश्टॉल्जिया में जीती। ईंट की कच्चे मिट्टी के पलस्तर की दीवारों और टीने की छत थी। पीछे की दीवार पर भगवान जी लोगों के कैलेण्डर टंगे थे। निश्चय ही सतयुगी मिश्रीलाल जी की चलती होगी; वर्ना नयी पीढ़ी तो फिल्मी हीरोइन वाले कैलेण्डर-पोस्टर लगाती।
दुकान पर चौरासी की उम्र में भी काम में लगे थे मिश्रीलाल। मेरे पास भी मिश्रीलाल की तरह कोई काम होता, तो शायद मैं भी उनकी तरह छटपट होता। मिश्रीलाल का चित्र लेने पर यह जरूर विचार बना कि मिश्रीलाल पर एक डेढ़ पेज लिखा ही जा सकता है।
वैसे गांवदेहात में कोई व्यक्ति अस्सी पार का मिले और जो उम्र के अलावा पूरी तरह स्वस्थ्य दीखता हो, उससे दीर्घ जीवन के सूत्रों पर बात करनी चाहिये। बावजूद इसके कि एक मोटा गोल चश्मा लगाये हैं मिश्रीलाल और ऊंचा सुनते हैं; मुझे लगता है अभी दस-पंद्रह साल और चलने चाहियें वे और कोई आश्चर्य नहीं कि शतक लगा लें। हो सकता है उनके काल निर्णय अनुसार वे अगले सतयुग तक जियें।
जीवंत, स्वस्थ और लम्बी जिंदगी। सीनियर सिटिजन के पास वही लक्ष्य होना चाहिये। … कभी फिर मिलूंगा मिश्रीलाल जी से।
“ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल” नाम से ब्लॉग का सृजन 2007 में हुआ। तब मैं 52 साल का था। मुझे पता चला कि इण्टरनेट पर हिंदी में लिखा और पोस्ट किया जा सकता है। यह मेरे लिये सनसनीखेज बात थी। कई दिन तक उसका अहसास बना रहा। हिंदी में एक दो पंक्तियाँ लिखना भी बड़ी बात थी मेरे लिये। शुरू शुरू में ब्लॉग पोस्टें एक दो वाक्यों भर की थीं। एक बार तो ब्लॉगजगत में खिन्न हो कर मैंने यह प्रयोग छोड़ने की सोची। पर फिर वापस आ कर जम गया। और तब से अब तक वह लेखन बना हुआ है। अब, तब ब्लॉगजगत के शुरुआती दौर के लिक्खाड़ जा चुके हैं। कुछ किताब छाप कर बाकायदा लेखक बन गये। कुछ फेसबुकोन्मुख या यूटूब उन्मुख हो गये। मैं अब भी हिंदी ब्लॉग जगत में बना हूं।
मेरे पाठक “हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ (मंथर चाल)” से बढ़े हैं। मैंने नेटवर्किंग या किसी विचारगत गोलबंदी का सहारा नहीं लिया। सो जो पाठक हैं, वे शायद वही हैं, जो किसी विचारधारा के पूर्वाग्रह से परे, मेरे अटपटे लेखन को पसंद करते हैं।
दो वाक्यों से शुरू हुई; अब मेरी पोस्टें 700-1000 शब्दों तक होने लगी हैंं। कुछ तो 1500 से अधिक शब्दों की भी हैं। तीन सौ पेज की कुल 8-10 पुस्तकों का कच्चा माल इन ब्लॉग पोस्टों में है। पर अपने आलस्य के कारण कभी मैंने उन्हेंं पुस्तकाकार करने का श्रम नहीं किया; यद्यपि अनूप शुक्ल जी कह कह कर थक गये; और अब वे फोन भी नहीं करते। 😦
भविष्य में पुस्तक सृजन का यत्न होगा या नहीं; कह नहीं सकता।
“मानसिक हलचल” ब्लॉग की कीमत के बारे में शैलेश ने एक दिन यूं ही कहा – “भईया, आप अपने लिखे के मूल्यांकन का प्रयास नहीं करते। आपके ब्लॉग का ऑक्शन किया जाये तो पहली बोली जानते हैं कितने की जायेगी? … मैं एक करोड़ की बेस-बोली लगाऊंगा! और वास्तविक कीमत तो उससे कहीं ज्यादा होगी।”
एक करोड़?! इतने पैसे मुझे मिल जायें तो जिंदगी भर मालपुआ खाऊं! पर मुझे मालुम है कि शैलेश बड़बोला जीव है। बड़बोला है और उत्साही भी। इसलिये भाजपा में सही जगह है। कभी कभी मन में आता है कि अपने जुगाड़ से मुझे भी 25-50 हजार महीने की नौकरी दिलवा दे, जिसमें गांव में बैठे बैठे पांच-सात घण्टा रोज लगाया जा सके, तो मजा आ जाये। … वैसे मेरी पत्नीजी का कहना है – “तुम जितने आलसी हो, उस हिसाब से तुमसे बंध कर वह काम भी नहीं हो सकता।”
मुझसे मेरे बारे में मेरी पत्नीजी ज्यादा जानती हैं। इसमें संदेह नहीं।
Add Text App
“मानसिक हलचल” मेरे लिये ब्लॉग भर नहीं; मेरा प्रतिनिधि है – पारिवारिक प्रतिनिधि जो पूरी तरह अंतरंग हो। जैसे आदमी के लिये उसका बच्चा या पोता होता है, कुछ उसी तरह। उसे दुलारने का भी खूब मन होता है। मैंने ब्लॉग पर जितना समय ब्लॉग-पोस्ट लेखन में लगाया है; उससे कम ब्लॉग के सौंदर्य और प्रस्तुति की छवि में नहीं लगाया होगा। पंद्रह साल मेंं ब्लॉग से कमाई शून्य है, पर उसके प्रति आसक्ति बहुत है।
आजकल वह आसक्ति ब्लॉग के आईकॉन, हेडर और लोगो बनाने में इस्तेमाल हो रही है। मैने एन्ड्रॉइड एप्प Add Text का प्रयोग कर ब्लॉग के आईकॉन का सृजन किया। करीब 70-75 अलग अलग प्रकार के आईकॉन बनाये। अंतत एक पर मन जम गया।
करीब 70-75 अलग अलग प्रकार के आईकॉन बनाये। अंतत एक पर मन जम गया।
ब्लॉग हेडर/लोगो बनाने के प्रयोग तो ब्लॉग बनाने के दौर से ही होते रहे हैं। करीब 2-3सौ हेडर बनाये होंगे। अब Add Text का इस्तेमाल कर चित्र का ट्रांसपेरेण्ट बैकग्राउण्ड में संयोजन और चित्र को बैकग्राउण्ड में फ्यूज कर उससे लोगो बनाने के बहुत से प्रयोग किये। इस एप्प का प्रीमियम वर्शन खरीद लिया। उससे करीब पांच सात दर्जन लोगो बनाये होंगे। पिछले तीन-चार लोगो इस प्रकार हैं –
अंतत: यह लोगो बना जो आज ब्लॉग के शीर्ष पर लगा है –
इस लोगो में ऊपर चिन्ह है – माह (मानसिक हलचल)। बीच की लाइन में नीले से लिखा है मानसिक हलचल। बीचोबीच बैकग्राउण्ड में मिलता सा ब्लॉग आईकॉन है। नीचे लिखा है – ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग।
मेरे ख्याल से अब मैं इस आईकॉन और लोगो निर्माण के काम को विराम दूंगा। कभी कभी सोचता हूं कि अगर किसी प्रोफेशनल से यह आईकॉन/लोगो बनवाता तो वह पांच दस हजार रुपये तो झटक ही लेता। कम से कम वही बचा लिये।
Add Text App के द्वारा आप दो चित्रों को परतों की तरह एक दूसरे पर जमा भी सकते हैं।
आईकॉन और लोगो डिजाइन ब्लॉग का दुलार है। जैसे मां अपने शिशु को नहला धुला कर पाउडर लगा, कपड़े पहना कर तैयार करती है; लगभग वैसा ही। … यह सब सम्पन्न करने के बाद मन हुआ कि आज इसी पर ही लिख दिया जाये, भले ही पाठकों को झेलना पड़े। 😆
वैसे आप भी Add Text एप्प के साथ ऐसी खुरपेंच कर सकते हैं। बशर्ते आप में वह खुरपेंचिया जीन्स हों। कई क्रियेटिव लोगों में भी वे जीन्स नहीं होते। 😦
सड़क पर एक आदमी साइकिल के कैरियर पर पीपल की टहनियां लादे जा रहा था। साइकिल के हैण्डल और सीट के साथ वह लम्बी सी लग्गी भी फंसाये था। शायद पत्तियों के गट्ठर में कोई कुल्हाड़ी भी रही हो।
पीपल की टहनी और उसकी हरी पत्तियों से मैं अपने मन में हाथी की कल्पना करता हूं। गांव में हाथी आता था तो उसे पीपल के पेड़ के नीचे बांधा जाता था। वह पीपल की टहनियां तोड़ कर पत्तियां खाया करता था। मुझे लगा कि यह आदमी शायद हाथी के लिये ले कर जा रहा हो। पर उसके पास साइकिल चलाते हुये जब उससे पूछा तो उसने बताया कि उसके पास इग्यारह बकरियां हैं। बकरियोंंके लिये वह सवेरे सवेरे पत्तियां तलाशने निकलता है। आसपास के गांवों में यही तलाशता है कि कहां से उसे मिल सकती हैं। पीपल की पत्तियां उसकी बकरियों को बहुत प्रिय है। उनकी तलाश में ज्यादा रहता है वह।
सामान्यत: लोग पीपल को हाथ नहीं लगाते। कृष्ण गीता में अपने को वृक्षों में पीपल/अश्वथ कहते हैं। घर की मुंडेर पर अगर पीपल जम जाता है तो लोग तनावग्रस्त हो जाते हैं। मजबूरी में पीपल के पौधे को मुंडेर से निकाल कर कहीं और रोपित करते हैं। काट कर फैंकते नहीं। कुछ लोग अन्य धर्मावलम्बियों (मुसलमानों) का सहारा लेते हैं पीपल कटवाने या उसकी शाखा छंटवाने के लिये।
पीपल की डालें लिये जाते उस आदमी के बारे में जिज्ञासा हुई। उसने नाम बताया – इस्लाम। “शैलेंदर (शैलेंद्र, मेरे साले साहब) हमके जानथीं(अच्छी तरह जानते हैं)। हमार घर नहरा पर मछलीपालन के लग्गे बा।” शैलेंद्र से पूछने पर पता चला कि इस्लाम नट है।
मत्स्यपालन फार्म के पास नटों की बस्ती है। मुझे लगता था कि नट घुमंतू जाति है, पर यहां वे स्थाई रह रहे हैं। नट महिलायें दांत के कीड़े कान से निकालने का ‘जादू’ जैसा काम करती हैं। आदमी भी छोटा मोटा काम करते हैं। गांव के आर्थिक पिरामिड में वे बहुत नीचे हैं। शायद उनसे नीचे मुसहर ही होंगे। इस्लाम बकरियां पालता है। बकरी का दूध तो बहुत काम होता है, मुख्य अर्जन बकरियां बड़ा कर उन्हें बेचने से होता है। इस्लाम वही करता है।
“बकरी का दूध बहुत से लोग तलाशते हैं। सौ रुपया पौव्वा बिकता है। पर होता ही बहुत कम है।” इस्लाम ने मुझे बताया। शायद इस दूध में प्लेटलेट्स बढ़ाने की बहुत क्षमता है। डेंगू ज्वर के फैलने पर लोग बकरी का दूध तलाशते पाये जाते हैं।
इस्लाम
मैं इस्लाम को नहीं जानता था, पर वह जानता है। मेरे घर के सामने पीपल का पेड़ है। लगे हाथ वह उसकी छंटाई की अनुमाति मांगने लगा। वह मैंने मना कर दिया। घर में पीपल नहीं लगाते लोग, पर मेरे घर की जमीन पर वह घर बनने के पहले से है। ईशान कोण पर पीपल-पाकड़ और नीम एक कतार में लगे हैं। कुछ इस तरह कि देवता एक साथ खड़े हों। … मैं नहीं चाहूंगा कि पीपल को कोई क्षति हो। पर बहुत से लोग – हिंदू लोग, इस्लाम जैसे की सहायता लेते हैं पीपल की छंटाई या कटाई में।
आसपास के इलाके में कई बस्तियां हैं गड़रियों और भेड़ियहों (बकरी और भेड़ पालन करने वालों) की। वे सवेरे सवेरे अपना रेवड़ ले कर निकल लेते हैं और दिन भर चराते हैं। उसके उलट इस्लाम सवेरे टहनियां कांट कर लाता है और बकरियां पालता है। बकरियों को चराने नहीं ले जाता। पूर्णत: घुमंतू (नट) जाति अपने रेवड़ एक जगह पर रख कर पालती है और अब एक ही स्थान पर रहती भी है – यह जानकारी अलग सी थी। गांव में रहते हुये छ साल से ज्यादा हो गये। अब भी कोई न कोई ‘जानकारी’ मिल ही जाती है। इस्लाम के बारे में जानना भी जानकारी ही है।
कोलाहलपुर गंगा घाट पर स्नान कर आते उन्हें देखा। दूर से देखने पर मुझे लगा कि पारसनाथ हैं। डईनियाँ के पारस नित्य गंगा स्नान करने वाले व्यक्ति हैं। ये सज्जन उन्ही जैसी कद काठी और उम्र के हैं पर पारस नहीं प्रेमचंद हैं। ये भी डईनियाँ के हैं और बुनकर भी। प्रेमचंद भी नित्य गंगा नहाने वाले हैं – ऐसा मुझे उनके परिचय देने से पता चला।
गंगा स्नान कर आते प्रेमचंद
मैंने उन्हें पारसनाथ कह कर सम्बोधन किया तो उन्होने बताया कि वे प्रेमचंद हैं। पारस शायद स्नान कर जा चुके होंगे। दोनो साथ साथ नहीं आते गंगा नहाने। अपनी अपनी सुविधा के हिसाब से आते हैं पर दोनों लगभग नित्य आते हैं।
प्रेमचंद के हाथ में गीले कपड़े और एक गंगाजल का डिब्बा था। बताया कि गंगाजल ले कर घर लौटते हैं और दिन भर गंगाजल पीते रहते हैं। स्नान के लिये ही नहीं, दिन भर गंगाजल का साथ रहता है।
बातचीत होने लगी तो हम दोनो रास्ते में ही बैठ गये। लोग आसपास से जाते आते रहे गंगा तट पर। प्रेमचंद ने बताया कि सन 1998 से वे नियमित हैं गंगा स्नान में। उम्र सत्तर साल की हो गयी है। बुनकर हैं। धर्म की ओर रुचि शुरू से ही है। एक हनुमान जी को पूजने वाले मिले थे। उनकी संगत में रहे। लेकिन लगा कि ब्रह्मा विष्णु महेश सम्पदा-धन का वरदान तो देंगे, पर मोक्ष का वरदान नहीं। वे अपने एक ट्रांस के अनुभव को बताने लगे – “सवेरे की रात थी। नींद में मुझे लगा कि त्रिशूल गड़ा है – धरती से आसमान तक। त्रिशूल के ऊपरी भाग पर डमरू लटका है और पास में शिवजी आसन लगा कर ध्यानमग्न हैं। विष्णु भगवान और ब्रह्माजी भी आसपास हैं। वे वरदान देने की बात करते हैं पर धन दौलत की बात करते हैं। मेरे मोक्ष की बात कहने पर कोई साफ उत्तर नहीं देते।”
“मुझे लगा कि कबीर कह रहे हैं – अकेला रहो, भक्ति करो। देर सबेर मुक्ति मिलेगी ही।”
“फिर मैं कई जगह घूमा। लहरतारा भी गया। कबीर का बीजक और अन्य कई ग्रंथ पढ़े। मुझे लगा कि कबीर कह रहे हैं – अकेला रहो, भक्ति करो। देर सबेर मुक्ति मिलेगी ही।”
“कबीर से यह तो भरोसा हुआ – भक्ति का लाभ यह है कि जन्म-जन्मांतर में भक्ति का संचय लोप नहीं होता। भक्ति का जन्म के साथ नाश नहीं होता। जितना इस जन्म में कर लिया है; अगले जन्म में उससे आगे शुरू करना होगा। पीछे नहीं जाना होगा। एक जन्म में मुक्ति न मिले, दोचार जन्म लगें या हजार भी लगें; पर मोक्ष मिलेगा ही। इतना यकीन हो गया है।”
प्रेमचंद के यह कहने में कोई गूढ़ दार्शनिक भाव तो नहीं था, पर एक सहजता थी कि वह सरल व्यक्ति इस धरा पर जन्म – मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना चाहता है। किसी न किसी अवलम्ब के आधार पर – वह कबीर का भी हो सकता है या हनुमान जी का भी – उसे यकीन हो गया है कि देर सबेर उसे मोक्ष मिलना ही है।
मुझे रामकृष्ण परमहंस की एक कथा याद हो आयी। दो साधू मोक्ष की खोज में थे। एक तपस्वी ने उन्हें कहा कि सामने बरगद के पेड़ में जितने पत्ते हैं, उतने जन्म लेने होंगे उन्हेंं। तब मुक्ति मिलेगी। यह सुन कर एक तो गहन विषाद में पड़ गया। दूसरा हर्ष से नाचने लगा। उसे हर्ष इस बात का था कि मुक्ति मिलेगी – यह तो पक्का हो गया। विषाद वाला तो शायद साधना त्याग दे; पर हर्ष से नाचने वाला, जल्दी ही मुक्ति पा जायेगा। हर्ष से नाचने वाला प्रेमचंद जैसा कोई होगा।
प्रेमचंद के यह कहने में कोई गूढ़ दार्शनिक भाव तो नहीं था, पर एक सहजता थी कि वह सरल व्यक्ति इस धरा पर जन्म – मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना चाहता है।
गंगा किनारे करार पर बैठे हुये पाच सात मिनट एक साथ व्यतीत करने में प्रेमचंद का सानिध्य मुझे एक अलग प्रकार का अनुभव दे गया। नित्य गंगा स्नान करने वाले धर्म और पवित्रता की यात्रा पर किसी न किसी सीढ़ी, किसी न किसी मुकाम पर पंहुचे हुये दीखते ही हैं। प्रेमचंद से मिलना जीवन यात्रा का एक ठहराव दिखा गया। उसके बाद प्रेमचंद अपने रास्ते गये और मैं अपने रास्ते। उनका गांव पास में ही है। कभी यू ही उनसे मुलाकात होती ही रहेगी।
प्रेमचंद जैसे पचास लोगों से मिलना है जो नित्य गंगा स्नान करने वाले हैं। आधा दर्जन लोग तो मिल ही गये हैं – या उससे ज्यादा ही। यूंही सुबह गंगा किनारे घूमता रहा तो पचास मिलते देर नहीं लगेगी। प्रेमचंद के पास मुक्ति का ध्येय है तो मेरे पास पचास गंगा नहाने वालों से मिलने का। मेरा ध्येय सरल है। और शायद यूं ही घूमते हुये मुझे भी मुक्तिमार्ग मिल जाये। मुझे भी शंकर जी का धरती से आसमान तक गड़ा त्रिशूल दिख जाये!
प्रेमचंद से मिलना जीवन यात्रा का एक ठहराव दिखा गया। उसके बाद प्रेमचंद अपने रास्ते गये और मैं अपने रास्ते।
क्या पता?! महादेव कब कैसे कृपा करते हैं; वे ही जानें। बाकी सोचता हूं, कबीर का बीजक भी उलट पलट लिया जाये कभी!
पप्पू का परिचय मैं दे चुका हूं पहले एक पोस्ट में पिछले महीने। वह विक्षिप्त व्यक्ति है। उस समय मन में विचार घर कर गया था कि कभी उससे बात कर देखा जाये।
उसे सामान्यत: सड़क पर चहलकदमी करते या किसी ठेले पर आराम करते देखा है। भरे बाजार में। आज वह एक किनारे की सुनसान बंद/खाली गुमटी के सामने अधलेटा था। उसे देख कर मैं आगे बढ़ गया पर लगा कि उससे अगर बातचीत करनी है तो यह सही अवसर है। मैंने अपनी साइकिल मोड़ी और उसके पास गया। उससे पास जा कर पूछा – आज यहां लेटे हैं आप?
वह एक किनारे की सुनसान बंद/खाली गुमटी के सामने अधलेटा था।
उसने मेरी ओर देखा और कुछ बुदबुदाया। आवाज स्पष्ट नहीं थी। केवल होंठ हिलते लग रहे थे। मुझे बताया गया था कि वह अंग्रेजी अच्छी बोला करता था। सो बातचीत करने के ध्येय से मैंने फिर कहा – लुकिंग रिलेक्स्ड टुडे!
वह बुदबुदाता ही रहा। मेरी ओर मात्र एक नजर निहारा था। उसके बाद ऊपर की ओर तिरछे मुंह कर कुछ अस्पष्ट कहता रहा। मैंने उसके मुंह के पास अपना कान लगा कर सुनने का प्रयास किया। पर आवाज साफ नहीं थी। यह जरूर लगा कि वह हिंदी में कुछ कह रहा था। उसने उठने, बैठने या मुझसे बात करने का कोई संकेत नहीं दिया। वह अपने आप में रमा हुआ था।
मैंने पुन: एक प्रयास किया – चलिये आराम करिये।
इस पर भी उसने मेरी ओर देखने कहने की कोई प्रतिक्रिया नहीं की। वह अपने में ही मगन रहा। टीशर्ट और हाफ पैण्ट पहने था वह। सामान्यत: वह एक लोअर पहने दीखता था। उसके कपड़े आज साफ थे पर शरीर बिना नहाया। शरीर पर कुछ तरल पदार्थ बहने के निशान भी थे। इकहरा शरीर, कार्ल मार्क्स वाली दाढ़ी, बिना किसी इच्छा के, बिना भाव के निहारती आंखें – मुझे उसके बारे में दुख और निराशा दोनो हुये। पर मेरे दुख और निराशा से उसे कोई लेना देना नहीं था। भावशून्य!
उसके कपड़े आज साफ थे पर शरीर बिना नहाया। शरीर पर कुछ तरल पदार्थ बहने के निशान भी थे। इकहरा शरीर, कार्ल मार्क्स वाली दाढ़ी, बिना किसी इच्छा के, बिना भाव के निहारती आंखें – मुझे उसके बारे में दुख और निराशा दोनो हुये।
मेरी दशा अलेक्षेद्र – अलेकजेण्डर जैसी थी जो किसी हिंदू साधू से मिला था और साधू ने केवल यही इच्छा व्यक्त की थी कि वह उसके धूप को छेंक कर खड़ा होना बंद कर दे! पप्पू भी शायद यही चाहता था कि मैं उसके पास से चला जाऊं जिससे वह अपने में मगन रह सके। उसके पास मैं सतर्क भाव से गया था कि कहीं वह हिंसात्मक व्यवहार न करे। पर फिर उसके मुंह के पास कान लगा कर सुनने का भी प्रयास किया मैंने। अगर वह कुछ बातचीत करता तो मैं उसके साथ एक चाय की दुकान पर जा कर उसे नाश्ता कराने की भी सोच रहा था। पर पप्पू ने मुझे कोई भाव न दिया।
मूर्ख हो तुम जीडी! आत्मन्येवात्मनातुष्ट: व्यक्ति की मेधा को भेदना चाहते हो। वैसे ही मूर्ख हो जैसे विश्वविजय की चाह करने वाला अलेकजेण्डर था।
कुछ दिन पहले उपेंद्र कुमार सिंह जी का फोन था। उनका कहना है कि जब किसी की याद आये तो फोन कर ही देना चाहिये। कोरोना काल में बहुत विकटें डाउन हुई हैं। कोई चांस नहीं लेना चाहिये। लाइफ का क्या?
उन्होने बताया कि वे सपत्नीक बनारस जा रहे हैं। जाते समय तो सीधे निकल लेंगे, वापसी में चालीस मिनट का स्लॉट निकाल कर मिलेंगे हम लोगों से। वापसी रविवार को तय थी। मेरी पत्नीजी ने बताया कि रविवार को नाश्ते में इडली का टर्न होता है। वही चल जायेगा आतिथ्य में। मेरा सुझाव था कि चाय की चट्टी से कच्चे समोसे ले आये जायें और घर के तेल में छाने जायें। उपेंद्र कुमार सिंह जी और मुझमें एक कॉमन फैक्टर समोसे का भी है। प्रयाग के सुबेदारगंज रेल मुख्यालय में हम लोगों की दोपहर की चाय के समय छोटेलाल समोसा लाया करता था। अब छोटेलाल तो है नहीं। हम ही छोटेलाल का रोल अदा करते हैं!
दुकान की गद्दी पर विनोद और कच्चे समोसे
पत्नीजी को भी सुझाव पसंद आया। शनिवार की सुबह मैं चाय की चट्टी पर सहेजने गया। दुकान की गद्दी पर विनोद बैठा था। मैंने विनोद और मनोज से कहा – “मेरे मित्र आ रहे हैं। वैसे वो तो मेरी तरह के ही हैं। हो सकता है साइकिल भी चलाते हों मेरी तरह। पर असल बात है कि उनकी पत्नीजी राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर हैं। इसलिये, जरा ठीक से बनाना कच्चे समोसे।” मैंने ‘वाइस चांसलर (कुलपति)’ पर जोर दिया और दो तीन बार दोहराया। मुझे संदेह था कि वाइस चांसलर जैसे बड़े ओहदे के बारे में विनोद को पुख्ता जानकारी है या मुझे कुलपति जैसे ओहदे वाले व्यक्ति के पासंग में समझता भी है या नहीं। वह तो इण्टर पास कर सीआरपीएफ में भरती के जुगाड़ में ही है। … और गांवदेहात के बहुत से लोग मुझे रेलवे का बड़ा बाबू जैसा कुछ मानते हैं! … खैर रविवार की सुबह जब यूके सिंह जी का बनारस से रवाना होते समय फोन आ रहा था, मैं विनोद की चाय की दुकान से कच्चे समोसे खरीद रहा था।
घण्टे भर बाद सिंह दम्पति मेरे घर पर थे। भला हो ह्वाट्सएप्प पर लोकेशन शेयर करने का, उन्हें मेरा घर तलाशने मेंं कोई दिक्कत नहीं हुई। केवल घर के सामने पंहुच कर उनका फोन आया – “तुलसीपुर स्कूल के सामने खड़े हैं। आपका घर दांई ओर है कि बांई ओर।”
उपेंद्र कुमार सिंह और श्रीमती सीमा सिंह
उपेंद्र कुमार सिंह जी मुझसे साल भर बड़े होंगे। वे मेरे बॉस थे। उसके बाद हम आसपास के जोनल रेलवे के मुख्य परिचालन प्रबंधक भी रहे। कॉलेज में जैसे सीनियर-कम-फ्रेण्ड का भाव होता है, वैसा ही हम में था और है। यह अलग बात है कि रिटायरमेण्ट के बाद हम लोग एक दो बार ही मिले हैं। पर यह जरूर लगता है कि “जब किसी की याद आये तो फोन कर ही देना चाहिये” वाले उनके कथन पर अमल होना चाहिये। 🙂
घर आने के बाद – चालीस मिनट के स्लॉट की बजाय – हमने एक सवा घण्टे साथ गुजारे। दो इडली, एक समोसा और एक कप चाय भर चली बीच में। बाकी केवल बातें ही हुईं। मेरी पत्नीजी ने उनको रुकने और दोपहर के भोजन की बात की। पर उनका कहना था – किसी रेस्तराँ में पहली बार उसका का स्टैण्डर्ड देखने जाया जाता है। वहां बैठने की जगह कैसी है। सर्विस कैसी है। चाय की क्वालिटी कैसी है। स्नेक्स ठीक और साफ सुथरे हैं या नहीं? तसल्ली हो जाने पर अगली विजिट में भोजन की सोची जाती है। अभी तो यह पहली विजिट है। इतना तय हो गया है कि इलाहाबाद-बनारस के बीच कम्यूट करते यहां आया जा सकता है। भोजन की बात अगली बार के लिये छोड़ी जाये।” 😆
उपेंद्र जी की वाकपटुता और प्रगल्भता का एकनॉलेजमेण्ट उनकी पत्नीजी – श्रीमती सीमा सिंह भी हल्की मुस्कान के साथ करती हैं। प्रोफेसर (और अब वाइस चांसलर) सीमा जी हैं। पर बोलने का काम उपेंद्र कुमार सिंह जी करते हैं। हमारे घर भी ज्यादा बातचीत उपेंद्र कुमार जी ने की। एक सवा घण्टे की बातचीत को बांटा जाये तो साठ परसेण्ट यूके जी के, बीस परसेण्ट मेरे और दस दस परसेण्ट सीमा जी और मेरी पत्नीजी के खाते जायेगा।
किन्ही कॉमन मित्रों/परिचितों की बात चली। वे योग आसन करते हैं – दो घण्टा सवेरे और दो घण्टा शाम को। क्रियायोगी हो गये हैं वे लोग, यूके जी बताते हैं। फिर जोड़ते हैं – “वैसे योग हम भी उतना ही करते हैं रोजाना। उनसे शायद ज्यादा ही। हम आराम योगी हैं। इस उम्र में वही सबसे सरल योग है। अपना इनवेस्टमेण्ट पोर्टफोलियो देखते देखते कब आरामयोग की मुद्रा लग जाती है; कहना कठिन है।… वैसे भी काहे के लिये संग्रह करना!”
हंसी ठिठोली की बात करते करते यूके बड़े काम की बात कर जाते हैं; वह भी बड़े सहज ढंग से। “आपने घर बिल्कुल सही बनाया है रिटायरमेण्ट का आनंद लेने के लिये। लाइफ का सही मायने यहां दिखता है – लाइफ माने लिविंग इन फ्री एनवायरमेण्ट। उन्मुक्त प्रकृति के बीच रहना!”
समोसे वाली चाय की चट्टी की बात सुन कर यूके कहते हैं – “आप हमारे साथ जो वाइसचांसलर का अर्दली साथ चल रहा है न, उसका चित्र जरूर लीजियेगा। और विश्वविद्यालय का जो रथ साथ आया है – रथ ही तो है; कार पर झण्डा जो लगा है – उसका चित्र ले कर चाय की दुकान वाले को जरूर दिखाइयेगा। आखिर आपके कहे की क्रेडिबिलिटी का सवाल जो है!” 😆
गांवदेहात में अर्दली, चोबदार, बड़ी कार या रथ – इन्ही का रुआब है। साइकिल सवार की क्या बिसात! 🙂
चलते समय जब ड्राइंगरूम से उठा जाता है तब बड़े सहज भाव से सीमा जी कहती हैं – मैं जल्दी जल्दी कर रही हूं। मुझे मालुम है अभी रवाना होने में आधा घण्टा लगने वाला है। घर के बाहर फोटो खींचते, बोलते बतियाते आधा घण्टा लग ही जाता है। ग्रुप फोटो लेने के लिये अर्दली साहब को बुलाया जाता है। फुल ड्रेस में पगड़ी पहने है वह अर्दली। मैं उनकी कमीज पर लिखा नाम पढ़ता हूं – कुश प्रकाश पाल। पर वे नाम बुलाते हैं – गोरे। शायद गोरे उनका उपनाम है।
बांये से – उपेंद्र कुमार सिंह, ज्ञानदत्त, रीता पाण्डेय और श्रीमती सीमा सिंह
हम दोनो के मोबाइल और गोरे के मोबाइल को मिला कर वहां घर के अंदर बाहर के कुल तीन दर्जन चित्र मेरे मोबाइल में सिमट आते हैं। तीन दर्जन चित्र, समोसा चर्चा, लाइफ का फुल फार्म, क्रियायोग और आरामयोग का तुलनात्मक अध्ययन के अलावा और भी बहुत कुछ होता है उस दो दम्पतियों की बैठक में। हम लोग लम्बे अर्से बाद मिल रहे होते हैं, पर पूरी समग्रता में; उनके जाने के बाद; मेरी पत्नीजी मुझसे कहती हैं – “आज जो मुलाकात हुई उससे तुम्हारा दिन जरूर बन गया होगा? नहीं?”
दिन तो वास्तव में बहुत सुखद बना! जाने के बाद यूके जी ने मैसेज में सहेजा – अर्दली वाला और रथ वाला चित्र चाय की चट्टी वाले को दिखा दीजियेगा। आपकी क्रेडिबिलिटी का मामला है! 😆
अर्दली साहब और रथ के चित्र – मेरी क्रेडिबिलिटी का मामला है। 😀
Life is Living In Free Environment. यह सुनना अच्छा लगा। रामसेवक – हमारे गार्डनर जी – को आगे और कहा जायेगा कि एनवायरमेण्ट जरा और चमकायें। यूके जी को नया रेस्तराँ पसंद तो आ गया है। अगली बार लंच का ठहराव मान कर चला जाये। पर घर का रखरखाव चकाचक बने यह जरूरी है। आखिर हमारी क्रेडिबिलिटी का मामला जो है! 😆