मेरी रेलवे की यादों को कुरेदती फिल्म भुवन शोम

मैंने दूसरी पारी की शुरुआत के विषय में लिखना प्रारम्भ किया तो एक सजग किंतु अनाम पाठक ने ट्विटर पर टिप्पणी की –

एग्रेरियन महोदय ने कहा कि मैं समय निकाल कर भुवन शोम देखूं

मैंने फिल्में बहुत ही कम देखी हैं। कई बार तो दशकों बीत गये बिना किसी फिल्म को देखे। जब नौकरी ज्वाइन की थी तो इस तरह के किस्से सुने थे कि फलाने साहब सिनेमा देखने गये और बीच में ही अनाउंसमेण्ट कर उन्हें रेलवे की एमरजेंसी से निपटने के लिये सीधे कण्ट्रोल रूम में पंहुचने को कहा गया।

वह छोटा शहर (रतलाम) था। आपको ट्रेन कण्ट्रोल को बता कर जाना होता था कि कहां जा रहे हैं और आपको कैसे सम्पर्क किया जा सकता है। मोबाइल का जमाना नहीं था। बहुधा आप अगर रेलवे के तंत्र के बाहर हैं तो रेलवे नियंत्रण कक्ष से किसी न किसी को रवाना किया जाता था किसी भी एमरजेंसी की दशा में।

और वह मण्डल (रतलाम) ऐसा था कि एमरजेंसियाँ होती ही रहती थीं। ट्रेनों का पटरी से उतरना, वैगनों का ऊंचाई पर अन-कपल होना, रेलखण्ड का घण्टे भर से ज्यादा बिना सूचना के किसी अनहोनी से बंद रहना या फिर सीधे सीधे सवारी गाड़ी की दुर्घटना आम थे। दिल्ली और बम्बई से ट्रेने‍ सपाट रेल पर चलती चली आती थीं पर रतलाम – गोधरा खण्ड, जो सत्तर प्रतिशत गोलाई, टनल और ग्रेडियेण्ट पर था, वहां असली दिक्कत होती थी परिचालन की। … सो मैंने सिनेमा देखना ही बंद कर दिया। वही आदत अभी तक कायम है।

भुवन शोम में उत्पल दत्त

खैर, एग्रेरियन महोदय की सलाह पर मैंने “भुवन शोम” खोजी। किसी ओटीटी प्लेटफार्म पर नहीं मिली। यू-ट्यूब पर थी पूरी डेढ़ घण्टे की फिल्म। डाउन लोड की और देर रात तक देखी मोबाइल पर। काली-सफेद, 35 एमएम का पर्दा वाली फिल्म। धीरे चलने वाली। मारधाड़ विहीन। पर क्या गजब फिल्म! मृणाल सेन और उत्पल दत्त तो कालजयी हैं! बनफूल (बलाई चंद मुखोपाध्याय) की कहानी पर बहुत जानदार फिल्म बनाई है उन्होने।

भुवन शोम में पक्षियों की तलाश में गंवई पोशाक में उत्पल दत्त और गौरी (सुहासिनी मुळे)

और फिल्म भी मेरे पुराने विभाग, रेलवे के इर्दगिर्द है। रेल की सम्भवत: यातायात सेवा का अफसर है भुवन शोम (उत्पल दत्त)। काम के बोझ से उकता कर एकबार पक्षियों के शिकार पर निकलता है। छोटे से स्टेशन पर टिकेट कलेक्टर है साधू मेहर। उसकी चार्जशीट लगभग तय कर चुका है भुवन शोम। भ्रष्टाचरण के सिद्ध चार्ज में वह नौकरी से हाथ धो बैठेगा।

पक्षियों की तलाश में उत्पल दत्त जिस गांव में जाता है वहां उसकी सहायता को मिलती है लड़की गौरी (सुहासिनी मुळे), जिसका गौना साधू मेहर से होने वाला है। सरल, निश्छल गौरी उत्पल को बहुत प्रभावित करती है और वापस जा कर वह अधिकारी साधू मेहर को बुला कर डांट लगाता है, पर उसकी चार्जशीट रद्द कर देता है।

भयभीत, पर भ्रष्ट साधू मेहर। उसको उत्पल दत्त डांटता है, पर चार्जशीट रद्द कर देता है।

फिल्म सरकारी अफसर की मोनोटोनी, ऊब, मानवीय सम्वेदना और अपनी कड़े अफसर की ओढ़ी इमेज के अनुसार स्वयम को प्रमाणित करने की चाह (या जिद) को बखूबी दर्शाती है। उत्पल दत्त की जगह लगभग पूरे फिल्म के दौरान मैं अपने को देखता रहा। और उसने बहुत सी यादें कुरेद दीं। (बाई द वे; कुरेदना, सुरसुरी या गुदगुदी का एक प्रसंग भी फिल्म में है जिसमें गाड़ीवान बैलोंंको उनके पृष्ठ भाग में सुरसुराता-खोदता है जिससे वे तेज दौड़ें।)

शिकार करने गया उत्पल दत्त। उनकी गोली से कोई चिड़िया नहीं मरती!

मुझे याद हो आयीं अपने द्वारा दी गयी या निपटाई चार्जशीटें। जब मैंने असिस्टेण्ट डिविजनल ऑपरेशंस सुपरिण्टेण्डेण्ट (एओएस) के रूप में ज्वाइन किया था तो मेरी टेबल पर सौ से ज्यादा चार्जशीटें थीं; जिन्हे मेरे पहले वाले अफसर जारी कर गये थे और वे पेण्डिंग थीं। वे सभी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की चार्जशीटें थीं। नौकरी से गायब रहना, हुक्म न मानना, दारू पी कर ड्यूटी करना, मारपीट, एक से ज्यादा पत्नी होना, यात्रियों से अभद्र व्यवहार आदि अनेक विषय उनमें दर्ज थे।

ट्रेन ऑपरेशंस का जो बोझ था, उसके सामने इन चार्जशीटों का निपटारा करना अंतिम वरीयता रखता था। विभाग में मेरे ऊपर के अफसर इस बात की फिक्र नहीं करते थे कि कितनी चार्जशीटें मैंने निपटाईं। उनकी वरीयता ट्रेन का परिचालन थी। केवल एस्टेब्लिशमेण्ट अधिकारी के रिपोर्ट पर, जिसमें हर अफसर के नाम के आगे उनके पास पैण्डिंग चार्जशीटों के आंकड़े होते थे, मण्डल रेल प्रबंधक जरूर कहा करते थे। एक दो डिस्प्लेजर नोट भी दिये उन्होने। पर चूंकि व्यक्तिगत रूप से वे मुझे बहुत पसंद करते थे; उनके डिस्प्लेजर नोटों की ज्यादा फिक्र नहीं करता था मैं।

और फिक्र करता भी तो क्या? मेरे पास यातायात परिचालन की चौबीसों घण्टे की ड्यूटी के आगे समय ही नहीं बचता था कि चार्जशीटों का निपटारा करूं। मैंने काम के बोझ में अपने परिवार की ओर भी बहुत कम ध्यान दिया। उसका उलाहना मेरा परिवार अब भी देता है और वह अब भी मुझे कचोटता है।

दारू पी कर ड्यूटी करना मेरी निगाह में बहुत बड़ा गुनाह था। शायद इस लिये भी कि मैंने कभी शराब छुई नहीं। मैंने दो तीन कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया इस चार्ज पर। और बहुत हल्ला मचा। यूनियन वाले भी चिल्लाये। मेरे सीनियर (जो बहुत कुशल अधिकारी थे पर बहुत ज्यादा शराब के शौकीन भी थे) ने मुझसे कहा – “यार, तुम तो गजब अफसर हो। दारू पीने पर नौकरी ले लेते हो।” जाहिर है, उन्होने सभी मामलों में अपील पर नौकरी से निकालने की सजा रद्द कर दी, पर थोड़ा बहुत प्रसाद तो देना ही पड़ा कर्मचारियों को!

लेकिन मेरे व्यक्तित्व की प्रारम्भिक सालों की कड़ाई ज्यादा टिकी नहीं। मैं यह समझ गया कि चार्जशीट देना दुधारू तलवार है। उससे अपना भी काम बहुत बढ़ता है। चार्जशीट देने की बजाय मौके पर डांटना, फटकारना, फजीहत कर भूल जाना कहीं बेहतर है। और, इसके उलट कर्मचारियों को उनकी गलती बता कर सुधारना और भी बेहतर।

डांटने फटकारने के लिये मुझे “थानेदारी” भाषा सीखनी पड़ी। भीषण अपशब्द तो मेरी भाषा में नहीं आये, पर व्यंग और आवाज की पिच बढ़ाने से वह प्रभाव डालने में अधिकांशत: सफल रहा।

समय के साथ व्यक्तित्व के खुरदरे पत्थर घिस कर पर्याप्त चिकने बन गये। समय ने और मेरे बेटे की दुर्घटना ने मुझे बहुत सिखाया।

मेरे जूते उतारने के पौने दो साल पहले जब मैं गोरखपुर में परिचालन विभाग का अध्यक्ष बना तो मेरे पूर्ववर्तियों द्वारा अनुशासनात्मक प्रक्रिया के लगभग तीस अपील के मामले पेण्डिंग थे। पहले के कई विभागाध्यक्ष उन्हे बिना निपटाये चले गये थे। अपने गोपनीय सचिव रमेश चन्द्र श्रीवास्तव जी की विशेष सहायता से (उन्होने नियमों, धाराओं और पूर्व में निपटाये मामलों को बड़ी दक्षता से नत्थी कर मुझे निर्णय लेने में सहायता की) एक एक कर उन अपीलों का निपटारा किया। येे अपील कर्मचारी के लिये विभागीय सुप्रीम कोर्ट के समान थीं। मुझसे ऊपर कहीं सुनवाई उनके लिये सम्भव नहीं होती।

मैंने लगभग हर एक मामले में सहृदयता खुले दिल से दिखाई। कुछ उसी तरह, जिस तरह उत्पल दत्त ने साधू मेहर की चार्जशीट फाड़ कर दिखाई थी। मेरा यह कृत्य मेरे रेल के प्रारम्भिक दिनों से 180 डिग्री उलट था। मैं अपने में काफी बदलाव ला चुका था।

मुझे सहृदय बनाने के लिये कोई रेल के इतर घूमने और वहां किसी गौरी (सुहासिनी मुळे) से मिलने का अवसर नहीं मिला; पर समय के थपेड़ों ने वह काम बखूबी किया। हां, वह सब इतना धीरे धीरे हुआ कि मुझे पता भी न चला। रिटायर होने के बाद जब मैंने अपने व्यवहार का विश्लेषण किया तो पाया कि दो ढाई दशकों में वह बदलाव आया। वह ऐसे आया कि मैं अपने तनाव, शरीर और मन की उपेक्षा और रोज रोज की चिख चिख से अपने को असम्पृक्त नहीं कर सका। अगर वह सीख लेता – और उसके प्रति सचेत रहता – तो आज कहीं बेहतर शारीरिक/मानसिक दशा में होता। नींद के लिये दवाई लेने की आदत छूट चुकी होती। हाइपर टेंशन, मधुमेह आदि न होते और एक दशक में चार बार अस्पताल में भरती होने की नौबत न आती।

पर जो होना था, वह हुआ! अपनी गलतियां सुधार कर नये सिरे से दूसरी पारी खेली जा सकती है, पर पहली पारी फिर खेलने को तो नहीं मिलती, किसी को भी।

“अगर वह सीख लेता – और उसके प्रति सचेत रहता – तो आज कहीं बेहतर शारीरिक/मानसिक दशा में होता। नींद के लिये दवाई लेने की आदत छूट चुकी होती। हाइपर टेंशन, मधुमेह आदि न होते और एक दशक में चार बार अस्पताल में भरती होने की नौबत न आती।”

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

2 thoughts on “मेरी रेलवे की यादों को कुरेदती फिल्म भुवन शोम

  1. लगा कि कहीं पर हम भी अपने बारे में पढ़ रहे हैं। प्रारम्भ की शुष्कता कब कोमल हो जाती है, पता ही नहीं चलता है। स्वयं को और रेल को स्थापित करने की चाह। धीरे धीरे भावनायें अपना स्थान बना लेती है।

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  2. सिविल सेवा से बाहर, बहुत काम लोगों को अंदाज़ होता है क‍ि इसमें किस तरह का गंभीर stress होता है

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