संजय तिवारी ने अपने ब्लॉग विस्फोट में जॉर्ज फर्नाण्डिस के किसी करीबी के हवाले से लिखा है कि वे टीवी न्यूज चैनल नहीं देखते. इसपर मुझे पुरानी याद हो आयी.
रतलाम में मेरे चेलों ने एक बार फंसा दिया था. मेरे जिम्मे रतलाम रेल मण्डल का वाणिज्य प्रबन्धन था. उसमें वीवीआईपी मूवमेण्ट भी शामिल होता है. जॉर्ज फर्नाण्डिस उस समय रक्षा मंत्री थे और
मामा बालेश्वरदयाल के बीमार होने के कारण उनसे मिलने बामनिया (रतलाम और दाहोद के बीच मध्यप्रदेश सीमा पर आदिवासी बहुल कस्बा) आये थे.
मामा बालेश्वर दयाल की आदिवासियों में बड़ी पहुंच थी. उनके बीच रहते थे और उनके कल्याण के लिये बहुत कार्य किया था. समाजवादी थे सो जॉर्ज फर्नाण्डिस उनके घनिष्ठ थे. कालांतर में मामा बालेश्वर दयाल का निधन हो गया.
वापसी में जॉर्ज को दिल्ली जाना था. ट्रेन सर्विस में. कोई ताम-झाम नहीं था. सामान्य सा मैसेज. इस प्रकार के मैसेज पर ट्रेन में बम्बई से जगह आती थी. वीवीआईपी चले जाते थे. पर कहीं चूक हो गयी. जिस कोच में जॉर्ज को जाना था वह कोच उस दिन ट्रेन में था ही नहीं. अत: जॉर्ज फर्नाण्डिस के लिये गाड़ी में जगह आई ही नहीं. ऐन मौके पर मची अफरातफरी. गाड़ी में भीड़ भी बहुत थी. कुल मिला कर जॉर्ज के लिये एसी शयनयान में साइड की बर्थ मिल पाई. पर जॉर्ज इतने सज्जन थे कि आये और चुपचाप साइड की अपनी बर्थ पर चले गये. स्थिति देखकर मैने अपना वीवीआईपी-सम्भालू इंस्पेक्टर गाड़ी में भेजा था. बाद में उनके लिये अन्दर की बे का इंतजाम हो गया पर उन्होने कहा कि वे वहीं ठीक हैं. रास्ते में बच्चों को ऑटोग्राफ देते और उनसे बतियाते वे चले गये.
ट्रेन में अपने लिये मन मफिक जगह के लिये रक्षा मंत्री तो क्या; सांसद-विधायक बहुत उछल कूद मचाते हैं; पर जॉर्ज फर्नाण्डिस ने सज्जनता का परिचय दे कर हमारा दिल जीत लिया.
बाद में उनके एक अंतरंग सज्जन ने बताया कि जॉर्ज अपने कपड़े खुद धोते हैं. चार कुर्ते-पजामे का वार्डरोब है उनका (शायद बतौर रक्षामंत्री कुछ और कुर्ते-पजामे सिलाये हों). उनमें से दो सेट पहनते हैं और दो रिजर्व में रखते हैं. कंघी करने की उनको जरूरत नहीं पड़ती.
राजनीति में जो दन्द-फन्द चलते हों और उनमें जॉर्ज की जो भूमिका हो; वह छोड़ दें. बतौर व्यक्ति तो सरलता की छाप उन्होने हमपर डाल ही दी.

सही कहा, जॉर्ज जी जैसे सादगी पूर्ण एवं सरल-सज्जन नेता अब कहाँ। उन जैसे लोग कम ही हुए हैं और अब तो शायद ही हों।
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तो भाई हम तो चले जार्ज भैया के घर …वहीं डेरा डाला जाये।
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ये एक ऐसे इनसान् की बात आप कर रहे है जिसके रक्षा मंत्री रहते हुये हम बेमतलब उनसे मिल कर सुबह सुबह उनके साथ चाय पीकर चले आये थे,और् वास्तविक जीवन मे बंगाल का गौरव ममता जी भी ऐसी ही है
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यह कहना कि जार्ज अब पहलेवाले जार्ज नहीं है, थोड़ा ठीक नहीं लगता. पहले कौन से जार्ज थे यह तो नहीं मालूम लेकिन अभी जो जार्ज हैं उनके व्यक्तिगत जीवन पर अंगुली उठाना जरा मुश्किल है. मैं अक्सर उस इलाके से गुजरता हूं जहां जार्ज रहते हैं. रक्षामंत्री होने के बावजूद उन्होंने अपने घर में गेट नहीं लगने दिया. कई तरह के दबाव के बाद गेट लगवाने पर राजी भी हुए तो इस शर्त के साथ कि दिन में कभी बंद नहीं होगा. जार्ज आज भी ऐसे नेता हैं जिनसे मिलने के लिए आप सीधे उनकी बैठक तक जा सकते हैं. जो उनसे नाराज हैं उनकी नाराजगी वैचारिक है. दो लोग ऐसे हैं जिनके व्यक्तिगत जीवन पर हम अंगुली नहीं उठा सकते. एक हैं गोविन्दाचार्य और दूसरे जार्ज फर्नांडीज. इन दोनों के जीवन में सादगी है. जननेता इस मायने में हैं कि जनता जब चाहे इन तक पहुंच सकती है. नहीं तो लालू यादव जैसे तथाकथित जननेता भी पंचतारा पार्टियों के हिमायती हैं. तुगलक रोड पर उनका घर एक बार घूम आईये लालू की सोच-समझ और जननेता होने का अंदाज लग जाएगा.
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अब भी और पहले भी उन्हें डाउन टू अर्थ व्यक्तित्व वाला माना जाता था।
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राजनीति की बातें छोड़ दी जाये तो हमारा उनके बारे में पहले से ही कुछ ऐसा मानना था, आपने ये बताकर उसे और पकका कर दिया।
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जार्ज फर्नांडीज का अतीत बहुत प्रेरक है, पर अब के जार्ज तो अतीत की छाया भी नहीं हैं।
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अच्छा रहा आपका संस्मरण पढ़ना. हम तो उनके बारे में कुछ और ही अनुमान लगाये बैठे थे. कई बार सुनी सुनाई बात से उपर जिसने भोगा है, उसे सुनना ही बेहतर होता है. आभार, चित्रपटल से धुंध हटाने के लिये.
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सही है। अच्छा जार्ज फर्नांडीज का यह पहलू जानकर!
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