यह है श्री पंकज अवधिया का बुधवासरीय अतिथि लेख। आप पहले के लेख पंकज अवधिया पर लेबल सर्च से देख सकते हैं। इस पोस्ट में पंकज जी शहरों के पर्यावरण सुधार के लिये भारतीय जंगली वृक्षों के नियोजित रोपण की बात कर रहे हैं।
जब गर्मियो मे हमारा काफिला जंगलो से गुजरता है तो अक्सर साथ चल रहे लोग गाडी के शीशे चढाकर एसी चालू कर देते है फिर जंगल का नजारा लेते हैं। वे कहते है कि इससे गर्म हवा से राहत मिलती है। पर ऐसा करते समय वे एक सुनहरा अवसर खो देते है जंगली फूलो की सुगन्ध को साँसों मे भर लेने का। कोरिया, धवई से लेकर बेन्द्रा चार जैसी जंगली वनस्पतियो की सुगन्ध से जंगल महकते रहते हैं। इनकी सुगन्ध इतनी तेज होती है कि कभी-कभी यह शक होता है कि किसी ने पास ही इत्र की शीशी तो नही तोड़ी है। सुबह के समय जो सुगन्ध आती है वह दोपहर को बदल जाती है। रात को दूसरी वनस्पतियाँ यह कार्य करती हैं। यदि आप आँखे बन्द करके इन जंगलो मे सफर करें तो दिन का कौन सा पहर चल रहा है यह झट से बता दें। मुझे हमेशा यही लगता है कि ऐसी उपयोगी वनस्पतियाँ जंगलो तक ही क्यो सीमित रहें। क्यो नही हमारे आधुनिक योजनाकार इन्हे शहरों मे भी स्थान दें। हमारे शहर हरियाली से दूर होते जा रहे हैं। कुछ सजावटी वनस्पतियाँ हैं भी तो गुलमोहर, सप्तपर्णी, पेल्टाफोरम – इतनी कम कि आप इन्हे अंगुलियों मे गिना दें। देश के सभी बडे शहरों मे इनकी बहुलता दिखती है। क्यो नहीं इसमे विविधता लायी जाती है?
आप जानते होंगे कि नागपुर मे इन दिनो इंटरनेशनल कार्गो हब बन रहा है। वहाँ की एक कम्पनी ने मुझसे ऐसे पेड़ों की सूची माँगी जिसमें चिडिया कम बैठती हैं। चिडियों और हवाई जहाजों की दुश्मनी तो सर्वविदित है। 200 से भी अधिक प्रकार के पेड़ों की सूची माँगी गयी। यह कठिन काम था, क्योकि पेड़ सुन्दर भी होने चाहिये थें। कुछ समय बाद मैने उन्हे बताया कि मेरे पास दो सूची हैं एक तो देशी वनस्पतियो की और दूसरी विदेशी वनस्पतियो की। आप कौन सी पसन्द करेंगे? उन्होने कहा विदेशी हो तो ज्यादा अच्छा है। मैने कहा यदि आप देशी वाली सूची चुनेंगे तो मै कम फीस लूंगा। प्रस्ताव अच्छा था पर उन्होने मुझे अधिक फीस देना ही उचित समझा। शहरो की प्लानिंग करने वालों को अलग-अलग मंचों से मै उदाहरण सहित यह बताता रहता हूँ कि कैसे हजारों तरह की वनस्पतियाँ जो हमारे जंगलों मे हैं, को हम अपने बीमार शहरों मे स्थान देकर आम लोगो की कुछ सहायता कर सकते हैं। उन्हे अपनी ये चार पक्तियाँ भी सुना देता हूँ।
हर्रा, महुआ और बहेडा काश
तुम शहरो मे भी होते
तो हमारे शहर
अस्पतालो मे नही सोते
आप पूरी कविता यहाँ पढ़ें।
मेरे एक मित्र सही कहते हैं कि हमारे बड़ों ने जो पेड रोपे थे उनसे लिपटने पर दोनो हाथों को जोड़ पाना मुश्किल होता है। पर आज की हमारी पीढ़ी ऐसे पतले पेड़ों को लगा रही है जो तूफान के एक झोंके मे उखड़ जाते हैं। इसके लिये आगामी पीढ़ी हमे कभी माफ नही करेगी।
प्रदूषण पर हम कितना भी लिखें और कितना भी शोर मचायें पर जब दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरो में हर तरफ धुँआ और बदबू फैली है तो आप छोटे शहरों के दर्द को तो छोड ही दीजिये। ये धुँआ और बदबू आम लोगों को महसूस होती है पर राजनेताओं और प्रदूषण विभाग वालों को नहीं। पिछले दिनो हैदराबाद के पास जहीराबाद में गो-माँस की फैक्ट्री के पास के खेतो में किसानो के साथ एक दिन बिताया तो कई बार उल्टी हुयी। पता नही चौबीसो घंटे कैसे लोग वहाँ रह पाते हैं। मुझे लगता है कि जंगली वनस्पतियो को शहरों मे स्थान देकर आम लोगों को राहत पहुँचायी जा सकती है। रायपुर की प्रस्तावित नयी राजधानी के लिये मैने एक कार्य-योजना बनाकर अखबारो मे प्रकाशित की थी। इसमे 350 प्रजाति के ऐसे पेड़ों को लगाने की राय दी गयी थी जिससे कई दशकों तक यह नयी राजधानी प्रदूषण की मार झेल सके। वर्ष के हर सप्ताह अलग-अलग भागों मे स्थित उद्यानों से अलग-अलग खुशबू आती। शहर गर्मियों मे ठंडा रहता तो बिजली का कम उपयोग होता। पर अभी तक तो किसी ने इस पर सोचने तक का मन नही बनाया है। विकास के नाम पर पुराने पीपल और बरगद को जरुर काटा जा रहा है बिना किसी झिझक के।
फिर नागपुर पर लौटते हैं। कुछ वर्षो पहले तक हरियाली के नाम पर यहाँ कुछ विशेष नहीं था। पर मजबूत इच्छाशक्ति के चलते जब योजनाकारों ने नये प्रयोग किये तो आज यह शहर दुनिया भर के लिये उदाहरण बन रहा है। अब इसी आधार पर बहुत से शहरों मे प्रयोग हो रहे हैं। देशी वनस्पतियों पर प्रयोग भी ऐसे ही एक अवसर की बाट जोह रहे हैं। एक सफल उदाहरण देश के प्रदूषित शहरों का नक्शा बदल सकेगा – ऐसा मेरा विश्वास है।
पंकज अवधिया
© लेख पर सर्वाधिकार श्री पंकज अवधिया का है।
ऊपर चित्र वाराणसी, इलाहाबाद और छपरा के वृक्षों के हैं।
उपयोगी जानकारियों का पिटारा तो अवधिया जी ने खोल दिया है। आवश्यकता है सुग्राही पाठकों की जो इसका सदुपयोग अपनी कार्य-योजनाओं में करें। जहाँ भी संभव हो एक पौधे का रोपण कर उसका अभिभावक जरूर बनें।…उम्दा जानकारी है।
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बहुत उपयोगी !
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upyogi jaankari ।
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पहली बार आना हुआ है यहाँ। अवधिया जी को तो हम अखबारो मे पढते रहे है। यहाँ आये तो यहाँ भी छाये है। कैसे विदेशी पौधे देश का अरबो रुपया बर्बाद कर रहे है रोजाना, इस पर लिखे लेख आप यहाँ प्रस्तुत करे अवधियाजी ताकि इन शहरी पाठको को कुछ ज्ञान मिले। 🙂 तब तक इन्हे अपने अल्प ज्ञान के आधार पर तल्ख टिप्पणी करने दे। 🙂 सूचना’आत्महत्या कर चुके किसानो के घर वालोसे सीधी बात कराता मेरा ब्लाग किसानो का सच एक जून से आपके सामने आयेगा। सम्पर्क मे रहे।’
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सही कह रहे है जीहमारी देशी वनस्पतियां इतनी कारगर हैं, फिर भी बिना विदेशी के कुछ काम ना चलता ना।
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वृक्ष तो वृक्ष है.. क्या देसी और क्या विदेशी :Pपंछी, नदिया, पवन के झोंके… कोई सरहद न इन्हे रोके..सौरभ
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बहुत ही उपयोगी जानकारी है। नगर नियोजकों को इसका उपयोग करना चाहिए।
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अच्छी जानकारी है। ज्यादा लोगों तक ये जागरुकता फैलानी चाहिए। एक जानकारी मुझे चाहिए कि यूकेलिप्टस (हमारे यहां प्रतापगढ़ में इसे सफेदा कहते हैं) कब भारत आया और अब तक इससे देश की कितनी जमीन बंजर हो चुकी होगी।
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बहुत अच्छी जानकारी है। आभार!
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बहुत उम्दा जानकारी दी. विदेशी वस्तुओं के प्रति आकर्षण का प्रभाव वनस्पतियों के चुनाव में भी दिख रहा है नागपुर में. आश्चर्य होता है. आभार इस आलेख के लिये.
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