विन्ध्याचल और नवरात्रि

विध्याचल स्टेशन के बाहर नवमी की शाम भोजन बनाते तीर्थयात्री।
विध्याचल स्टेशन के बाहर नवमी की शाम भोजन बनाते तीर्थयात्री।

चैत्र माह की नवरात्रि। नौ दिन का मेला विन्ध्याचल में। विन्ध्याचल इलाहाबाद से मुगलसराय के बीच रेलवे स्टेशन है। मिर्जापुर से पहले। गांगेय मैदान के पास आ जाती हैं विन्ध्य की पहाड़ियां और एक पहाडी पर है माँ विंध्यवासिनी का शक्तिपीठ।

जैसा सभी शक्तिपीठों में होता रहा है, यहाँ भी बलि देने की परम्परा रही है। संभवत: जारी भी है। बचपन में कभी वहां वधस्थल देखा था, सो वहां जाने का मन नहीं होता। माँ को दूर से, मन ही मन में प्रणाम कर लेता हूँ।

मेरे समाधी श्री रवींद्र पाण्डेय वहां नवरात्रि की नवमी को आते हैं अपने नवरात्रि अनुष्ठान की समाप्ति की पूजा के लिए। इस तरह साल में दो बार उनसे मिलना हो जाता है। या तो मैं उनसे विन्ध्याचल जा कर मिल लेता हूँ, या वे अपना अनुष्ठान पूरा कर रात में अपनी ट्रेन पकड़ने इलाहाबाद आ जाते हैं। इस बार मैं ही विन्ध्याचल आया।

शाम के समय विध्याचल पंहुचा तो धुंधलका हो गया था। स्टेशन के बाहर बहुत से तीर्थयात्री जमा थे। कई चूल्हे जले थे, या जलने की तैयारी में थे। लोग अपना भोजन बनाने जा रहे थे। उनकी सहायता के लिये कई लोग वहीं मिट्टी का चूल्हा, लकड़ी, सब्जी-भाजी और भोजन की अन्य सामग्री बेच रहे थे। टूरिज्म का विशुद्ध गंवई संस्करण।

चूल्हे पांच से दस रुपये के मिल रहे थे। लकड़ी (एक बार भोजन बनाने लायक) बीस रुपये में। एक बेंचने वाले से हमने बात की तो रेट पता चला। उसने बताया कि स्टेशन के बाहर बेचने की अनुमति देने वाला पुलीस वाला बीस रुपये लेता है। यह अनुमति आठ घण्टे के लिये होती है। उसके बाद पुलीस वाले की शिफ्ट बदल जाती है और नया आने वाला फिर से बीस रुपये लेता है। पूरे परिसर में करीब बारह- पन्द्रह ऐसी फुटपाथी दुकानें लगी थीं। अत: हर पुलीस वाला 200-300 रुपये इन्ही से रोजाना कमाता होगा नवरात्रि मेले के दौरान।

चूल्हे, लकड़ी और सब्जी बेचने की जमीन पर लगी दुकानें। विन्ध्याचल स्टेशन के बाहर।
चूल्हे, लकड़ी और सब्जी बेचने की जमीन पर लगी दुकानें। विन्ध्याचल स्टेशन के बाहर।

उस बेचने वाले ने बताया कि लकड़ी तो लोग इस्तेमाल कर लेते हैं। चूल्हा जरूर छोड़ जाते हैं। उसे यह फिर से इकठ्ठा कर फिर से मिट्टी पोत कर नया कर लेता है और फिर बेचता है।

एक व्यक्ति तेल पिलाई लाठी बेच रहा था। बताया गया कि विन्ध्याचल मेले से बहुत लोग लाठी खरीद कर ले जाते हैं। एक खरीददार ने बताया कि उसने साठ रुपये की खरीदी है लाठी। हमारे छोटेलाल ने वह फेल कर दी – साहेब, तेल जरूर पिलाए है लाठी को, पर बाँस अभी हरियर ही है। पका नहीं। कच्चा बाँस कुछ दिन बाद सूख कर फट जायेगा। लाठी बेकार हो जायेगी। 

मेला टिकटघर में भीड़ थी। करीब पांच काउण्टर चल रहे थे। फिर भी टी.आई. साहेब ने बताया कि इस साल भीड़ कम ही रही है नवरात्रि मेले में। यह पता चला कि बगल में ही अष्टभुजा माता का एक और शक्तिपीठ है और उसके पास कालीखोह की गुफा में माँ काली का स्थान भी। श्रद्धालु वहां भी जाते हैं। कल वहां दशमी के दिन लोग बाटी चोखा बनायेंगे उन स्थानों पर।

शाम को स्टेशन पर आधा घण्टा घूम कर जो देखा, उससे पूरा अहसास हो गया कि किफायत में तीर्थ और पर्यटन का रस लेना बखूबी जानते हैं भारतवासी। भगवान करें यह परम्परा इसी रूप में जीवित रहे और विकसित हो!

माँ विन्ध्यवासिनी की जय हो!

शाम को विन्ध्याचल स्टेशन के बाहर जले चूल्हे।
शाम को विन्ध्याचल स्टेशन के बाहर जले चूल्हे।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

6 thoughts on “विन्ध्याचल और नवरात्रि

  1. प्रणाम
    जीवंत चित्रण।
    इस बार फ़रवरी में गाँव आया था तो आपसे मिलने का बड़ा मन था, लेकिन नहीं मिल सका। हालाँकि इस बार मुलाकात होगी कहकर आपने अनुमति तो दे ही दी थी।
    आपका स्वास्थ्य कैसा है.?

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    1. अब है! मोबाइल से पोस्ट बनाने में अभी हाथ सधा नहीं है! कभी कभी ड्राफ्ट पब्लिश हो जा रहा है! :-)

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