गड़रिया हैं मिश्री पाल। यहीं पास के गांव पटखौली के हैं। करीब डेढ़ सौ भेड़ें हैं उनके पास। परिवार के तीन लोग दिन भर चराते हैं उनको आसपास।
मुझे मिले कटका रेलवे स्टेशन की पटरियों के पास अपने रेवड़ के साथ। भेड़ें अभी ताजा ऊन निकाली लग रही थीं। हर एक बेतरतीब बुचेड़ी हुई। उन्होने बताया कि साल में तीन बार उतरता है उनका ऊन। इस बार करीब चालीस किलो निकला।
मिश्री पाल ने बताया – बहुत कम दाम मिलते हैं ऊन के। खरीदने वाला 8रुपये किलो खरीद ले जाता है।
यह तो बहुत कम दाम हुये। आलू के भाव। – मैने अपना मत व्यक्त किया।
“हां, बहुत कम है। पर और कोई काम नहीं। दिन भर चराते हैं। देखभाल करनी पड़ती है।” मिश्री पाल ने कहा कि वे भेड़ें बेचने का धन्धा नहीं करते। पर मुझे लगा कि यह गड़रिये का काम अगर भेड़ें बेचने पर आर्धारित नहीं है तो मात्र ऊन के आधार पर किसी भी प्रकार से सस्टेन नहीं किया जा सकता। गड़रिया के काम में पैसा कहां और किस मद में आता है; मैं यह सोचने में लग गया।
मिश्री पाल के पास बैल भी हैं। बैलों को वे हल चलाने के लिये किराये पर देते हैं। आजकल किसान बैल नहीं रखते। अगर जोत बहुत छोटी है, या जगह ऐसी, जहां ट्रेक्टर नहीं जा सकता, तो वहां हल का प्रयोग करते हैं। वहां मिश्री पाल के बैल काम आते हैं।
देहात में बहुत से लोग; जिनके पास जमीन नहीं है; भेड़, बकरी, सूअर, गाय, भैंस आदि पाल कर उनके दूध, ऊन, मांस आदि से अपना जीवन यापन करते हैं। उनके रहन सहन को देख कर लगता है कि उन्हें गरीब तो जरूर माना जायेगा; पर आर्थिक आधार पर कम जोत वाले किसानों की अपेक्षा बहुत विपन्न हों – वैसा भी नहीं है। मुझे लगा कि कभी पटखौली जा कर मिश्री पाल का जीवन देखना चाहिये।
कितनी ही अच्छी पुस्तके गड़रियों के घुमन्तू जीवन के आधार पर लिखी गयी हैं। कई देशों और महाद्वीपों में यात्रा करते गड़रिये। मिश्री पाल वैसे तो नहीं हैं; पर छोटे मोटे स्तर पर घुमन्तू तो हैं ही।
मैं मिश्री पाल का चित्र ले चलने लगा। सांझ हो गयी थी। मिश्री पाल भी अपने गांव लौट रहे होंगे अपने रेवड़ के साथ। वे और उनके साथी डण्डा फटकारते हुये, हट्ट-हट्ट की ध्वनि निकालते अपनी भेड़ें साधने में लग गये।
अभी हाल ही में मैं अपने घर (गांव) गया था तो घर के पास ही एक पाल जी भेड़ चराते हुए मिल गए ,मैं उनसे पूछने लगा कि इस व्यवसाय में कमाई कैसे होती है उन्होंने मुझे बताया कमाई इसमे दो तरह से होती है एक तो बाल बेचकर और दूसरी भेड़ा (नर) बेचकर ,भेड़ा को चिकवा (भेड़ी व्यापारी) खरीद के ले जाता है और वो अपने हिसाब से काटकर बेचता है बस यही है इनकी गड़रियों की आमदनी ।।
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यकीन नहीं होता कोई इतने कम पैसे में भी यह काम करता होगा और फोटो में देख कर नही लगता वह अपने हालात से परेशान है या नहीं. क्या वाकई काम की कमी है अथवा उसे इसी काम में ख़ुशी मिलती हो ?
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हां, यह प्रश्न जरूर उठते हैं। मिश्री पाल की जिन्दगी को और ध्यान से देखने की आवश्यकता है।
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भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि के साथ पशुपालन को भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए। किसान जो की अन्नदाता कहलाता है आज भी दयनीय हालात है। सूखे या कम वर्षा के चलते उपज यदि कम हो तो वैसे पर्याप्त धन उसे नहीं मिलता, और आंकड़ों को तोड़ते हुए बम्पर कृषि हो तो बाजार भाव वैसे लुढक जाते हैं। अर्थात कृषक को दोहरी मार झेलनी पड़ती है।
कमोबेश यही हाल पशुपालकों का है। 8 रुपये किलो के दाम यदि ऊन के लिए भेड़पालक को मिलेंतो नंगा क्या नहाये क्या निचोड़े वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है।
किसी भी तरह हमारे कृषकों और पशुपालकों को न्यूनतम मूल्यों की गारन्टी मिले यह सरकार और समाज की जिम्मेदारी बनती है।
कहने को पचसिं योजनाएं कागजों पर मिलती है किन्तु हक़ीक़त क्या है यह किसी से छुपा नहीं!!
ज्ञानवर्धक विषय को सामने रखने के लिए शुक्रिया सर!!
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