घर आकर चिन्ना (पद्मजा) पाण्डे ने बताया कि स्कूल में बच्चे उसपर doggerel (निरर्थक बचपन की तुकबंदी) कहते हैं –
पद्मजा पान्दे (पद्मजा पाण्डे)
चूनी धईके तान्दे (चोटी धर कर – पकड़ कर तान दे)
खटिया से बान्दे (खटिया से बाँध दे)
डॉगरेल बचपन के कवित्त हैं। निरर्थक, पर उनमें हास्य, व्यंग, स्नेह, संस्कृति, भाषा – सभी का स्वाद होता है। मैं कल्पना करता हूं पद्मजा (चिन्ना) की लम्बी चोटी की। इतनी तम्बी कि उसे खींच कर चारपाई के पाये से बांधा जा सके। उसकी मां उसे चोटी लम्बी करने का लालच दे दे कर उसे पालक, पनीर, सब्जियां और वह सब जो उसे स्वादिष्ट नहीं लगते; खिलाती है। और वह बार बार सूरदास के कवित्त के अंदाज में पूछती है – मैया मेरी कबहूं बढैगी चोटी!

गांव में भले ही उसका स्कूल “पब्लिक स्कूल” है, पर उसमें देशज छौंक पर्याप्त है। कभी कभी हमें लगता है कि यहां से कहीं शहर के स्कूल में उसे स्थानांतरित किया गया तो उसकी बोलचाल की भाषा में कुछ बदलाव करने होंगे। उसके लिये अभी महीने मई, अगस्त, सितम्बर आदि ही हैं। मे, ऑगस्ट, सेप्टेम्बर आदि नहीं। उच्चारण में शहरीपन नहीं है। गांव से शहर का कल्चरल गैप उसे – एक छोटी बच्ची को लांघना होगा। पर ऐसे न जाने कितने गैप उसे मिलेंगे। गांव से शहर, बड़ा शहर, मैट्रो और उसके बाद शायद विदेश… जितनी कल्पना मैं उसके भविष्य को ले कर करने लगता हूं, उतना तनाव होने लगता है।

चिन्ना (पद्मजा) पाण्डेय
गांव के हिसाब से उसका स्कूल (बीएलबी पब्लिक स्कूल, गांव भगवानपुर, महराजगंज, भदोही) अच्छा है। अध्यापिकायें और दाई-आण्टी उसपर पर्याप्त ध्यान देते हैं। स्कूल के प्रिंसिपल-डायरेक्टर स्कूल के स्तर में (अपनी सीमाओं में रह कर) उत्तरोत्तर सुधार/विकास के प्रति सजग हैं। लेकिन गांव के स्कूल की अपनी सीमायें होती हैं। अभिभावक भले ही बच्चे को अच्छी शिक्षा देना चाहते हों, अपने घर के देशज वातावरण से अपने बच्चे को असंपृक्त नहीं कर सकते।

गांव में कई घरों में सवेरे नाश्ता बनाने की प्रथा नहीं है। भोजन दो जून बनता है। बच्चे के लिये अलग से सवेरे स्कूल भेजते समय टिफन बना कर नहींं दिया जाता। लिहाजा कुछ बच्चे घर से पैसा ले कर आते हैं और बाहर ठेले-फेरी वाले से खाने की चीज लेकर खाते हैं। कितनी उम्र के बच्चे को पॉकेट मनी मैनेज करना चाहिये, इस पर स्कूल वालों को अच्छे से सोचना चाहिये। फिर बाहर के जंक-फूड की बजाय घर के बने पौष्टिक भोजन के बारे में उन्हें अभिभावकोंं को भी आगाह करना चाहिये।
और भी मुद्दे हैं। हाईजीन एक व्यापक मुद्दा है। हमारे घर में मेडीकर – जुँये मारने वाला शेम्पू – की जरूरत नहींं हुआ करती थी; यहां गांव में चिन्ना स्कूल जाती है तो हो रही है। आसपास के समाज में जुँयें हैं। शहर में स्कूल होता तो शायद जरूरत न पड़ती। अभी चिन्ना बच्चा है तो उसके व्यवहार को घर के स्तर पर मोल्ड किया जा सकता है। कुछ सालों बाद व्यवहार और सोच पर स्कूल ज्यादा प्रबल होगा, तब क्या गांव का स्कूल उचित रहेगा?
व्यापक प्रश्न है कि क्या शहर के स्कूल भी उपयुक्त हैं?
स्कूल की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। महात्मा गांधी अपने बेटे को घर पर रख कर शिक्षा देने के पक्ष में थे; पर हरीलाल की शिक्षा के मामले में उनसे (आपराधिक?) चूकें हुईँ। हम लोग पद्मजा की पढ़ाई को ले कर उतना ड्रास्टिक एक्स्पेरिमेण्टेशन नहीं कर सकते। उतनी ऊर्जा भी नहीं है और कंविक्शन (वैचारिक दृढ़ता) भी नहीं है।

लेकिन, पद्मजा का डॉगरेल सोचने की एक दिशा तय कर रहा है। चिन्ना (पद्मजा) एक जीवंत लड़की है। गांव का वातावरण उसे ठीक ही शेप कर रहा है। उसके पास वह सब अनुभव है जो शहरी बच्चे को तो मिलेगा ही नहीं। वह सुविधा में और सम्भावनाओं में किसी शहरी बच्चे से 19 नहीं, बीस ही होगी। पर यह लग रहा है कि उसके भविष्य के लिये सोचना पड़ेगा और परिवार उस सोच का भागीदार होगा। आखिर, उसका भविष्य ही हमारा भविष्य है।
सुन्दर पोस्ट। गाँवो के बच्चों के भाग्य में सुख लिखा है शहरी बच्चों के भाग्य में कहाँ!
चिन्ना बिटिया को ढेर सारा प्यार।
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मेरी शुरूआत की पढाई गाव के मदरसे में हुयी, यह वह जमाना था जब मेरी बहनों के लिये स्कूल ही नही थे । मै ऐसे सैकड़ो परिवारो को जानता हंू जिनके परिवार के लोग शहरों और गावों मे रहते है और उनके लड़के ओर लड़कियां दोनो कल्चर यानी शहरी और ग्रामीण को बखूबी निबाहते हैं । पता ही नही चलता कि ये गांव के है या शहर के ।
रही बात कवित्त की तो हमारे क्षेत्र में वाजपेयी लोगों के बारे में ऐसा कहते हैं …….
बाजपेयी बाजपेयी कुत्ता की जात
भडि़या (हंड़िया) चाटैं आघी रात
चाटत चाटत होइ गवा भोर
वाजपेयी की बहिनी का लइ गवा चोर
सभी वाजपेयी उक्त कहावत को सुनकर बहुत आनन्दित होते हैं, मुस्कुराते हैं, हंसते हैं और मजा लेते हैं और तनिक भी बुरा नही मानते । यही कारण है कि वाजपेयी स्वभाव से विनोद प्रिय होते हैं ।
हमारी तरफ पान्डे लोगों क बारे में भी कहावत है । वह मै बाद में लिखून्गा ।
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Hahaha. पांडे मारईं मछरी पंडाइन बनावीं झोल…
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कह नहीं सकते आगे चलकर चिन्ना कहाँ पढ़ेगी और non-rural माहौल में कितना adjust कर पायेगी। हमारे घर में न तो हिन्दी बोली जाती थी (है), न अंग्रेजी , सो जब हमारा एडमिशन हुआ था इलाहाबाद के St. Mary’s में, पहले के कई महीने हमें बहुत दिक्कत हुई थी adjust करने में। कुछ बच्चे adjust कर लेते हैं मगर कुछ उतनी जल्दी नहीं कर पाते ; यहाँ बात केवल भाषाई दिक्कत की नहीं है पर आत्मविश्वास का भी है जो इस non-ability to communicate से मात खा जाती है
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मैने भी यह फेस किया है. बिट्स पिलानी में भर्ती हुआ तो हिन्दी माध्यम के स्कूल से गया था. पहले सेमेस्टर तो क्लास में एक वाक्य तक न बोल पाया – जहाँ पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी था…
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चिन्ना एक शुद्ध, प्राकृतिक माहौल में जीना सीख रही है। संयुक्त परिवार में वह एक सहज जीवन जी रही है। शहरों के दमघोंटू और खतरनाक प्रतियोगिता से वो और उसके अभिभावक दूर हैं।आप उसे घर पर phonetic सिखा सकते हैं।
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मुझे नही लगता है कि गांव की जीवन शैली में रहकर चिन्नआ की किसी भी प्रकार की प्रतिभा दबे रहने की संभावना है आखिर आप भी तो पहले गांव में ही रहकर इतना आगे गए है ।
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सोचता मैं भी हूं; पर यह भी लगता है कि पहले से अब प्रतिस्पर्धा भी बढ़ गयी है। …
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