सामने उडद की फ़सल का ढेर लगा है। एक जोड़ी बैल ले कर अधियरा और उसकी पत्नी उडद की दंवाई कर रहे हैं। गोल गोल घूमते बैल अच्छे लगते हैं। यह दृष्य सामान्यत: आजकल दिखता नहीं गांव में। बैल खेती के परिदृष्य से अलग किए जा चुके हैं।

मुझे अन्दाज नहीं है कि उडद की फसल की गुणवत्ता या मात्रा अच्छी है या नहीं। अन्दाज से कहता हूं – उडद तो ठीक ठाक हो गयी है।

किसान (गुन्नी लाल पाण्डेय) मेरे मित्र हैं और जानते हैं कि गांव के बारे में मेरा ज्ञान शून्य से कुछ ही ज्यादा है। वे हंस कर कहते हैं – उडद की फसल अच्छी नहीं है। एक बीघा में कुल चार धरा मिली है। वह भी मिट्टी कंकर मिला कर। वह निकाल दें तो मात्र तीन धरा। यानी 12 किलो। सब खरपतवार है। फ़सल तो पानी बरसने से खराब हो गयी। यह कुछ उंचाई पर थी तो थोड़ा बहुत बच गई। पर जब उडद काट ली थी, तब अचानक पानी बरसा और कटी फ़सल भी चौपट हो गयी।
उडद तो थोड़ी मिली है। अरहर और तिलहन तो लगभग नष्ट ही हो गया है। धान जरूर खेत में खड़ा है। मैं घूमते हुये देखता हूं तो पाता हूं कि धान के पौधे पिछली साल की फ़सल के मुकाबले कमजोर ही हैं। खेत में अभी भी पानी लगा है। निराई तो लगभग हुई ही नहीं है।
सब्जियों का भी वही हाल है। आलू मटर हल्दी खेतों में बो दिया जाया करता था अब तक. पर इस साल तो अभी धान के कटने का नम्बर ही नहीं लग रहा। परती पड़े खेत में भी पानी लगा है। उनमें भी सब्जी उगाने का जोखिम नहीं ले रहा किसान। पूरी तरह सब्जी उगाने वाले दो तीन गांव हैं। वहां मैं अभी गया नहीं। अब जा कर उनका हाल भी पूछूंगा। पर सब्जी तो कैश क्रॉप है। कम पैदावार होगी तो रेट ज्यादा होंगे और किसान को लगभग उतना मिल जायेगा, जितना अच्छी फसल से कमाता। समस्या अन्न उपजाने वाले को है। खाने भर को बमुश्किल मिल पायेगा इस साल।

पानी इतना गिरा है कि रास्ते कट गये हैं। अभी तक पानी पूरी तरह उतरा नहीं। मेरा गांव लगभग एक महीने सड़क मार्ग से कटा रहा। गांव से नेशनल हाईवे और रेल लाइन गुजरती है। इन दोनों में यातायात वहन क्षमता के विस्तार का काम चल रहा है। हाईवे चार से छ लेन का बन रहा है और रेल पटरी इकहरी से दुहरी की जा रही है। उनके काम के लिये बड़े बड़े वाहन गांव की पतली सी सड़क पर आ जा रहे हैं। उनके चलने से सड़क वैसे ही उधड़ गयी थी। रही सही कसर बारिश ने पूरी कर दी।

विकास के कामों ने जल के नैसर्गिक प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया है। कंस्ट्रक्शन करने वाले जल संचरण की dynamics पर ध्यान देते ही नहीं। यह परेशानी मैं रेल सेवा के दौरान भी झेल चुका हूं, जब पानी अवरोध के कारण रेल पटरी लंबे इलाके में बह गई थी।
जहां महुआरी थी, वहां अब झील बन गयी है। वह पानी कहीं निकल नहीं सकता। गांव वालों में न तो सामुहिक काम कर जल का अवरुद्ध प्रवाह खोलने की इच्छा है और न साधन। सरकार का मुंह देख रहे हैं और सरकार अब तक नजर नहीं आयी।
गांव डेनमार्क या वेनिस जैसा लग रहा है। ऊँचाई पर घर हैं और उनके अलावा पानी है। पानी ठहरा हुआ है तो उसपर काई की एक परत दिखती है। फ़ोटो लेने में बड़ा मोहक चित्र उभरता है पर दैनिक जीवन के लिये वह बताता है कि कितनी कशमकश करनी पड़ रही है। … हां गांव की जो आबादी मछली खाने में परहेज नहीं करती, उनके मजे हैं। दिन भर लोग मछली पकड़ते हैं गांव के खेत-महुआरी-अमराई में और कम से कम दो जून का भोजन मछली की तरकारी के साथ कर रहे हैं। पानी अभी इतना है कि मछली एक डेढ़ महीना मिलती रहेगी। पौष्टिकता भरपूर! 😆

घर के पीछे के अपने खेत में मैने सागौन के पौधे लगाये थे। साल भर में चार पांच फ़ुट के हो गये थे। इस बारिश में उनकी बढ़त बढ़िया होने की सम्भावना प्रबल थी। पर बारिश इतनी ज्यादा हुई कि खेत में, जिसमें एक दो दिन से ज्यादा पानी रुकता नहीं था, महीना भर पानी लगा रहा और अधिकांश पौधे सड़ कर खत्म हो गये। किसान को खड़ी फसल के बरबाद होने से जितना नुक्सान हुआ होगा, मेरे इन सागौन के पौधों में तो उससे चार पांच गुना घाटा हुआ है। पिताजी की बीमारी, निधन और उसके साथ यह खेत की बरबादी – कुल मिला कर सोच ही नहीं पा रहा हूं कि प्रकृति/दैव ने क्या किया पिछले दो ढाई महीनों में।
मेरे ही नहीं, गांव में जिन लोगों को जानता हूं, उनके घर में भी, लोग ज्यादा ही बीमार पड़े। पानी और मच्छरों के कारण बहुत से लोग पेट के रोग और ज्वर से पीड़ित रहे। अब भी हैं। मेरे घर में तो पीने के पानी के शोधन का इन्तजाम है। पर ज्यादा गांव बिना पाइप्ड पानी की सप्लाई के है। उनमें लोग वही पानी पी रहे हैं जो सुलभ है। और वह पानी दूषित है। स्वास्थ्य सेवायें तो जैसी हैं, वैसी हैं।
अब वायु प्रदूषण की समस्या भी दिख रही है। दिन भर धुन्ध छाई रहती है। सूरज भगवान ठीक से निकलते नहीं। लोग बारिश के मौसम के बाद धूप की अपेक्षा रखते थे, वह भी पूरी नहीं हुई। साइकिल से घूमते समय मन में विचार आता है कि एक मास्क लगा कर निकला करूँ। यहां तो लोग खेत में डंठल जला भी नहीं रहे। जाने कहाँ से आ रहा है यह स्मॉग।

दो महीने से गांव में आस पास घूम नहीं पाया। दो दिन से आस पास घूम कर जो हालात देख रहा हूं, वह व्यथित करने वाला है। पर लोग (वह सब झेलते हुये भी) जो है, उसे सामान्य मान कर चल रहे हैं। वे सब उस मेढ़क की तरह हैं जिसे हल्की आंच पर धीरे धीरे तापक्रम बढ़ाते हुये गरम किया गया है और जो अपने जीवन में आये तनाव को झेलते हुये भी अपरिचित बन रहता है।
यह मेढ़क वृत्ति ही सरकार के लिये वरदान है। अन्यथा यह वर्ग घोर असंतोष व्यक्त करता और राजनीति में कहीं ज्यादा उथल पुथल मचाता।
लोग, अपने परिवेश की नहीं कहते। वे बात कर रहे हैं कि लगता है अबकी बार मन्दिर (अयोध्या में) बन ही जायेगा। सहने की अपार क्षमता है भारत की जनता में।