यह शायद मौसम ही ऐसा है. सर्दी ज्यादा नहीं है और उमस नहीं ही है. साइकिल चलाने पर पसीने से नहाना नहीं पड़ता. हल्के हल्के पैड़ल मारना पैदल चलने जैसा है. जब आस्टीयोअर्थराइटिस की समस्या नहीं थी तो एक दो घंटे पैदल आसानी से घूम लेता था. औसत स्पीड 4-5 किलोमीटर की हुआ करती थी.
साइकिल से 9-10 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार होती है. यह साइकिलिंग और पैदल चलने के बीच की चीज़ है. आप साइकिल चलाते हुये आस पास निहार भी सकते हैं, फीचर फोन से साध कर (ठीक ठाक) चित्र भी खींच सकते हैं और पैड़ल मारते हुए उस चित्र के अनुसार ट्विटर, फेसबुक या ब्लॉग पर जो लिखना है, उसकी कल्पना भी कर सकते हैं. और जब साइकिल रोक कर देखने या कमीज की बायीं जेब में रखी जेबी नोटबुक में कुछ नोट करने का मन बने तो साइकिल पर बैठे बैठे पैर जमीन पर टिका कर लिखा भी जा सकता है.

साइकिलिंग और पैदल का फ्यूज़न किया कोई शब्द होना चाहिए. साइदलिंग? या अंग्रेजी में cywalk? कुछ यूं कहूं कि प्रयागराज में आजकल सवेरे का साइदल भ्रमण बहुत रुच रहा है.
रोज लगभग 11 किलोमीटर साइकिल चलाना होता है. तीन दिन हो गए. पहले दिन कटरा गया था. नेतराम चौराहे तक. दूसरे दिन चन्द्रशेखर आजाद पुल से गुजर कर फाफामऊ तक हो आया. आज तीसरे दिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय (नाम बदल कर प्रयागराज विश्वविद्यालय हुआ या नहीं?) के इर्द-गिर्द चक्कर लगा कर आया.

सवेरे खाली मिलती हैं सड़कें. फिर भी मैं पैदल चलने वाले की तरह किनारे से चलता हूँ और जहाँ सड़क की बगल में कच्चा रास्ता साइकिल चलाने लायक होता है, वहां उसपर चलना पसंद करता हूं. खुली और चौड़ी सड़कों के किनारे पेड़ और हरियाली मोहक लगते हैं. प्रयाग की मिट्टी कुछ विलक्षण है. पेड़ और वनस्पति उसमें नैसर्गिक रूप से प्रसन्नमन बढ़ते हैं. साइकिल चलाते हुये अनेक चित्र तो इस तरह सड़कों के लिए मैने.

चन्द्रशेखर आजाद पुल की बगल में पुराना कर्जन ब्रिज है – रेल कम रोड ब्रिज. अब वह परित्यक्त है. पर सामने पूर्वी दिशा से आती सूरज की रोशनी में उसके चित्र लेने का आनंद अनूठा ही है. ऐसा करने के लिए मुझे साइकिल पुल की रेलिंग के साथ बने फुटपाथ पर खड़ी करनी पड़ी. नीचे गंगा में पानी काफी है. कर्जन ब्रिज 13 या 14 पत्थर के खम्भों का है. गंगा का पानी छ खम्भों की चौड़ाई में फैला हुआ है. पानी का बहाव भी तेज है.

कछार में शिवकुटी की तरह यहां भी सब्जी नहीं बोई है लोगों ने. शायद अभी वे आशंकित हैं कि माघ मेले के दौरान सरकार जोश में ज्यादा ही जमीन पर इंतजाम करेगी और उनकी सब्जी उजड़ने की संभावना रहेगी.
एक जगह फुटपाथ कब्जा कर गाय पाले थे एक सज्जन और सवेरे दूध दुह रहे थे. गाय दुहने का दृश्य बिना चित्र लिए नहीं निकला जा सकता था.

तीसरे दिन कटरा, बैंक रोड, यूनिवर्सिटी क्षेत्र से गुजरा. विश्वविद्यालय और मिलिटरी छावनी का खुला इलाका साइकिल चलाने के लिए अति उत्तम था. सड़कें भी (कटरा की गंदगी के अलावा) बहुत साफ और समतल थीं. अगर गंगा दर्शन का लालच न हो तो यह इलाका साइदल भ्रमण के लिए बेहतर है. छावनी में मेरे पिताजी पच्चीस साल पहले रहते थे. वहां भी मैंने साइकिल मोड़ी. वह घर तो पहचान में नहीं आया. शायद और भी लोगों ने निर्माण कर लिया था. पर उसके पास पगडंडी से गुजरते एक पुराने बंगले का खण्डहर चित्र लेने को बाध्य कर गया.

गांव और शहर दोनों के साइकिल भ्रमण के अपने अलग अलग चार्म हैं. मन अब दोनों से आकर्षित होता है. लगता है, पिताजी के स्वर्ग वास के बाद गांव और प्रयाग – दोनों में समय व्यतीत होगा और प्रयागराज अब मेरा अपना शहर भी हो जाएगा. पिताजी की यादें यहां प्रयाग में ज्यादा हैं. यहां वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे और यहां अपनी नौकरी के अंतिम दशक में रहे भी. जीवन के करीब पैंतीस साल उन्होंने इलाहाबाद में गुजारे होंगे.
सुबह की यह यात्रा सुन्दर जा रही है। अगली यात्राओं का इन्तजार रहेगा।
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