पास के खेत से खीरा निकला था और किसान बटखरा-तराजू लिये दो ग्राहकों के लिये तौल रहा था। दृष्य रोचक लगा मुझे। साइकिल रोक पर सीट पर बैठे बैठे मैंने चित्र लेने का उपक्रम किया।
मैं किसान का चित्र लेने में लगा था, दृष्य पर ध्यान इस कोण से था कि किस चीज पर फोकस करना है, खीरा और तराजू ठीक से रूल ऑफ थर्ड के हिसाब से सही जगह पर फ्रेम में आ जाये, आदि। किसान के चेहरे पर ध्यान नहीं दिया।

पर किसान ने मुझे देख लिया था। वह दोनो हाथ मेँ कुछ खीरे अंजुली की तरह भर कर मेरी साइकिल के पास आया और मेरी आगेवाली टोकरी में डाल दिये। तब मैंने ध्यान दिया – वे सज्जन विजय शंकर उपाध्याय थे। पिछलेे नवम्बर में मैंने उनपर एक ब्लॉग पोस्ट लिखी थी। तब विजयशंकर परेशान थे वर्षा ऋतु की अति से। खेत पानी से इतना भरे थे कि अगली फ़सल वे बो नहीं पाये थे और पिछली फसल बरबाद हो गयी थी। वे इस फ़िक्र में थे कि अगली फ़सल इतनी तो हो जाये कि खाने भर का काम चल जाये…
वह व्यक्ति, बिना कुछ बोले, अपनी फसल से लगभग दो सेर खीरा ले कर मेरी टोकरी में रख दे रहे है। … किसान की विशाल हृदयता ही तो है यह!
मैने विजयशंकर जी को (लजाते हुये) दाम देने की पेशकश की। उन्होने कहा – अब दाम देहे क कहब्यअ? (अब कीमत देने की कहोगे?)।

सवेरे की साइकिल सैर के दौरान इस उपहार ने मुझे हृदय के अन्दर तक सींच दिया। घर वापस लौटते समय पूरे रास्ते मैं विजयशंकर जी के बारे में ही सोचता रहा। अगर एक किसान – एक मार्जिनल किसान; इतनी दरियादिली रखता है तो मुझे तो अपने दिल को और भी खोलना चाहिये। अपनी संकीर्णता के कई वाकये याद आने लगे, जिनका पछतावा स्मृति में उभर आया।
अपना पर्सोना बदलो जीडी। गांवदेहात को वक्र दृष्टिकोण से देखने की बजाय विजयशंकर जी को सामने रख अपना नजरिया बदलो अपने परिवेश के बारे में। गांव के बारे में।
