मैं सीताराम से मिलने गया था। पंद्रह मिनट पहले घर से निकला। भोर में पौने पांच बजे। अंधेरा छंटा भी न था, जब घर से साइकिल ले कर चला। द्वारिकापुर गंगा घाट पर पंहुचा, तब भी सूर्योदय का समय नहीं हुआ था। सीताराम नाव पर नहीं थे। निवृत्त होने गये थे शायद। उनके जोड़ीदार चंद्रमोहन मिले। पास की नाव पर एक नौजवान दोहर ओढ़ कर लेटा था।

सीताराम आये तो मैंने ब्लॉग पर अपनी पोस्ट दिखाई।
उससे उनको स्पष्ट हुआ कि उनके बारे में जानकारी लेने का ध्येय उनपर लेख लिखना है। मेरे बहुत से पात्रों को अपने बारे में लिखा पढ़ने का शौक नहीं होता, पर अपने बारे में ब्लॉग पर लिखा देख कर और उसमें अपने चित्र देख कर उनकी प्रसन्नता देखते ही बनती है। सीताराम इस दूसरी प्रकार के जीव निकले। तब तक बगल की नाव में लेटा नौजवान पास आ गया था। उसे मेरे मोबाइल में लिखा लेखन रोचक लगा। पहले सामने खड़े हो और फिर अपनी नाव के कोने पर बैठ कर उसने अपने बारे में बहुत कुछ बताया।
उनका नाम है राजकुमार। राजकुमार साहनी। आज से पहले मुझे नहीं मालूम था कि केवट या निषाद अपने उपनाम के रूप में साहनी का प्रयोग करते हैं। घर आ कर सर्च किया तो किन्ही मुकेश साहनी के बारे में पता चला। उन्होने बिहार में निषाद (मल्लाह) जाति की पार्टी – विकसशील इंसान पार्टी (वीआईपी) बनाई है।

बद्रीनारायण की पुस्तक Fascinating Hindutva: Saffron Politics and Dalit Mobilisation के पांचवे अध्याय में निषाद की उत्तरप्रदेश में एक उपजाति के रूप में “साहनी” का जिक्र है। राजकुमार को अपने निषादराज का वंशज होने का गर्व था, जो उनकी बातचीत से झलका। यह अतीत पर गर्व अगर अपनी बढोतरी की प्रेरणा देता हो, जो राजकुमार के मामले में लगता है, तो अच्छा ही है। आजकल रामायण सीरियल के देखने पर भारत में बहुत से लोगों को निषादराज के बारे में जानकारी मिली होगी और उनके प्रति आदर भाव में भी वृद्धि हुई होगी – ऐसा मेरा मानना है।
बद्रीनारायण जी की पुस्तक के उपयुक्त अंश का चित्र निम्न है –

राजकुमार की उम्र तैतीस साल की है। देखने में वे उससे भी कम उम्र के लगते हैं। उनका कहना है कि अपने शरीर की सुनते हैं। किसी दिन खूब मेहनत करने का मन होता है तो करते हैं। किसी दिन आराम करने का मन हुआ तो वह कर लेते हैं। शायद वे शरीर की सुनते हैं तो मन उनकी सुनता होगा। अवसाद, तनाव और व्यग्रता से स्वास्थ्य का जो क्षरण होता है, वह राजकुमार में शायद न होता हो।

कितने दिन यहां रहोगे? मेरे यह पूछने पर राजकुमार साहनी ने कहा कि यह कोई ठेके का काम नहीं है। रोज कुआँ खोदने, रोज पानी पीने की बात है। वैसे, अपनी नाव से उन्होने कई जगह काम किया है। बरैनी के पुल के प्रोजेक्ट में भी काम किया था। जब तक मन लगेगा यहां काम करेंगे। बारिश के मौसम में वैसे भी काम बंद हो जाता है।
सीताराम की नाव की तरह आपकी नाव में रहने का कमरा नहीं है। रात में कैसे रुकते हैं नाव पर?

“नाव पर नहीं रुकते। मेरा घर सीखड़ में है। पास के गांव केवटाबीर (केवट लोगों की बड़ी बस्ती है वहां) में रिश्तेदारी है। रात में वहां रुकता हूं। सवेरे मोटर साइकिल से यहां चला आता हूं।”
राजकुमार ने बताया कि करीब पौने दो लाख रुपये की उनकी नाव होगी। बड़ी नाव है। डीजल इंजन से चलती है। मेरे मन में विचार आया कि अगर गंगा में ऐसे ही पानी रहता रहा और यातायात का अच्छा साधन बनी नाव तो कार की तरह एक नाव रखने और एक नियमित या दिहाड़ी पर नाविक बतौर ड्राइवर रखने में जो आनंद रहेगा वह कार में नहीं! यह शेखचिल्ली की सोच मेरे मन में कई बार आयी है। फिलहाल तो यही विचार है कि अगर राजकुमार साहनी से सम्पर्क बना रहा हो उनकी नाव पर एक दो घण्टा (किराये पर ही सही) गंगा में आसपास भ्रमण करूंगा।
मैंने राजकुमार से मोबाइल नम्बर एक्स्चेंज कर लिया है! क्या पता मैत्री लम्बी चलने वाली बन जाये।
राजकुमार भी भारत भ्रमण कर चुके हैं। उत्तर भारत के कई स्थान – कश्मीर समेत उन्होने गिना दिये। मुम्बई तो रहे ही हैं/हो आये हैं। उनका मानना है कि वहां के लोग यहां वालों की अपेक्षा कहीं ज्यादा मददगार हैं। यहां तो गाढ़े में मदद करने की बजाय मुँह मोड़ने वाले लोग ज्यादा हैं। शायद यहां परनिंदक और दोषदर्शक लोगों से ज्यादा पाला पड़ा होगा उनका।
मेरे पास समय ज्यादा नहीं था घाट पर रुकने का। राजकुमार ने गगरा मछलियां पकड़ी थी। वे उन्होने मुझे दिखाईं। उनके चित्र भी दूरी के कारण अच्छे नहीं आ पाये। आगे कभी उनकी नाव पर या नदी किनारे घाट पर बैठ कर मिलने की इच्छा लिये वहां से चला आया।
पूर्वांचल में प्रवासी आये हैं बड़ी संख्या में साइकिल/ऑटो/ट्रकों से। उनके साथ आया है वायरस भी, बिना टिकट। यहां गांव में भी संक्रमण के मामले परिचित लोगों में सुनाई पड़ने लगे हैं। इस बढ़ी हलचल पर नियमित ब्लॉग लेखन है – गांवकाचिठ्ठा https://gyandutt.com/category/villagediary/ |