शाम 7 बजे ‘बोधई’ का बाटी चोखा

रवींद्रनाथ जी यदा कदा मिलते हैं। उनकी और हमारी दूरी रेल लाइन पार करने की है। अन्यथा हमारी प्रवृत्तियां मेल खाती हैं। वे भी मेरी तरह गांव के बाहर व्यवसाय की लम्बी पारी खेल कर दूसरी पारी के लिये गांव आये हैं। वे भी मेरी तरह गांव में अपनी सूखी जड़ों को पुष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। वे भी, मेरी तरह गांव के बदले बदले अंदाज से हतप्रभ, दुखी और तालमेल तलाशते नजर आते हैं।

कल उन्होने बताया कि अपने घर के सामने वे आसपास के आठ दस लोगों के साथ शाम के समय कऊड़ा पर बैठते हैं। आपस की बातचीत होती है और कभी कभी यह होता है कि वहीं बाटी चोखा बना कर भोजन भी हो जाता है। एक दो लोग हैं जो बाटी चोखा बनाने में कुशल हैं। कुल मिला कर अच्छा सामाजिक मेल मिलाप हो जाता है।

मैंने भी अपनी इच्छा जताई कि एक दिन उस कऊड़ा में बैठ कर अनुभव लेना चाहूंगा। और रवींद्रनाथ जी ने कहा – क्यों नहीं! आज ही शाम को।

यह तय हुआ कि शाम सात बजे उनके यहां पंहुचूंगा। आठ बजे तक बैठकी होगी अलाव के इर्दगिर्द। उसी दौरान भोजन भी बनेगा अलाव पर। भोजन के बाद साढ़े आठ बजे तक घर वापसी हो जायेगी। जनवरी/माघ की सर्दी में उससे ज्यादा बाहर नहीं रहना चाहता था मैं और रवींद्रनाथ जी भी उस समय तक कऊड़ा सम्मेलन समाप्त करने के पक्ष में थे।

बाटी चोखा आयोजन की मेजबानी श्रीमती शैल और श्री रवींद्रनाथ दुबे ने की। चित्र रात साढ़े सात बजे।

शाम 7 बजे, अंधेरा हो गया था। ठीक समय पर मैं उनके यहां पंहुच गया। बाटी एक टेबल पर गोल गोल बनाई जा चुकी थी। चोखा भी बन गया था और एक स्टील की बाल्टी में रखा गया था। एक ओर उपले की आग जल रही थी और उसके बगल में एक ईंट के मेक-शिफ्ट चूल्हे पर दाल का पतीला चढ़ा रखा गया था।

बाटी के लिये जलते उपले (बांये) और चूल्हे पर चढ़ा दाल का पतीला

जय प्रकाश ‘बोधई’ दुबे मुख्य कार्यकर्ता थे इस आयोजन के। उन्होने बताया कि साढ़े पांच बजे से बाटी-चोखा बनाने का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया था। मेरे सामने जय प्रकाश एक कुशल रसोईये की तरह काम कर रहे थे। रवींद्रनाथ जी ने कहा कि अगर मुझे बाटी-चोखा के आईटम्स पर बाद में लिखना हो तो सभी के चित्र ले लिये जायें! लिखने में आसानी रहेगी।

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कुल सात आठ लोग थे वहां। रवींद्रनाथ दुबे जी की पत्नी शैल भी थीं। मैं उन्हे मौजूद देख अपनी पत्नीजी को फोन कर उन्हे आने को कहा, पर वे रजाई में लेटी थीं और आने को तैयार नहीं हुईं। मेरा बेटा ज्ञानेंद्र जरूर मेरे साथ था।

जय प्रकाश की सामान बेचने की कुशलता के बारे में रवींद्रनाथ जी ने टिप्पणी की – ‘बहुत होशियार है जय प्रकाश। गंजे को कंघी ही नहीं; मुर्दे को चवनप्राश भी बेचने का हुनर रखता है!’

जय प्रकाश ‘बोधई’ बड़ी कुशलता से बाटियां उलटते, पलटते; चावल की बटुली में कड़छुल हिलाते मुझसे बातें भी करते जा रहे थे। वे बम्बई में सेल्स मैन हैं – सूटकेस, बैग आदि यात्रा हेतु सामान रखने वाले आईटमों की दुकान में काम करते हैं। सन 2020 के समय होली पर गांव आये थे। उसके बाद कोरोना संक्रमण का लॉकडाउन चल गया। जिस दुकान में वे सेल्समैन थे, लगता है उस कंज्यूमर ड्यूरेबल चीजों का काम अभी भी गति नहीं पकड़ सका है। अभी वे गांव पर ही हैं, “पर जल्दी ही बम्बई लौटेंगे”।

कुल मिला कर पूरी दुकानदारी और सेल्समैनी चाइना छाप माल बेचने में पारंगत है। सेल्समैन के गुणों के मोहजाल में स्वदेशी और राष्ट्रवाद से ओतप्रोत ग्राहक कड़क से मुलायम बनते हुये अंतत: चाइनीज पर टूटता है! आत्मनिर्भरता तेल लेने चली जाती है!

इसी पोस्ट से
जो ग्राहक ज्यादा ‘कड़ा’ होता है, ब्राण्डेड ही लेना चाहता है और चाईनीज पर नहीं टूटता; वह भी बिल बनाते समय साढ़े अठारह परसेण्ट का जी.एस.टी. जोड़ने पर माथा थाम लेता है! :-D

जय प्रकाश की सामान बेचने की कुशलता के बारे में रवींद्रनाथ जी ने टिप्पणी की – ‘बहुत होशियार है जय प्रकाश। गंजे को कंघी ही नहीं; मुर्दे को चवनप्राश भी बेचने का हुनर रखता है!’

‘बोधई’ ने बताया कि बम्बई के शो रूम पर ग्राहक सामान्यत: ब्राण्डेड सूटकेस लेने आता है। वी.आई.पी., सफारी या सैम्सोनाइट ब्राण्ड। पर जब दाम सुन कर ‘मुलायम’ होता है, तब वे दुकानदार/सेल्समैन के लिये ज्यादा मार्जिन वाले चीनी, थाई या और कहीं के बने सूटकेस दिखाने लगते हैं। मजबूती का भरोसा देने के लिये उसपर बैठ कर, घूंसा मार कर दिखाते हैं। ग्राहक की कद काठी के हिसाब से उसे सूटकेस पर कूदने का भी ऑप्शन देते हैं। वह सब ग्राहक को सस्ता भी पड़ता है और बेचने में मार्जिन भी खूब मिलता है।

जो ग्राहक ज्यादा ‘कड़ा’ होता है, ब्राण्डेड ही लेना चाहता है और चाईनीज पर नहीं टूटता; वह भी बिल बनाते समय साढ़े अठारह परसेण्ट का जी.एस.टी. जोड़ने पर माथा थाम लेता है! :-D

कुल मिला कर पूरी दुकानदारी और सेल्समैनी चाइना छाप माल बेचने में पारंगत है। सेल्समैन के गुणों के मोहजाल में स्वदेशी और राष्ट्रवाद से ओतप्रोत ग्राहक कड़क से मुलायम बनते हुये अंतत: चाइनीज पर टूटता है! आत्मनिर्भरता तेल लेने चली जाती है!

यह महसूस हुआ कि ग्राहक चाहता है भारतीय सामान लेना और वापरना। पर यह भी जरूरी है कि दाम में उसे इतना पेरा न जाये कि वह दोयम दर्जे के चाईनीज माल की ओर देखे।

सब भोज्य पदार्थ बनने के बाद रवींद्रनाथ जी भोजन के लिये आमंत्रित करने में देर नहीं करते। ‘बोधई’ का बनाया बाटी-चोखा-दाल-चावल A++ कोटि का है। वे भले ही कुशल सेल्समैन हों; अपनी पाक कला की तारीफ खुद नहीं करते। उसके लिये हम ही स्वत: बोलते हैं। एक अच्छा बना भोजन किसी सेल्समैन की दरकार नहीं रखता। भोजन के बाद – सवा आठ बजे, हम घर वापसी की जल्दी मचाते हैं। सर्दी का मौसम है। घर पंहुचने की तलब है।

जय प्रकाश ‘बोधई’ दुबे भोजन बनाते हुये।

सर्दी ज्यादा न होती तो एक आध घण्टा और बैठ कर जय प्रकाश ‘बोधई’ दुबे के संस्मरण और उनकी बोलने की शैली का आनंद लेते। गांव का यह नौजवान; जो दसवीं तक ही पढ़ा है; दुनियां के हर एक देश और उसकी सभ्यता-संस्कृति की जानकारी भी रखता है। यह जानकारी उसे बेहतर सेल्समैन बनाती होगी।

मार्क जुकरबर्ग ने कभी कहा था कि “जवान लोग पहले वाली पीढ़ियों के मुकाबले कहीं ज्यादा स्मार्ट हैं।” और जय प्रकाश में उसका उदाहरण मुझे प्रत्यक्ष दिख रहा था।

आगे, फिर कभी मिलूंगा जय प्रकाश ‘बोधई’ से; उनके बम्बई जाने के पहले!


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

7 thoughts on “शाम 7 बजे ‘बोधई’ का बाटी चोखा

  1. वाह! पढ़कर मौज आय गवा। ठेठ गँवई बोली का तड़का लिए हुए लेख। इसमें ‘कऊड़ा’ और ‘कऊड़ा सम्मेलन’ शब्द का प्रयोग 😂। वैसे बाटी-चोखा को हमारे यहाँ अवध में ‘भौरी-भरता’ भी कहते हैं 🤪

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    1. भउरी तो मेरा भी शब्द है. मेरा भी मूल अवध का है. बाटी चोखा तो लालू प्रसाद का फैलाया हुआ शब्द है…

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  2. गांव का मज़ा ही अलग है , खुली धूप ,सरसों के पीले खेत और बहुत कुछ मैं दिल्ली में भले रहता हूं मगर अपने गांव को बहुत मिस करता हूं ,आप के लिट्टी चोखा वाला ब्लॉग पढ़कर याद है आजकल हमारे गांव में भी हर शनिवार चौरा माता (ग्राम देवी) के मंदिर पर सुंदर काण्ड के बाद लिट्टी चोखा का भोजन होता है गांव के 15-20 युवा लोग जुटते है हंसी ठिठोली होती है और मज़े करते है ,और फोटो खींचकर मेरे पास भी ठेल देते है ।

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  3. जयप्रकाशजी ने दोनों विश्व देखे है, गाँव का और शहर का। दोनों विश्व पढ़े हैं, मन का और बाहर का। और भला क्या योग्यता हो सेल्समैन की?

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