मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में रह कर ग्रामीण जीवन जानने का प्रयास कर रहा हूँ। रेलवे के विभागाध्यक्ष के पद से रिटायर रेलवे अफसर।
मौसम कुहासे का है। शाम होते कुहरा पसर जाता है। गलन बढ़ जाती है। ट्रेनों के चालक एक एक सिगनल देखने को धीमे होने लगते हैं। उनकी गति आधी या चौथाई रह जाती है।
यह 5 जनवरी 2009 की पोस्ट है। सामान्यत: उस समय मैं रेलवे के बारे में कोई पोस्ट नहीं लिखता था। पर कुहासे का मौसम। दिन पर दिन निकल रहे थे कोहरे में। मुगलसराय-गाजियाबाद खण्ड पर वैसे ही बहुत यातायात हुआ करता था और कोहरे के मौसम में गाड़ियां 8 से 25 किमीप्रघ की रफ्तार से रेंगती थीं। आप कुछ कर नहीं सकते थे; सिवाय तनाव ग्रस्त होने के। और मेरे पास उत्तर मध्य रेलवे का मालगाड़ी परिचालन का चार्ज हुआ करता था।
यह छोटी पोस्ट वही तनाव व्यक्त करती है। वर्ना आजकल तो आनंद है। कोहरे का भी आनंद!
कल एक सज्जन ने क्या टिप्पणी की ब्लॉग पर! – “आप बहुत खलिहर आदमी है, ना खेती की चिंता, ना गाय भैंस गोरू की चिंता, कितनी अच्छी है आपकी जिंदगी।”
उन्हे क्या मालुम कि यह अवस्था कितने तनाव से गुजरते आयी है। और आज भी कितने गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा! 🙂
मौसम कुहासे का है। शाम होते कुहरा पसर जाता है। गलन बढ़ जाती है। ट्रेनों के चालक एक एक सिगनल देखने को धीमे होने लगते हैं। उनकी गति आधी या चौथाई रह जाती है।
हम लोग जो आकलन लगाये रहते हैं कि इतनी ट्रेनें पार होंगी या इतने एसेट्स (इंजन, डिब्बे, चालक आदि) से हम काम चला लेंगे, अचानक पाते हैं कि आवश्यकता से पच्चीस तीस प्रतिशत अधिक संसाधन से भी वह परिणाम नहीं ला पा रहे हैं। सारा आकलन – सारी प्लानिंग ठस हो जाती है।
सारी ब्लॉगिंग बन्द। सारा पठन – सारी टिप्पणियां बन्द। फायर फाइटिंग (या सही कहें तो कुहासा फाइटिंग) चालू। जब तक मौसम नहीं सुधरता, तब तक यह खिंचाव बना रहेगा।
मेरा कमरा, मेरे फोन, मेरा इण्ट्रानेट (जो मालगाड़ी परिचालन बताता है ऑनलाइन) और मेरे कागज – यही साथी हैं। खुद तो बाहर निकल कुहासा देख भी नहीं पा रहा।
चार घण्टे हो गये पहले के दिये निर्देशों को। चलें, देखें, कितनी बढ़ी गाड़ियां। कितना सुधरा या खराब हुआ ट्रेन परिचालन।
वह नाव के एक सिरे पर बैठा डांड/पतवार के साथ। दूसरी ओर उसका जाल पड़ा था। मैं नाव के फ़र्श पर बीच में बैठा। वह नाव चलाने लगा और मैं उससे उसके बारे में पूछने लगा।
विष्णु से मैने कहा था कि बाद में कभी गंगा उस पार ले जाने और वापस आने की नाव-सैर करा दे। पर वह तुरत ले जाने को तैयार हो गया।
“चलिये अभी। आधा घण्टे में वापस आ जायेंगे।”
विष्णु मछली बेच नाव ले कर निकल लिया था। वापास आ कर मुझे ले गंगा उस पार चला उसके बाद।
अब मैं बैकफुट पर था। मैंने सोचा था कि अभी तो चार बजे से मछली पकड़ने में लगे विष्णु को घर जाने की जल्दी होगी पर वह मेरे साथ गंगा जी की एक ट्रिप को तैयार हो गया। उल्टे, मुझे घर लौटने की कुछ जल्दी थी (एक कप चाय की तलब)। पर विष्णु के साथ समय भी गुजारना चाहता था। मैने पूछा – कितना लोगे?
“आप जो दे दें।”
मैने कम कहा तो?… मैने कहा, … 50-60 रुपये ठीक रहेंगे?
“ठीक है; साठ दे दीजियेगा। चलिये।”
वह नाव के एक सिरे पर बैठा डांड/पतवार के साथ। दूसरी ओर उसका जाल पड़ा था। मैं नाव के फ़र्श पर बीच में बैठा।
वह नाव के एक सिरे पर बैठा डांड/पतवार के साथ। दूसरी ओर उसका जाल पड़ा था। मैं नाव के फ़र्श पर बीच में बैठा। वह नाव चलाने लगा और मैं उससे उसके बारे में पूछने लगा।
चार भाई और तीन बहने हैं वे। कुछ की शादी हो गयी है और कुछ अभी कुंवारे हैं। वह अभी छोटा है।
कितनी उम्र होगी तुम्हारी?
“आपको कितनी लगती है?”
मैने कहा – 18/19 या उससे कम। उसने हामी भरी – “इतनी ही है।”
पढ़ाई नहीं की विष्णु ने। जब मछली ही पकड़नी है तो पढ़ाई का क्या फायदा? बचपन से ही मछली पकड़ी है। जब नींद खुलती है, चला आता है नदी में मछली पकड़ने। उस पार सामने गांव है उसका – सिनहर। मल्लाहों के कई घर हैं सिनहर में। पर पूरा गांव मल्लाहों का नहीं है। जैसे केवटाबीर में तो मल्लाह ही हैं। वहां तो करीब 50 नावें होंगी। सिनहर गांव में करीब 4-5 नावें हैं।
मछली खूब मिल जाती हैं। खरीददार भी तैयार मिलते हैं। तुरन्त बेच कर पैसा मिल जाता है।
मछली खरीददारों के साथ विष्णु
तुम अकेले थे। खरीददार बहुत सारे। कभी उनसे लड़ाई नहीं होती?
“लड़ाई काहे होगी। हां, उनकी आपस में कभी कभी मार हो जाती है कि कौन कितनी मछली लेगा। दाम जरूर वे पूरा नहीं देते। दस बीस रुपया रोक लेते हैं। बाद में वह मिल नहीं पाता।”
अपना काम तुम्हें पसन्द है?
“पसन्द का क्या; यही काम है। कोई बेलदारी (राज-मिस्त्री) का काम तो आता नहीं मुझे। यही ठीक है।”
मैने पूछा – अगर तुम्हारा पुनर्जन्म हो, तो तुम मल्लाह बनना चाहोगे?
वह सवाल नहीं समझता। मैं उससे दूसरी तरह से पूछता हूं – कभी ऊब नहीं होती अपने काम से? रोज नाव, रोज मछली… वह ऊब को भी समझ नहीं पाता – काम ही यही है। जाल बिछाना, मछली पकड़ना और बेचना। यही करना है।
पढ़ाई नहीं की विष्णु ने। जब मछली ही पकड़नी है तो पढ़ाई का क्या फायदा? बचपन से ही मछली पकड़ी है। जब नींद खुलती है, चला आता है नदी में मछली पकड़ने। गंगा उस पार सामने गांव है उसका – सिनहर। मल्लाहों के कई घर हैं सिनहर में।
अपने सवाल को और तरह से प्रस्तुत करता हूं मैं – जैसे तुम्हारी बिरादरी में लोग यह नहीं कहते कि क्या यही काम किये जा रहे हैं। बदलने के लिये यहां से दिल्ली-बम्बई क्यों नहीं चले जाते?
“हां, कुछ लोग ऐसा करते हैं। कई करते हैं। पर मैं तो यहीं रहूंगा। मछली पकड़ना ही ठीक है।”
मैं समझ गया कि विष्णु सही में हार्डकोर मछेरा है। गंगा-नाव -मछली ही उसका जीवन है और उसी में वह आत्मन्येवात्मनातुष्ट है। आज मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला है जो अपने काम में पूरी तरह लगा है। अन्यथा लोग किसी न किसी मुद्दे पर असंतुष्ट या अनमने ही दिखते हैं।
मैं समझ गया कि विष्णु सही में हार्डकोर मछेरा है। गंगा-नाव -मछली ही उसका जीवन है और उसी में वह आत्मन्येवात्मनातुष्ट है। आज मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला है जो अपने काम में पूरी तरह लगा है।
मुझे यह भी अहसास हुआ कि मल्लाह/नाविक/किशोर के स्तर पर बातचीत करने के लिये मुझे भाषा और भाव – दोनों में ही अपने आप को सुधारना होगा। किताबी वाक्य बहुत साथ नहीं देते। सम्प्रेषण के अपने अलग अलग स्तर हैं, अलग अलग आयाम…
नदी की बीच धारा में कुछ बह रहा था – वह क्या है?
“पंड़िया (भैंस का बच्चा) है। मर जाने पर किसी ने बहा दी है।”
गंगा मोक्षदायिनी हैं। पंड़िया को भी शायद मोक्ष के किसी कोने-अंतरे में जगह मिल जाये।
बात करते करते नदी का दूसरा किनारा आ गया। मैने पूछा – उतरा जाये यहां?
बात करते करते नदी का दूसरा किनारा आ गया। मैने पूछा – उतरा जाये यहां?
विष्णु का विचार था कि वह ठीक नहीं रहेगा। किनारे पर रेत में मिट्टी भी है। इसलिये फ़िसलन है यहां। फिर कभी आने पर किसी और जगह नाव लगायेगा उतरने के लिये। हम वापस चले। इस समय उसका मोबाइल बजा। उसके घर से फोन आया कि लौटते हुये एक पाव मछली लेता आये खाने के लिये। उसने कहा कि उसे नींद तो आ रही है, पर मुझे उतार कर एक पाव मछली का जुगाड़ करेगा। लेकर ही घर जायेगा।
अब वह कुछ खुल गया था मुझसे – “मुझे फ़िकर हो रही है कि उंगली में मछली का कांटा गड़ गया है और यह महीना भर परेशान करेगा। पक जाये तो ठीक है। खोदने पर निकल आयेगा। वर्ना कांटा ऐसा होता है कि निकालने की कोशिश करो तो और अन्दर धंसता जाता है। हांथ में दर्द बढ़ा तो नाव चलाना मुश्किल हो जायेगा।”
वापस मेरी तरफ के तट की ओर मैने वह स्थान बताया जहां अपनी साइकिल खड़ी कर रखी थी। उसी के पास वापसी में नाव ले आया वह। उसके नाव चलाने में दक्षता नजर आ रही थी। उतरने पर मैने उसे सौ रुपये दिये। कहा कि साठ के बदले सौ रख लो। सामान्य सा खुशी का भाव उसके चेहरे पर दिखा।
मैने उसका मोबाइल नम्बर मांगा। उसने अपना मोबाइल मेरी ओर बढ़ा दिया – नम्बर मुझे याद नहीं। आप इससे अपने नम्बर पर कॉल कर लें। उससे नम्बर आपके पास आ जायेगा।
घर देर से पंहुचा। बताने पर कि मल्लाह के साथ गंगा की सैर कर आ रहा हूं तो पत्नीजी ने भी भविष्य में ऐसी सैर की इच्छा जताई। शाम के समय विष्णु को मोबाइल पर फोन किया तो उसने बताया कि शाम पांच बजे वह फिर नाव पर आ गया है। दो तीन घण्टा मछली पकड़ेगा।