पहले का ग्रामीण रहन सहन और प्रसन्नता

गांवदेहात में घूमते हुये जब मुझे अपनी या उससे अधिक उम्र के लोग मिलते हैं तो उनसे बातचीत करने में मेरा एक प्रमुख विषय होता है कि उनके बचपन से अब में ग्रामीण रहन सहन में कितना और कैसा परिवर्तन हुआ है। अलग अलग लोग अलग अलग प्रतिक्रिया करते हैं। मुख्यत: दलित बस्ती के लोगों की प्रतिक्रिया होती है कि पहले से अब उनकी दशा में बहुत सुधार हुआ है।

अन्य वर्गों के लोग सामान्यत: कहते हैं कि पहले गरीबी थी, पैसा कम था, मेहनत ज्यादा करनी पड़ती थी, पर लोग ज्यादा सुखी थे। आपस में मेलजोल ज्यादा था। हंसी-खुशी ज्यादा थी। ईर्ष्या द्वेष कम था।

कल अगियाबीर में गुन्नीलाल पाण्डेय जी से मुलाकात हुई। उनके साथ रिटायर्ड प्रिंसिपल साहब – प्रेमनारायण पाण्डेय जी भी थे। दोनो सज्जन सत्तर के आरपार हैं। दोनो के पास पुराने और नये जमाने की तुलना करने के लिये पर्याप्त अनुभव-आयुध है।

प्रेम नारायण मिश्र (बायें) और गुन्नीलाल पाण्डेय

गुन्नी पांंड़े ने मेरे अनुरोध पर अपनी छत पर चढ़ी लौकी से तीन लौकियां मुझे दी थीं। जब बात पुराने नये रहन सहन की चली तो गुन्नी बोले – “हेया देखअ; पहिले अनाज मोट रहा। बेर्रा, जवा, बजरी, सांवा मुख्य अनाज थे। गेंहू तो किसी अतिथि के आने पर या किसी भोज में मिलता था। पर उस भोजन में ताकत थी। लोग पचा लेते थे और काम भी खूब करते थे।

“आजकल सब्जी भाजी रोज बनती है। तब यह यदा कदा मिलने वाली चीज थी। बाजार से सब्जी तो कभी आती नहीं थी। घर के आसपास जो मिल जाये, वही शाक मिलता था। और तब ही नहीं, युधिष्ठिर ने भी यक्ष-संवाद में कहा है कि पांचवे छठे दिन सब्जी बना करती थी।”

मेरे लिये यह एक नयी बात थी। मैंने पूछा – “अच्छा? युधिष्ठिर ने क्या कहा?”

यक्ष – युधिष्ठिर संवाद

गुन्नीलाल जी ने महाभारत का एक श्लोक सुनाया। उन्होने बताया कि अरण्य पर्व में यक्ष-युधिष्ठिर सम्वाद है। उसमें यक्ष का एक प्रश्न है –

यक्ष उवाच – को मोदते?

युधिष्ठिर उवाच – पंचमेSहनि षष्ठे वा, शाकम पचति स्वे गृहे। अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते॥

इसका हिंदी अनुवाद मैंने अंतरजाल से उतारा –

यक्ष प्रश्न : कौन व्यक्ति आनंदित या सुखी है?

युधिष्ठिर उत्तरः हे जलचर (जलाशय में निवास करने वाले यक्ष), जो व्यक्ति पांचवें-छठे दिन ही सही, अपने घर में शाक (सब्जी) पकाकर खाता है, जिस पर किसी का ऋण नहीं है और जिसे परदेस में नहीं रहना पड़ता है, वही मुदित-सुखी है।

गुन्नीलाल जी ने अपने शब्दों में स्पष्ट किया कि शाक-सब्जी रोज बनने की चीज नहीं थी; महाभारत काल में भी नहीं। सम्पन्नता आज के अर्थों में नहीं थी। पैसा नहीं था। लोग अपनी आवश्यकतायें भी कम रखते थे। इसलिये उनपर कर्जा भी नहीं हुआ करता था। गांगेय क्षेत्र में लोग बहुत यात्रा भी नहीं करते थे। परदेस में जाने रहने की न प्रथा थी, न आवश्यकता। इस प्रकार लोग आज की अपेक्षा अधिक आनंदित और सुखी थे।

राजबली विश्वकर्मा

लगभग ऐसी ही बात मुझे राजबली विश्वकर्मा ने भी बताई थी। उन्होने तो बारह किलोमीटर दूर अपनी किराना की दुकान खोली थी, जिसे उनके बाबा बंद करा कर उन्हें गांव वापस ले आये थे। उनके अनुसार भी खाने को मोटा अन्न ही मिलता था, जिसमें आज की बजाय ज्यादा ताकत थी। “आज अनाज उगने में पहले से आधा समय लेता है। इस लिये उसमें स्वाद भी नहीं होता और ताकत भी आधा ही होती है उसमें।”

राजबली के अनुसार भी उस समय लोग ज्यादा प्रसन्न रहा करते थे। “अब तो मोबाइल में ही लगे रहते हैं। दो घर आगे वाले से महीनों बीत जाते हैं, बात ही नहीं होती।”

अपने बचपन की याद कर राजबली बताते हैं कि उन्हें कोई कपड़ा छ साल की उम्र तक नहीं सिलाया गया। पुरानी धोती आधी फाड़ कर उसी की भगई बनाई जाती थी उनके लिये। वही पहने रहते थे। ऊपर बदन उघार ही रहता था। सर्दी में पुआल और एक लोई-दुशाला में दुबके रह कर गुजार देते थे।

ये साठ की उम्र पार सज्जन जो बताते हैं; उसके अनुसार पहले पैसा नहीं था, चीजें नहीं थीं। अभाव बहुत ही ज्यादा था; पर प्रसन्नता बहुत थी।

पता नहीं आज लोग इससे सहमत होंगे या नहीं होंगे; पर इन सीनियर सिटिजन लोगों ने जो बताया, वह तो यही है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

11 thoughts on “पहले का ग्रामीण रहन सहन और प्रसन्नता

  1. मेरे विचार से पुराने ज़माने को अच्छा कहना nostelgia की देन होती है, जब पीछे मुड़ के देखने पर सब सुहाना ही दीखता है, पर जब हम उस जमाने से गुजर रहे थे तब “ओह , आज मैं कितनी खुश हूँ” वाला भाव रहा हो , ऐसा नहीं याद आता! जैसे आज पुराना स्कूल और उसकी बातें याद करके ही कितना अच्छा लगता हो, पर मुझे स्कूल की रोज़ की stress, टीचरों का बात बात पे मारना, पढाई और इम्तहानों की मशक्कत अब भी नहीं भूलती। स्कूल का समय जैसा स्वर्णिम काल अब लगता है, तब नहीं लगता था जब उस से गुज़र रहे थे! तब तो लगता था सब शक्ति बड़ों के हाथ में होती है सो बडा ही होना चाहते थे जल्दी से जल्दी ताकि कुछ अपनी मर्जी का कर सकें!

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    1. गांव का नोस्टॉल्जिया तो मुझपर अब भी हावी है – पांच साल यहां रहने के बाद भी। साइकिल भ्रमण, नदी, झोंपड़ी और उगता सूरज – सब मैस्मराइज करता है! :-)

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      1. ये तो है! गाँव जाना बचपन में सजा से काम नहीं लगता था पर अब छूट गया है तो वहां की एक एक बात याद आती है. Nostelgia एक जबरदस्त emotion है. एक दृश्य, एक नाचीज़ सी वस्तु, एक जानी पहचानी खुश्बू ही पुराने किवाड़ खोल देती है और हम निकल पड़ते हैं उन गलियों में मानसिक रूप से टहलने। ये मेरे सब चचेरे ममेरे भाइयों बहनों का भी भाव है. आपका ब्लॉग तभी तो इतना अच्छा लगता है!

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  2. सीनियर सिटिजन तो by default पुराने ज़माने को ही अच्छा मानते हैं. पर ऐतिहासिक उपन्यास और कहानियां पढ़ कर ऐसा नहीं लगता कि पहले के लोग अधिक सुखी थे. ऊँच – नीच का भेद भाव अधिक था, राजनितिक उथल पुथल ज्यादा थी, लोग अपने राजा/नवाब और उसके सिपाहियों से भी उतना ही डरते थे जितने आक्रमणकारियों से. मेरे ससुर जी बताते हैं की राजस्थान में कुछ गिने चुने प्रभावशाली लोगों को छोड़ कर आम जनता भय में ही जीती थी. मेरी दादी, जो दिल्ली की थीं, बताती थीं कि लड़कियों को उठवा लेना आम बात थी. अराजकता बहुत थी. गाँव में ईर्ष्या, वैमनस्य, लड़ाई झगडे मैंने भी अपने जीवन काल में बहुत देखे हैं. लोगों, ख़ास कर स्त्रियों पर रूढ़िवादिता के बहुत बंधन थे. मैंने तो ये देखा है की मेरे दादी/नानी से मेरी माँ का जीवन बेहतर था और मेरी माँ से मेरा। यही बात मेरे भाई के सन्दर्भ में भी सही है.

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    1. आपने एक नया कोण दिया अपनी टिप्पणी में। धन्यवाद।
      असल में मैंने गांवदेहात में स्त्रियों से बातचीत नहीं की। उनकी दशा तो वैसी ही लगती है, जैसी आपने बताई। वरन आज भी गांव में उनकी दशा – विशेषकर सवर्णों में – बहुत खराब लगती है आज के समय में भी। उनके जीवन में आज भी बहुत घुटन है। और पुरुषों की तुलना में उन्हें आर्थिक, सामाजिक स्वतंत्रता बहुत कम है। जो गांव से निकल कर शहर गयी हैं, वे निश्चय ही बेहतर हैं।
      स्त्रियों में कुपोषण भी अपेक्षाकृत ज्यादा है।

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      1. ठीक कहते हैं आप. अब वेश भूषा को ही लीजिये, पुरुषों को धोती असुविधाजनक लगी तो पजामा, फिर पैंट, फिर जीन्स, और फिर बरमूडा तक अपना लिया (शहरों में जरूर, गावों में भी धोती तो बड़े बूढ़े ही पहनते हैं) पर स्त्रियों को, शहरों (महानगर नहीं) में भी, साड़ी से आगे जाने नहीं दिया गया. थोड़ी बहुत आज़ादी है भी तो वो विवाह के साथ समाप्त हो जाती है. गावों में तो अभी भी वही पुराना लहंगा और घूंघट! culture और परंपरा का टोकरा स्त्रियाँ ही ढो रही हैं!

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        1. मेरी पत्नीजी आपसे मेरी अपेक्षा अधिक सहमत हैं! वे इस ब्लॉग की एक को-ऑथर हैं, और आपके कहे पर अपने अनुभव को बताते हुये पोस्ट लिखने का मन बना रही हैं। पुरुष प्रधान गांव में उनकी नानी और माँ के कटु अनुभव हैं। उनके अपने भी हैं। गांव में स्त्रियों की दशा तो आज भी दयनीय लगती है। आपकी टिप्पणियों ने रीता पाण्डेय को सोचने को बाध्य किया है। धन्यवाद!

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