घाघ और भड्डरी पर सन 1931 में रामनरेश त्रिपाठी जी ने संकलन प्रकाशित किया। उसके मुखपृष्ठ पर ही यह पद है – उत्तम खेती मध्यम बान; निखिद चाकरी भीख निदान।
इण्टर्नेट-आर्काइव-डॉट-ऑर्ग पर उपलब्ध 255 पेज की इस पुस्तक के प्रारम्भ में ही स्पष्ट हो जाता है कि घाघ हुमायूँ और अकबर के समकालीन थे। वे छपरा के रहने वाले थे – देवकली के दूबे। किसी कारण वश (कहा है कि अपनी पुत्रवधू से उनकी कवित्त रचनाओं पर नोकझोंक होते रहने के कारण) वे अपनी ससुराल कन्नौज आ कर रहने लगे।

घाघ केवल गांव में रहने वाले अनाम से जन कवि नहीं थे। वे हुमायूं और अकबर से मिले थे। अकबर ने प्रसन्न हो कर उन्हे कई गांव और चौधरी की उपधि दी थी। उसके साथ ही घाघ ने कन्नौज के पास “अकबराबाद सराय घाघ” नामक गांव बसाया। जो कालांतर में “चौधरी सराय” कहलाया। सन 1931 की पुस्तक में त्रिपाठी जी ने लिखा है कि गांव का नाम सरकारी कागजात में “सराय घाघ” ही है।
घाघ का कहना बढ़िया था। घाघ का युग उनके “अकबराबाद सराय घाघ” बसाने से ले कर आज के जमाने में सन 1960 तक चला। अब घाघ2.0 या घाघ3.0 संस्करण की आवश्यकता है।
इस पुस्तक के प्रारम्भ में दी गयी घाघ की संक्षिप्त जीवनी से घाघ के विषय में कई जिज्ञासायें शांत हो जाती हैं। बहरहाल घाघ की उक्त कहावत के कारण ही मैने घाघ के बारे में यह जानने का उपक्रम किया। अन्यथा घाघ को मैं मिथक चरित्र ही मानता था।
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मेरे तरह वानप्रस्थाश्रम में जीवन यापन कर रहे दो गांवदेहात के मित्र – रवींद्रनाथ दुबे और गुन्नीलाल पाण्डेय पास बैठे थे रवींद्रनाथ जी के डेरा पर। वे दोनों अपने जमाने में किसानी (जमींदारी) के रुआब रुतबे की बातें बता रहे थे। उस समय नौकरी पाना आसान था। एक सादे कागज पर “चुटका” लिखवा कर प्राइमरी की मास्टरी मिल जाया करती थी। पर तब कहावत हुआ करती थी – “करें मास्टरी दुई जने खाईं लरिका होई ननियऊरे जाईं“। नौकरी आसानी से मिल जरूर जाती थी, पर नौकरी की इज्जत वह नहीं थी जो आज है।

लिहाजा जमींदारी किसानी की ऐंठ में रहने वाले कई लोगों ने नौकरी करना अपमान की बात समझी। पर; बकौल गुन्नीलाल जी, पास के लक्षमणा और चौबेपुर के कई लोग मास्टरी पा गये। आज वे रिटायर हो कर अपनी पेंशन पर आनंद से रह रहे हैं और उनकी अगली पीढ़ियाँ भी उसी की बदौलत सम्पन्न हो गयी हैं। चौबेपुर गांव को तो लोग उसकी सम्पन्नता के आधार पर मिनी-अमेरिका कहते हैं; यद्यपि थोड़ी सी जमीन पर ही ढेरों घर बसे हैं। … उसके विपरीत, जमींदारों की अकड़ ढीली होती गयी है।
रवींद्रनाथ जी ने बताया कि उस समय घाघ की कहावत अनुसार खेती का सब से ज्यादा रुतबा था। लोग नौकरी को अपने आत्मसम्मान और अपनी ‘फ्रीडम’ में बाधक मानते थे। बहुत नौकरी पाने पर भी नौकरी करने गये नहीं या जा कर कुछ समय में उकता कर वापस चले आये। उस समय खेती के बाद वाणिज्य दूसरे नम्बर पर आता था। उसके बाद नौकरी और अंत में भिक्षा। अब जमाना बदल गया है। अब खेती रिम्यूनरेटिव नहीं रही। जमींदार जमीन बेच रहे हैं। खुद खेती करने की बजाय एब्सेण्टी लैण्डलॉर्डिज्म का सहारा ले रहे हैं। मुख्य उद्यम के रूप में या तो नौकरी तलाश रहे हैं या वाणिज्य में जोर अजमाईश कर रहे है। वह सब न होने पर नेतागिरी में घुसने का प्रयास कर रहे हैं – जो हाई रिस्क हाई गेन का फील्ड है। राजनीति में अब गांव पंचायत से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक सम्भावनायें हैं।
घाघ का कहना बढ़िया था। घाघ का युग उनके “अकबराबाद सराय घाघ” बसाने से ले कर आज के जमाने में सन 1960 तक चला। अब घाघ2.0 या घाघ3.0 संस्करण की आवश्यकता है।
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फिलहाल आप इण्टर्नेट आर्काइव के उक्त लिंक से रामनरेश त्रिपाठी जी की सन 1931 की पुस्तक को डाउनलोड कर घाघ और भड्डरी के कवित्त का आनंद ले सकते हैं। मैंने तो पुस्तक को किण्डल पर सहेज लिया है। और किंडल को लैंडस्केप मोड में पढ़ने पर किताब के अक्षर अधिक मोटे और सुपाठ्य दिखते हैं! 😆
हम भी अभी डाउनलोड करते हैं फिर पढ़ते हैं, धन्यवाद।
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I have grown up listening ” Ghagh Kavi” kavita on Agriculture, Weather, flood ,
My gradfather , grandmother or seniors from my villages have some verse by Ghagh for any occassions –
1. Akhad Sawna Pachhia Bahe , Sik Dole Mahi bhare ( if it western wind during Ashadh and Sawan Months , it will heavy rain which will fill up Lake and ponds )
2. Jau Puru Purwaia Pawe , Sukhal Nadi Nav Chalawe ( if it blows Purwai during the ” Puru Nakshatra ” , it will casue heavy rain to overflow even the dry rivers )
The link to archive, I thank you for this .
I will recite few poems from the book to surprise my wife and son :::))))
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बहुत बढ़िया! घाघ और भड्डरी – दोनों मिलेंगे वहां। 😊
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जब से डाउनलोड की है, बस पढ़े जा रहे हैं।
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😊
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मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अन्तर्दृष्टि से युक्त। जाकर पढ़ते हैं।
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पुस्तक बहुत बढ़िया है.
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