कबाड़ कलेक्शन केंद्र

साल भर में दो किलोमीटर की परिधि में मैंने दो नये कबाड़ कलेक्शन केंद्र खुलते पाया है। सवेरे सवेरे कबाड़ बीनक बच्चे दिख गये। पहले नहीं दिखते थे। उनके साथ दो कुकुर भी चल रहे थे। पैरों में चप्पल नहीं। मास्क जैसी चीज की अपेक्षा क्या की जाये?!

कबाड़ बीनने वाले बच्चे

कबाड़ी वाले सवेरे सवेरे ही चक्कर लगाने लगते हैं। जो कहावत है कि Early bird gets the worm, उसी की तर्ज पर कहा जा सकता है ‘अर्ली कबाड़ी गेट्स द कबाड़’।


मेरी ब्लॉगिंग के शुरुआती साल की एक पोस्ट है – चिंदियाँ बीनने वाला। तेरह साल हो गये उसे लिखे/पब्लिश किये। वह शहरी माहौल की पोस्ट थी। कृपया देखने का कष्ट करें।


अच्छा है कि गांवदेहात में भी कबाड़ बढ़ रहा है। समाज रूरल से रूरर्बन (rural-urban) बन रहा है। पर कहीं कहीं यह कचोटने भी लगता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कुछ भी फालतू नहीं हुआ करता था। कपड़ा-साड़ी घिसे तो उनकी कथरी-लेवा बन जाते थे। ज्यादा ही तार तार हो गये तो उनसे झाड़न या पोछा बन जाता था। उसका चलन अब कम हो गया है। महिलायें कथरी-लेवा सिलते नहीं दिखतीं।

अब प्लास्टिक आने से यह इनहाउस रीसाइकलिंग खत्म हो गया है। अब बच्चे – कबाड़ बीनक बच्चे नहीं, घरों के सामान्य बच्चे – प्लास्टिक की बोतल बीन कर कबाड़ी वाले को देते हैं और बदले में वह उन्हे एक पुपुली (चावल का कुरकुरे नुमा खाद्य) पकड़ा देता है।

प्लास्टिक का कबाड़ बढ़ रहा है। सिंगल यूज प्लास्टिक गड़ही-तालाबों को बरबाद कर रहा है। पानी नहाने धोने और पीने लायक नहीं बचा। अब गांवों में भी बीस लीटर के पानी के जार ले कर आती पिकअप गाड़ियाँ सवेरे सवेरे चक्कर लगाती दिखती हैं। थर्मोकोल के दोना पत्तल इधर उधर बिखरे दिखते हैं और अंतत: उन्हे कोई आग लगाता है। धुंये का प्रदूषण गेंहू की कटाई और थ्रेसिंग की धूल में घुल मिल जाता है।

गांव उतना जीवंत नहीं रहा, जितना कल्पना में था। पर फिर भी बेहतर है। बहरहाल कबाड़ बीनक बच्चे, कबाड़ी साइकिल वाले और कबाड़ कलेक्शन केंद्र भविष्य में बढ़ेंगे। अर्थव्यवस्था दहाई के अंक में आगे बढ़ेगी तो कबाड़ तो होगा ही!

कबाड़ कलेक्शन केंद्र

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “कबाड़ कलेक्शन केंद्र

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  2. गांवों की सभ्यता संस्कृति भी आधुनिक और सुविधा भोगी हो रही है, प्लास्टिक निर्मित वस्तुओं का उपयोग उपभोग सुविधाजनक व सरल है धोने पोछने से मुक्ति मिलती है।
    बस डिस्पोजल की समस्या है, जिसके लिए उपभोक्ताओं को इसकी डिस्पोजल की उचित संस्कृति सीखना चाहिए और गली, सड़क, तालाब, पोखर आदि जगहों पर फेकने की प्रवृत्ति पर रोक लगा कर इन्हें इन कबाड़ गोदामों तक पहुंचाना चाहिए।

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    1. यह सब करना पंचायती राज का पार्ट है. पर कोई ग्राम प्रधान के लिए यह प्राथमिकता ही नहीं है.

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