मैं बाजार जा रहा था तो रेलवे फाटक के पास एक दो फिट लम्बा लकड़ी का बक्सा दिखा जिसपर लिखा था रस्सी बनाने की मशीन। मैंने अपने वाहन चालक अशोक पण्डित से पूछा – वह क्या था अशोक?
अशोक ने जवाब दिया, “ऊ लाल लाल मिठाई बनवई क मशीन अहई।”
मैंने कहा – “अच्छा बुढ़िया का काता बनाने की मशीन? जरा गाड़ी मोड़ो। देखें कि उस लकड़ी के डिब्बे से कैसे बनाता है। उसपर तो रस्सी बनाना लिखा था?”
अशोक ने वाहन मोड़ कर रेलवे फाटक पर वापस पंहुचाया। पर वहां जो दिखा वह तो आश्चर्य जनक चीज निकली। गांवदेहात की इंवेन्शन करने की एक शानदार मिसाल! मैं तो गदगद हो गया।

गांव में रस्सी और मोटी रस्सी यानी गाय-गोरू बांधने का पगहा की बहुत जरूरत होती है। पहले लोग सनई की खेती करते थे। सनई यानी पटसन। वह निचली जमीन में उगता था। फिर उसके तनों को काट कर पत्थर पर पीटा जाता था। उससे जो रेशे निकलते थे उससे किसान खाली समय में चरखी चला कर रस्सी बुनते थे। कालखण्ड बदला तो पटसन या सनई का स्थान प्लास्टिक ने ले लिया। नाईलोन की रस्सियां बाजार में आ गयीं। अब तो गांवदेहात की खटिया भी नाइलोन मिश्रित रस्सी से बुनने की प्रथा चल गयी है। जूट या सन की बुनाई दुगनी तिगुनी मंहगी पड़ती है।
गांवदेहात के किफायती लोग घर में अनुपयोगी वस्तुओं का बहुत प्रयोग करते हैं। सिवाय सिंगल यूज प्लास्टिक और थर्मोकोल के, बाकी सभी चीजें किसी न किसी तरह काम में आ जाती हैं। प्लास्टिक तो कबाड़ी के हाथ चला जाता है। और गांवदेहात में कबड़ियों तथा कबाड़ की दुकानों की भरमार हो गयी है। इसके अलावा गांव के बच्चे स्कूल नहीं जाते तो दिन भर प्लास्टिक की बोतलें बीन कर उसे कबाड़ी को देते हैं और बदले में उससे पुपली या टॉफी-कम्पट लेते हैं।
गांव बहुत सशक्त रीसाइकलिंग और सर्क्युलर अर्थव्यवस्था के मॉडल पर काम करता है। ज्यादा कार्बन फुटप्रिण्ट नहीं छोड़ता।
लोगों के घरों की पुरानी धोतियां या साड़ियां; कथरी, लेवा या रस्सी बनाने के काम आती हैं। कथरी सीने वाली महिलायें तो अब कम होती जा रही हैं; पर रस्सी जरूर घर घर में बनाई जाती है। वह बहुत सुघड़ या मजबूत नहीं होती पर कामचलाऊ तो होती ही है।

यहां जो मोटरसाइकिल पर लदी रस्सी बुनने की मशीन दिखी, वह बुढ़िया का काता बनाने वाली नहीं, बाकायदा रस्सी बुनने की मशीन थी। उस बक्से में तीन हुक बाहर निकले थे जो बक्से के अंदर गियर सिस्टम से घूमते थे। बक्से के दूसरी ओर खड़ा बच्चा एक हेण्डल से बक्से के अंदर एक चक्का घुमाता था और रस्सी बुनने वाला मुख्य कारीगर उन हुकों में साड़ी के तीन लम्बे टुकड़े फंसा कर उनमें एक साथ बल (घुमा) देता था।

बड़ी तेजी से वे टुकड़े रस्सी में तब्दील हो जाते थे। फिर तीनों रस्सियों को एक लकड़ी के गुटके से नेह्वीगेट करते हुये तीनों घूमते गीयर सिस्टम से घूर्णन देकर एक मोटी रस्सी बना देता था। सब कुछ करने में दो चार मिनट से ज्यादा समय नहीं लगता था।

लकड़ी के गुटके को मैंने ध्यान से देखा। वह हाँथ की ग्रिप में आने वाले बेलनाकार आकार का था। उसमें तीन रस्सियों को साधने के लिये तीन खांचे बने थे। इसको उसने नाम दिया था – कलियुग! मानो वह रस्सी बेलने वाला गुटका कलियुग की ही आवश्यकता हो। भारत की ग्रामीण और सर्क्युलर अर्थव्यवस्था का प्रतीक जैसा है यह कलियुग!

मोटर साइकिल पर लदी वह गियर सिस्टम वाली रस्सी बुनने की मशीन, हैण्डल घुमाने वाला बच्चा और रस्सी बुनने वाला वयस्क – ये तीन मुख्य घटक थे। इन तीनों के योग से कितनी शानदार रस्सी बनाने की मोबाइल दुकान बन गयी थी।
इस नये आविष्कार से आमदनी भी उसकी अच्छी होती होगी, तभी वह रस्सी बुनने वाला साइकिल की बजाय मोटरसाइकिल की हैसियत रखता था। मोटर साइकिल की सहायता से वह लम्बे इलाके में रस्सी बुनने का व्यवसाय कर सकता था।

उसने अपना नाम बताया – अजय। जातिसूचक नाम न उसने बताया न मैंने पूछा। महामलपुर का वह रहने वाला है। पास के मिर्जापुर जिले का एक बड़ा गांव है महामलपुर। अजय ने ग्रामीण आत्मनिर्भरता का जो जंतर बनाया है; वह गांधीजी के जमाने में होता और अजय बापू से मिला होता तो गांधीजी खूब खुश हुये होते। चरखे और खादी जैसा ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सशक्त सिम्बल है यह रस्सी बनाने की मशीन।

खैर अब गांधी का नहीं, नरेंद्र मोदी का जमाना है। पर आत्मनिर्भरता का नारा देने वाले मोदीजी को भी अजय का यह उपकरण जरूर पसंद आयेगा; ऐसा मुझे लगता है।
ये रोचक मशीन है … कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है… यहाँ चरित्रार्थ होते दिखा है…आभार…..
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आपने जैसा चाहा, मैंने उसी अनुसार आपका कमेंट अपडेट कर दिया है.
और मुझे तो वास्तव में रोचक लगी – मशीन भी और उस व्यक्ति की मार्केटिंग भी!
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आपका पाडकास्टी हर पोस्ट के साथ निखर कर आ रही है। हमारे गाँवों की ओर कपड़े की इस रस्सी से दरी बनती है और चलती भी है। मात्र १५० रु की। गाँव के लोग जीना जानते हैं और उसके उपाय ढूढ़ लेते हैं। शहर के बच्चे तो बस पढ़ने में ही अपना भविष्य पाने की कामना करते हैं।
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वाह, यह रस्सियाँ दरी बनाने के लिए भी काम आ सकती है यहां अगर दरी बीनने वाले हों तो अजय को वैसी ढेरों रस्सियाँ एक साथ बनाने वाली मशीन इजाद करने का अवसर मिल सके.
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