28 अक्तूबर 21, रात्रि –
छतीस किलोमीटर चल कर प्रेमसागर इंदौर से चोरल पंहुचे। सवेरे पांच बजे निकल कर शाम तीन-चार बजे के बीच वे चोरल रेस्ट हाउस में आ गये। मालवा के पठार के किनारे से घाटी में ऊपर नीचे चलते हुये करीब 12-14 किलोमीटर की यात्रा की। गूगल मैप के अनुसार पठार की ऊंचाई 614मीटर तक है और घाटी 58मीटर की नीचाई तक होती है। विंध्य के पहाड़ इस खण्ड में बहुत ऊंचे नहीं हैं पर धरती की असमानता, जंगल और नदियां-प्रपात इलाके को रमणीय बनाते हैं। वर्षा के समय तो हरियाली देखते ही बनती है और अभी तो वर्षा का मौसम खत्म ही हुआ है। सब अच्छा ही रहा होगा प्रेमसागर के लिये। उन्होने यात्रा के चित्र अच्छे भेजे हैं। देख कर पूरा अहसस हो जाता है यात्रा मार्ग का।
एक जगह पर – पहाड़ और घाटी शुरू होने के पहले ही प्रेमसागर को एक खुली बैलगाड़ी दिखी। बैल स्वस्थ थे और अच्छी कद काठी के। आजकल जिनके पास बैल हैं भी वे उनकी ऐसी सेहत के साथ नहीं रखते दीखते। बैलगाड़ी पर ट्यूब-वेल के पाइप लदे थे। पुरातन यातायात साधन से नये जमाने की सिंचाई तकनीक का सामन ढोया जा रहा था। 🙂

सवेरे उनसे बात की तो वे बारह किलोमीटर चल चुके थे। उसके बाद लोकेशन शेयर ऑन किया तो लगा कि चौदह किलोमीटर चल चुके हैं। तेजी से आगे बढ़ रहे थे। बारह बजे के पहले वे आई आई टी इंदौर के केम्पस के सामने से गुजर रहे थे। अर्थात दो तिहाई यात्रा सम्पन्न कर चुके थे।

इसके बाद उन्हें केवल 12 किलोमीटर चलना था। आगे जंगल थे, ऊंचाई-नीचाई के घुमावदार रास्ते, अंधे मोड़ और चट्टानें। नदी – चोरल नदी – कई बार घूमती हुई सामने से या दूर दिखती गुजरती थी। प्रवीण दुबे जी से उनकी बात हो चुकी थी। उन्होने वनों के वृक्षों को देखने चीन्हने के लिये कहा था।
चोरल और उसके आगे निमाड़ के वनों में जैव विविधता काफी है। कई प्रकार के वृक्षों के बारे में प्रवीण बताते हैं। सागौन यहां बहुतायत से है। पर सागौन यहां पहले से ही है। उन्हें सयास लकड़ी के जंगल बनाने की दृष्टि से नहीं लगाया गया है। तेंदू पत्ता (Diospyros melanoxylon) इन जंगलों में है पर तेंदू पत्ता, जिसका प्रयोग बीड़ी बनाने में किया जाता है; के पौधों को लोग बढ़ने नहीं देते। छोटे पौधे/पेड़ की पत्तियां चौड़ी होती हैं। उन्हे चुन कर बेचा जाता है। तेंदू की पत्ती की उपयोगिता ही उनके वनों की वृद्धि में बाधक है। अन्यथा इसके वृक्ष भी बड़े होते हैं और अगर सघन लगे हैं तो उनकी छतरी ज्यादा नहीं बनती। अन्यथा वे घने होते हैं – सगौन की तरह सीधे बढ़ने वाले नहीं। … इन जंगलों में आग लगना (या जानबूझ कर लगाया जाना) वन प्रबंधन की बड़ी समस्या है।

मैं प्रवीण जी से अच्छी जानकारी वाली, वन की विविधता या प्रबंधन के मुद्दों को डील करती हुई पुस्तक की बात करता हूं। वे मुझे शोध पेपर्स की बात करते हैं। किसी भारतीय वन अधिकारी ने अपने अच्छे मेमॉयर्स लिखे हैं? मैंने देखे नहीं। पर प्रवीण जी से दस बीस मिनट की बातचीत के बाद – और यह हर बार होता है – मैं ऐसी पुस्तक की तलाश की सोचता हूं। भारतीय लोग अभी भी पुस्तक लेखन के मामले में ऋग्वैदिक मानसिकता वाले हैं – श्रुति और स्मृति के युग के। पुस्तक लिखना या ट्रेवलॉग लिखना उनके भेजे में कम ही आता है।
मैं प्रेमसागर को चोरल नदी के घुमाव और सौंदर्य को कैमरे में पकड़ने के लिये अनुरोध करता हूं। मैं यह भी कहता हूं कि धूप में जब जल झिलमिलाता है या दूर उसकी पतली जल रेखा चमकती है, तो उसका चित्र लेने का प्रयास करें। वह सब ट्रेन से गुजरते हुये और इंजन या ब्रेकवान या सैलून की रीयर विण्डो (जिससे पूरा दृश्य दिखता है) से मैंने निहार रखा है। पर वह प्रेमसागार अपनी 30-35 किलो की कांवर साधे कुछ कर पाते हैं और बहुत कुछ नहीं भी। बहरहल जो प्रयास उन्होने किये हैं वे भी प्रशंसनीय हैं।
प्रेमसागर की प्रशंसा मैंने कम ही की है यात्रा वृत्तांत में। वह मेरा शायद लेखन दोष है। एक सरल व्यक्ति पर मैंने अपनी कठिन अपेक्षायें लाद दी हैं। (जाने क्योंं) उस व्यक्ति ने भरसक प्रयास किया है अपेक्षा पर खरे उतरने का। यूं देखें तो मैंने प्रेमसागर के लिये कुछ विशेष नहीं किया है। सिवाय शुभेच्छा व्यक्त करने के। पर शायद सुबह शाम हालचाल पूछना ही एकाकी यात्री के लिये बड़ी चीज हो। मैं बार बार सोचता हूं कि उनकी यात्रा को मैं और असम्पृक्त भाव से देखूं और उसमें अपने को अभिव्यक्त करने का अधिकधिक प्रयास करूं। ऑफ्टरऑल उनकी कांवर यात्रा को देख कर मेरे अपने मन में बहुत कुछ चलता है। उसका चवन्नी भर ही लेखन में आता है। लेकिन लोग प्रेमसागर को पढ़ना चाहते हैं, तुम्हें नहीं पण्डित ज्ञानदत्त! वैसे, यह लोगों की मांग और “लोग क्या सोचेंगे” की फिक्र तुम कब से करने लगे। … 😆
मैं कई बार सोचता हूं कि प्रेमसागर के इनपुट्स के आधार पर अपने मन में जो चलता है उसको ज्यादा से ज्यादा लिखूं। पर नहीं करता। शायद उसके पीछे और कोई कारण नहीं – लेखन आलस्य भर है।

यात्रा की समाप्ति के कुछ पहले एक गांव पड़ता है – बाईगांव। या बाईग्राम। वहां एक नवग्रह मंदिर है। पुराना नहीं है। मारवाड़ जंक्शन के किसी मीणा दम्पति ने इसे बनवाया था सन 2002 में। उसके कई चित्र प्रेमसागर ने खींचे और भेजे हैं। नवग्रहों में मुख्यत: शनि हैं। काली तेल में लिपटी प्रतिमा। उनको चमकदार नीला वस्त्र पहनाया हुआ है। उनके वाहन के रूप में एक बड़ा चौपाया जानवर है। शायद भैंसा। वैसे शनि की सवारी तो शायद काला कौव्वा या काला कुकुर है। या हो सकता है काला भैंसा ही हो। बहरहाल शनि महराज के बारे में मेरी जानकारी (लगभग) शून्य है। शनि मेरे हिसाब से मनुष्य के भय और अनिष्ट की आशंका से उपजे देवता हैं। प्रेमसागर ने इसके पहले भी कई स्थानों पर शनि महराज के मंदिर देख कर चित्र भेजे हैं। मैं समझ नहीं पाता कि लोग शनि की वक्रदृष्टि, अढैय्या या साढ़ेसाती, काला तिल और तिल के तेल में पुती चमकती उनकी प्रतिमा के प्रति इतने ऑब्सेस्ड क्यूं रहते हैं। शायद अनजाने का भय और अनिष्ट की आशंका भारतीय जनमानस पर गहरे से पैंठ गयी है – वह क्रोमोजोम्स या गुणसूत्रों तक में घुसी हुई है!

पत्रिका के एक लेख में मिला कि सुरेंद्र सिंह मीणा का ससुराल है बाईग्राम। मारवाड़ जंक्शन के मीणा जी चोरल की मधुबाला जी से शादी किये! शायद प्रेम विवाह रहा हो। वे यहां एक धर्मशाला बनवाना चाहते थे ॐकारेश्वर जाने वाले कांवर यात्रियों के लिये पर नीव की खुदाई के समय शनि महराज की प्रतिमा मिल गयी। सो धर्मशाला की बजाय यहां शनि और नवग्रह मंदिर बन गया। यहां कांवर यात्रियों के लिये भी व्यवस्था होती है। … मुझे पूरा प्रकरण रोचक लगा। अच्छा हुआ कि प्रेमसागर ने वे चित्र मुझे भेजे। यह सब नेट पर खंगालने में मेरे एक दो घण्टे लग गये! इतनी जानकारी खंगालने के बावजूद, शनि इतने महत्वपूर्ण देवता क्यूं हैं और उन्हें न्याय देने वाला देवता क्यों माना जाता है, वह मेरे मन में अभी भी अनुत्तरित प्रश्न है।
पत्रिका के लेख में कुछ रोचक टोटके लिखे हैं। वे मैं नीचे प्रस्तुत कर दे रहा हूं –
कुछ जरूरी बातें -धतूरे के पुष्प शिवलिंग और शनिदेव पर अर्पित करने से संतान की प्राप्ति होती है। -आंकड़ें के फूल शिवलिंग और शनिदेव पर अर्पित करने से लंबी आयु की प्राप्ति होती है। -बिल्वपत्र शिवलिंग और शनिदेव पर अर्पित करने से हर इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है। -जपाकुसुम शिवलिंग और शनिदेव पर अर्पित करने से शत्रु का नाश होता है। -बेला शिवलिंग और शनिदेव पर अर्पित करने से सुंदर सुयोग्य जीवनसाथी की प्राप्ति होती है। -हर सिंगार शिवलिंग और शनिदेव पर अर्पित करने से सुख-संपत्ति की प्राप्ति होती है। -दुपहरियां के पुष्प शिवलिंग और शनिदेव पर अर्पित करने से आभूषणों की प्राप्ति होती है। -शमी पत्र शिवलिंग और शनिदेव पर अर्पित करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। |
चोरल के वन विभाग के रेस्ट हाउस में प्रेमसागर शाम चार बजे पंहुच गये थे। तब वे वहां के और आसपास के चित्र भेज सकते थे – सूर्यास्त होने में अभी भी एक डेढ़ घण्टा था। वे चित्र नहीं मिले। पर रात में वहां उपस्थित वन कर्मी श्रीकृष्ण वर्मा जी से उन्होने बातचीत कराई। वर्मा जी मक्सी (उज्जैन से शाजापुर के रास्ते पड़ने वाला स्थान, जो रेल जंशन भी है) के रहने वाले हैं। वे देवास में 2009-11 के बीच तेंदूपत्ता कर्मी थे। सरकार ने नौकरी दी तो वन विभाग में आ गये। देवास में वेकेंसी नहीं थी तो पास का इंदौर वन मण्डल मिला। तीन साल से वे इंदौर के चोरल खण्ड में हैं। नौकरी से संतुष्ट ही हैं, यद्यपि अपने घर से दूर रह रहे हैं। “नौकरी तो करनी ही है सर जी।”
वर्मा जी ने बताया कि चोरल के जंगल में बघेरे तो बहुत हैं। हर दूसरे तीसरे दिन खबर आती है कि आसपास के गांवों में बघेरा किसी की गाय मार गया या किसी की बकरी उठा ले गया। बघेरे के चार प्रकरण चोरल के इस जंगल में रोज होते हैं। लोग भी हैं, गांव भी हैं, पालतू जानवर भी हैं और बघेरे भी। सब सामान्य चलता है।
बाघ भी हैं। पर उन्होने देखा नहीं। वन बड़ा है। चालीस किलोमीटर के दायरे में फैला है चोरल का जंगल। उसके आगे निमाड़ का क्षेत्र भी जंगल ही है। खण्डवा तक जंगल हैं। खण्डवा का नाम ही खाण्डव वन सा लगता है – शायद इलाका महाभारत काल से जुड़ा हो।
वर्मा जी ने मुझे रेल खण्ड की भी जानकारी दी। खण्डवा से सनावद और उधर महू के आगे छोटी लाइन की पटरी उखाड़ दी गयी है। बड़ी लाइन बनेगी। पर महू से मोरटक्का (ॐकारेश्वर रोड) तक एक हेरिटेज ट्रेन चलती है। “आप आओ न सर, कभी यहां।” वर्मा मुझे निमंत्रण देते हैं। मैं अपनी असमर्थता व्यक्त करता हूं। पर वह स्थान मुझे अब भी, अपनी यादों में, बहुत आकर्षित करता है। महू-पातालपानी-कालाकुण्ड-चोरल-बड़वाह-ॐकारेशवर सब से जाने कितनी बार गुजरा हूं।
प्रेमसागर की चोरल में उपस्थिति आज वह सब यादें कुरेद गयी!
कल प्रेमसागर ॐकारेश्वर के लिये निकलेंगे। इकतालीस किलोमीटर की यात्रा है। भोर में ही निकलना होगा। वैसे वन का इलाका है। उन्हें सूर्योदय के बाद ही निकलना चाहिये। … देखें, कल क्या होता है।
हर हर महादेव!
*** द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर पदयात्रा पोस्टों की सूची *** प्रेमसागर की पदयात्रा के प्रथम चरण में प्रयाग से अमरकण्टक; द्वितीय चरण में अमरकण्टक से उज्जैन और तृतीय चरण में उज्जैन से सोमनाथ/नागेश्वर की यात्रा है। नागेश्वर तीर्थ की यात्रा के बाद यात्रा विवरण को विराम मिल गया था। पर वह पूर्ण विराम नहीं हुआ। हिमालय/उत्तराखण्ड में गंगोत्री में पुन: जुड़ना हुआ। और, अंत में प्रेमसागर की सुल्तानगंज से बैजनाथ धाम की कांवर यात्रा है। पोस्टों की क्रम बद्ध सूची इस पेज पर दी गयी है। |
प्रेमसागर पाण्डेय द्वारा द्वादश ज्योतिर्लिंग कांवर यात्रा में तय की गयी दूरी (गूगल मैप से निकली दूरी में अनुमानत: 7% जोडा गया है, जो उन्होने यात्रा मार्ग से इतर चला होगा) – |
प्रयाग-वाराणसी-औराई-रीवा-शहडोल-अमरकण्टक-जबलपुर-गाडरवारा-उदयपुरा-बरेली-भोजपुर-भोपाल-आष्टा-देवास-उज्जैन-इंदौर-चोरल-ॐकारेश्वर-बड़वाह-माहेश्वर-अलीराजपुर-छोटा उदयपुर-वडोदरा-बोरसद-धंधुका-वागड़-राणपुर-जसदाण-गोण्डल-जूनागढ़-सोमनाथ-लोयेज-माधवपुर-पोरबंदर-नागेश्वर |
2654 किलोमीटर और यहीं यह ब्लॉग-काउण्टर विराम लेता है। |
प्रेमसागर की कांवरयात्रा का यह भाग – प्रारम्भ से नागेश्वर तक इस ब्लॉग पर है। आगे की यात्रा वे अपने तरीके से कर रहे होंगे। |
बीड़ी बनाने के लिये उनकी छोटी पत्तियों का उपयोग उनके विकास में बाधक है। कुछ कुछ ऐसा लग रहा है कि बच्चे को बचपन से ही रगड़ते रहना, अच्छे शैक्षिक प्रदर्शन के लिये और कालान्तर में उनके अन्दर वृहद मानसिकता का अभाव हो जाना।
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सही उपमा. कुछ वैसे ही जैसे ड्राइंग रूम सजाने के लिए पीपल की जड़ें कतर कर बोनसाई बना देना…
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