मैं उसे बहुधा देखता हूं कोलाहलपुर और डईनिया के बीच। लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी है डईनिया और कोलाहलपुर के गंगा तट में। बकौल उसके वह तीस साल से नित्य जाता है गंगा स्नान करने। उसपर ट्विटर-फेसबुक पर लिखा भी होगा मैने एक से अधिक बार पर जो लिखा उसे तलाश कर निकालना कठिन काम है। उसको देख कर गांवदेहात की सरलता और शुचिता के बचे रहने का अहसास पुष्ट होता है। पर यह दुख की बात है कि उस जैसे लोग गिनती के मिलते हैं।
अभी उसे बहुत समय बाद देव दीपावली के दिन देखा। कार्तिक पूर्णिमा के दिन बहुत से लोग स्नान कर आ रहे थे गंगा तट से। वह पहला व्यक्ति दिखा था मुझे। उसके बाद तो नहान को जाते और लौटते अनेकानेक लोगों के चित्र साइकिल चलाते चलते लिये मैंने। उसके बाल और दाढ़ी बढ़ जाने के कारण मैं एकबारगी उसे पहचान न पाया। पर उसकी काया और लाठी-जल के पात्र से लगा कि वही होगा। उस दिन तो कोई बात नहीं हुई उससे।

कुछ दिन बाद वह कोलाहलपुर की ओर जा रहा था, तब उसके बगल से साइकिल धीमे चलाते हुये लगभग एक किलोमीटर उसके साथ चला मैं। उससे बात करते हुये। अपनी ओर से पहल कर वह कोई बात करने वाला आदमी नहीं है पर बात करने पर पूरे ध्यान से उत्तर देने वाला है। नाम बताया पारसनाथ। “साहेब का ध्यान” करता चलता- रहता है। ये साहेब कौन हैं? उसके लिये ईश्वर का कोई नाम होगा। अपने को वह जूना अखाड़ा, सीतापुर के नागा संत से दीक्षा लिये हुये बताता है। कहने का तात्पर्य यह है कि उसके पास धार्मिक-नैतिक-आध्यात्मिक अवलम्ब है, जिसके आधार पर अपना सरल जीवन जीने का प्रयास वह करता है।
गंगा स्नान कर रहे हो तीस साल से, उसका कोई लाभ दिखता है? – मैं शुद्ध लाभ-हानि की बनिया बुद्धि से सवाल करता हूं। उसका नपा तुला जवाब है – “मन निर्मल रहता है। विचार साफ रहते हैं। किसी के बारे में कोई गलत भाव नहीं लाता मन में। यही लाभ दिखता है। रोज स्नान करता हूं। आ कर कुछ नाम-स्मरण करता हूं। उसके बाद काम धाम करता हूं। काम नहीं करूंगा तो जीवन यापन कैसे होगा? घर में पत्नी है और एक लड़की। बीस साल की होगी। दो बड़ी की शादी कर चुका हूं। घर में हम तीन लोग हैं। बुनकर का काम करता हूं। उसी से जीवन चलता है।”

कुल मिला कर उसके जीवन के सूत्र लगे – सरलता, नियमितता, ईश्वर भजन, अपने काम में मेहनत और परिवार पालने के प्रति समर्पण।
पारसनाथ ने बताया वह बदरीनाथ का दर्शन कर आया है सन 2010 में। माण्डा के कोई दुबे परिवार के लोग थे, उनके साथ गांव के दो लोग गये थे। यहां से ट्रेन से हरिद्वार गये और उसके बाद एक बोलेरो किराये पर किये थे। भले आदमी थे दुबे जी। किराया भर देना पड़ा, बाकी खाने-रहने की व्यवस्था उन्होने की। बोलेरो वाले का किराया साढ़े बारह हजार था पर यात्रा आराम से हुई। … मैं अपनी तुलना में उसे विपन्न ही मानूंगा पर वह भी धर्म के नाम पर सही, यात्रा कर आया है। लम्बी दूरी का दुरूह तीर्थाटन। मैं वैसा करने की सोचता भी नहीं। किसी भी यात्रा में अपने सुविधाओं की कल्पना पहले करता हूं। अगर यात्रा की कठिनाईयों के लिये मन को कड़ा कर लूं तो शायद अधिकांश समय वे कठिनाईयां आयें ही नहीं।
वह नंगे पांव था – सर्दी प्रारम्भ हो गयी थी। पर मुझे लगता था कि मेरे पास तीन जोड़ी जूते होने के बावजूद एक और गद्देदार तल्ले वाला जूता और चहिये। यह अंतर है उसमें और मुझमें।
चलते बात करते कोलाहलपुर का मोड़ आ गया था। पारसनाथ गांव की गली से गंगा तट की ओर मुड़ने वाला था और मैं कमहरिया के गौगंगागौरीशंकर की ओर जाने वाला था। मैंने पारसनाथ को रुक कर उसका एक चित्र लेने का अनुरोध किया। उसके बाद गली में जाते हुये भी उसका चित्र लिया।

कल मैंने बिस्राम की पोस्ट पर लिखा था कि गांवदेहात में रहते रहते मैं मिसएंथ्रॉप होता जा रहा हूं। पर यहां पारसनाथ जैसे चरित्र भी दिख जाते हैं – कम ही दिखते हैं; पर हैं; जिन्हे देख कर लगता है कि मूलभूत सरलता और धर्म की जड़ें अभी भी यहां जीवंत हैं। संत कबीर और रैदास की जीवन शैली और चरित्र अभी भी गायब नहीं हुये हैं सीन से। उन जैसों को देखना जानना समझना एक ध्येय होना चाहिये। इटवा-कोलाहलपुर-द्वारिकापुर-कमहरिया के गंगा तट पर दशकों से नियमित स्नान करने वाले पचीस तीस लोग तो होंगे ही। उनका जीवन देखना-समझना एक प्रॉजेक्ट बन सकता है और उनमें ही गांव की सरलता के दर्शन होंगे।

आलोक जोशी ट्विटर पर –
नित्य गंगा स्नान के मानसिक, वैचारिक ही नही शारीरिक लाभ भी होते होंगे..
बहते जल का स्नान और..वह भी माँ गंगे की धारा जो कई जड़ी बूटियों के संपर्क में रह कर आती है…
पारसनाथ जी निश्चय ही ईश्वरीय आशीर्वाद के कारण नियमित गंगा स्नान का निर्वहन कर पा रहे हैं।
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अश्वमेघ, ट्विटर पर –
पुरानी पीढ़ी में ही ये धुन दिखाई पड़ती है. नए पीढ़ी को तो रोज मिलने वाले डेढ़ GB डेटा में सुबह से शाम तक गोते लगाने से फुर्सत नही है. 🙂
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