तुलसी की झाड़ में बुलबुल के बच्चे

पिछले छ्ह साल में मेरे घर में पक्षी और जीव बढ़े हैं। उनमें बुलबुल भी है। शुरुआती साल में तो बुलबुल दिखती ही न थी। अब तो उसका गाना सुनना नित्य होता है। कई बार बुलबुल दम्पति अपने छोटे शिशुओं को, घोंसला छोड़ने के बाद भी, साथ ले कर उड़ते और चारा (कीड़े) खिलाते दिखते हैं। साल में दो बार तो प्रजनन काल होता ही है बुलबुल का। सो घर के कई घने वृक्षों और झाड़ियों में उनके घोंसले तलाशे जा सकते हैं।

घोंसला बनाने की एक जगह पोर्टिको के सामने तुलसी का झाड़ है। पिछले साल बुलबुल ने वहां घोंसला बनाया था और तीन बच्चे सकुशल उड़ा कर ले गयी थी। इस साल भी वही क्रिया पुन: हो रही है; उसी झाड़ में। हम लोग पोर्टिको में सवेरे बैठ कर चाय पीते हैं और बुलबुल का गायन सुनते हुये उसकी तुलसी की झाड़ी में जाने आने की सतर्क गतिविधियों के साक्षी होते हैं।

बुलबुल By adil113 – dholak, CC BY 2.0, https://commons.wikimedia.org/w/index.php?curid=54270530

पहले बुलबुल दम्पति तिनके और टहनियाँ ले कर आते थे और इधर उधर ताक कर फुर्र से झाड़ में घुस जाते थे। वह घोंसला निर्माण का पक्ष था। वह काम पूरा करने के बाद गतिविधियाँ शांत रहीं। अब सप्ताह भर बाद बुलबुल पति पत्नी चोंच में कीड़े पकड़े आने लगे हैं।

कल रविवार था। माली (रामसेवक) जी के आने का दिन। उनसे मेम साहब ने कहा कि तुलसी की मंजरी छांट दें जिससे तुलसी के पत्ते और घने हो सकें। रामसेवक जी ने मंजरी तो छांटी पर सावधानी से बुलबुल का घोंसला भी देखा। तब हमें बताया – “बधाई हो दीदी, आपके यहां तीन बच्चे दिये हैं बुलबुल ने।”

तीन बच्चे थे बुलबुल के हथेली भर के घोंसले में। हल्की आहट पर तीनो अपनी चोंच खोल कर प्रतीक्षा करते थे कि उनके लिये खाना आ रहा होगा। तीनों मांस के लोथड़े जैसे हैं। उनके पंख अभी ठीक से जमे नहीं हैं। पंखों की जगह थोड़े रोयें से दिखते हैं।

हमने भी देखा – सावधानी से – तीन बच्चे थे बुलबुल के हथेली भर के घोंसले में। हल्की आहट पर तीनो अपनी चोंच खोल कर प्रतीक्षा करते थे कि उनके लिये खाना आ रहा होगा। तीनों मांस के लोथड़े जैसे हैं। उनके पंख अभी ठीक से जमे नहीं हैं। पंखों की जगह थोड़े रोयें से दिखते हैं। मुंह खोलते हैं तो ध्यान से सुनने पर हल्की चींचीं की आवाज निकलती सुनाई देती है उनके कण्ठ से। जब हम घोंसला देखने और चित्र लेने का उपक्रम कर रहे थे तो पास की नीम पर बैठी बुलबुल तेज आवाज में बोल रही थी। अनिष्ट की भय-आशंका ग्रस्त आवाज। हम न समझें तो वह भी बुलबुल का गायन ही था पर थोड़ा तीखा।

बच्चे की बरही – बारह दिन जन्म के बाद – पर उत्सव मनाया जाता है। यह तय हुआ कि उस दिन नवरात्रि का व्रत सम्पन्न होगा और हलवा-पूरी बना कर बुलबुल-प्रॉजेक्ट से जुड़े सभी लोगों को खिलाया जायेगा। घर में काम करने वाली कुसुम ने कहा – फुआ, छठ्ठी को तो काजल लगाया जाता है नवजात को। मुझे कुछ नेग दो तो इन बच्चों को काजल लगा दूं? 😀

तुलसी की मजरी छांटने पर लगा कि ऐसा न हो घोंसले को ज्यादा धूप लगे। इतने नाजुक और मुलायम थे बच्चे कि रामसेवक और गुलाब चंद्र (मेरे वाहन चालक) ने मिल कर एक हरा पर्दा टेण्ट की तरह तान दिया झाड़ के ऊपर जिससे सूरज की सीधी तपन से उनका बचाव हो सके। उनके यह सब करते समय बुलबुल दम्पति आसपास ही रहे। शायद उन्हें भी अहसास हुआ हो कि ये लोग उनके और उनके बच्चों के लिये कोई अनिष्ट करने वाले नहीं हैं। उल्टे सहायक ही हैं।

रामसेवक और गुलाब चंद्र (मेरे वाहन चालक) ने मिल कर एक हरा पर्दा टेण्ट की तरह तान दिया झाड़ के ऊपर जिससे सूरज की सीधी तपन से बुलबुल के नवजात बच्चों का बचाव हो सके।

रामसेवक जी ने आकलन कर बताया कि बुलबुल के प्रजनन प्रॉजेक्ट को करीब छ दिन हो गया है। आगे जब नवरात्रि का अंतिम दिन होगा – रामनवमी होगी – तब उन ‘बुलबुलों’ की बरही होगी।

बच्चे की बरही – बारह दिन जन्म के बाद – पर उत्सव मनाया जाता है। यह तय हुआ कि उस दिन नवरात्रि का व्रत सम्पन्न होगा और हलवा-पूरी बना कर बुलबुल-प्रॉजेक्ट से जुड़े सभी लोगों को खिलाया जायेगा। घर में काम करने वाली कुसुम ने कहा – फुआ, छठ्ठी को तो काजल लगाया जाता है नवजात को। मुझे कुछ नेग दो तो इन बच्चों को काजल लगा दूं? 😀

यह तय हुआ कि काजल भले न लगाया जाये, कुसुम को कुछ ‘नेग’ दे ही दिया जायेगा। … कुल मिलाकर बुलबुल के घोंसले और उसके नवजात बच्चों ने पूरे घर को उत्सवमय कर दिया। रविवार का दिन आनंदमय हो गया!

तुलसी का झाड़। इसमें बांई ओर घने कोने में घोंसला है।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

5 thoughts on “तुलसी की झाड़ में बुलबुल के बच्चे

  1. मेरा गाव तो भाइयों के आपसी बटवारे मे छूट गया/गाव की जायदाद बड़े भाई के हिस्से मे चली गयी/लेकिन मेरा गाँव प्रेम अभी तक नहीं छूटा है इसलिए मै अपने दोस्तों और मित्रों के गाव मे जाकर ग्रामीण जीवन का आनंद लेता हू/अपने काम की जड़ी बूटिया और दवाओ के उपयोग की वस्तुए भी इकठ्ठा कर लेता हू और रोगियों मे उपयोग करता हू/आप इंडियन मेडीसीनल प्लांट्स गैनजेटिक प्लानस यानी वे औषधीय पौधे जो गंगा नदी के 10 किलोमीटर के इर्द गिर्द पैदा होते है उनके बारे मे भी चित्र वीडियो और यदि विवरण मिले जो आसपास के ग्रामीण ही बता सकते है उनके बारे मे भी लिखे और चित्र तथा वीडियो भी बनाकर अपने ब्लाग मे लोड कर दे/ इससे यह होगा की दुर्लभ प्रकृती की बनस्पतियों और उनके पाए जाने की संभावनाए कहाँ कहा है ये पता लग जाती है/उदाहरण के लिए कानपुर से 25-30 किलोमीटर दूर गंगा के ठीक ऐन किनारे पर स्तिथि मै अपने एक मित्र के गाव गया वहा मुझे 25 से ज्यादा तरह की वनस्पतिया पेड़ और जड़ी बूटिया मिली जिन्हे मै समझता था की ये दुर्लभ है और चिकित्सा के लिए उपलब्ध नहीं है / कटु परवल जो भयंकर पीलिया की बीमारी मे अमोघ है,हरसिंगार रीढ़ की बीमारी मे चिलबिल,और दुर्लभ काष्ठ-औषधिया गंगा के किनारे के क्षेत्रों मे ही मिलती है/आप खोजी-प्रकृती के व्यक्ति है, थोड़ा इस पर भी ध्यान दे/ एक बात और शहरों मे अब घरों मे चिड़िया नहीं दिखाई देती है/ 30 साल पहले कव्वे औरछोटी चिड़िया आती थी अब केवल कबूतर का एक जोड़ा मेरी पानी की टंकी मे आकर घोंसला बनाकर रह रहा है/ उसकी आवाज सुनता हू तो गाव से जुड़ा प्रकरती सानिध्य जाग्रत हो जाता है/ बुलबुल की आदतों और अन्य पक्षियों से जुड़े अपने आबजर्वेशन हमे भी पढ़ने मे बहुत अच्छे लगते है /उम्मीद है भविष्य मे आप ईसी तरह लिखते रहँगे और हम पढ़ते रहेंगे/कमेन्ट हम लिखे या न लिखे इसे एवायाड करते रहे/

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    1. जय हो, जय हो 🙏🏼
      बहुत धन्यवाद वाजपेयी जी, विस्तृत टिप्पणी के लिए!

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