आदर्शवादियों के बहुत से प्रयोग मैंने असफल होते देखे हैं। गांधीवाद की लत्तेरेकी-धत्तेरेकी करते उन्हीं को देखा है जिनपर दारोमदार था उसे सफल बनाने का। मार्क्सवाद जहां भी देखा, वहां उसकी छीछालेदर देखी या मार्क्सवादियों की धूर्तता का नाच देखा। हर मार्क्सवादी अपने को पश्चिम से या अमेरिका से (लाभार्थ) जोड़ना चाहता है। हिंदुत्व के खेमे में भी; गौमाता, गंगा जी और उन्ही के जैसे अन्य प्रतीकों की ऐसी तैसी करते उन विद्वानों (?) को पाया है जो धर्म की खाते हैं। अस्थिपंजर सी गायें, खिन्न और आईसीयू में जा चुकी गंगा – जिनमें सारा मैला, सारी गंदगी और प्लास्टिक का कचरा जाता है – देख कर यकीन नहीं होता कि हिंदुत्व के प्रतीकों पर कोई आर्थिक रूप से सफल प्रयोग हो सकता है जिसे व्यापक तौर पर रीप्लिकेट किया जा सके।
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मैं सामान्यत: राजनैतिक लोगों से खुलता नहीं। पर आज सवेरे पर्याप्त सुहाना मौसम था और सुनील जी से काम-लायक ट्यूनिंग हो गयी थी; सो मैंने अपनी शंका उनके सामने रख ही दी। गड़ौली धाम की पूरी परिकल्पना गौ गंगा गौरीशंकर पर आस्था की कीली पर टिकी है। और गौ आर्धारित व्यापक जन जुड़ाव बिना पुख्ता आर्थिक आधार के हो ही नहीं सकता। आस्था बिना इकॉनॉमिक सस्टेनेंस के उतनी ही चल सकती है जितना आदमी ब्लड ट्रांसफ्यूजन के साथ या डायलिसिस के साथ चल सकता है। और गौ आर्धारित इकॉनॉमिक सस्टेनेंस इस पूर्वांचल के गांवदेहात में ओझा जी बिना समर्पित टीम के और बिना मार्केट विकास के कैसे कर सकते हैं? क्या उनके राजनैतिक नेटवर्क में समर्पित लोग और अर्थप्रबंधन वाले व्यक्ति हैं? ये मेरे प्रश्न थे।

धर्म और गौ के प्रति आस्था में घालमेल – पानी मिलाना – कोई आधुनिक फिनॉमिना नहीं है। हमारा समाज ऋग्वैदिक-उपनषदिक समय से चिरकुट रहा है। कठोपनिषद में शुरुआत ही इस बात से है कि नचिकेता का पिता वाजश्रवा, उसके द्वारा बूढ़ी और बीमार गायों को दान में दिये जाने पर आपत्ति किये जाने पर क्रोधित हो गया था और उस (वाजश्रवा – दानवीर) ने क्रोध कर कहा था – मैं तुझे यम को देता हूं।
नचिकेता धर्मराज यम से चिपक लिये और परमज्ञान पा गये। क्या सुनील ओझा गाय के प्रति आस्था में दृढ़ हो कर कुछ विलक्षण कर पायेंगे? …
मेरी अपनी शंकायें थीं और उतनी ही थी ओझाजी की अपनी सैद्धांतिक-व्यवहारिक दृढ़ता। उन्होने कहा कि उनके पास कम से कम पचास लोग हैं जो पूरा कमिटमेण्ट रखते हैं। और वे ही नहीं, और लोग भी जुड़ेंगे ही। “उस दिन एक सज्जन ‘मधुकर पांड़े (?)’ मिले थे। उन्होने बताया कि उनकी सांसारिक जिम्मेदारी पूरी हो गयी है। वे पति पत्नी भर हैं और उनका व्यवसाय उनकी जरूरत के लिये पर्याप्त है। वे फुलटाइमर की तरह इस नेक काम में लग सकते हैं।” – ओझा जी ने एक उदाहरण सामने रखा।
प्रसंगवश सुनील जी ने एक बात कही दीर्घजीवन की अपनी इच्छा को ले कर। वे 105 साल तक जीना चाहेंगे। इधर मैं भी अपने लिये यह काउण्टर 103 साल पर सेट किये बैठा हूं। एक सौ पांच और 103 लगभग एक ही ऑर्डर के टार्गेट हैं। पर इसमें भी वे दो साल की बाजी मार ले गये हैं मुझसे। 🙂
“दूध को ले कर अमूल ने उसका मूल्य उसमें होने वाले फैट-कण्टेन्ट से जोड़ दिया है और वह सोच दशकों से जन मानस को तथा अर्थशास्त्र को प्रभावित करती रही है। देसी गाय के दूध विपणन-मूल्य निर्धारण फैट कण्टेण्ट के अनुसार नहीं, उसकी नैसर्गिक गुणवत्ता के आधार पर होना चाहिये। और उत्तरोत्तर लोग यह समझ भी रहे हैं। अकेले बनारस में कम से कम दस हजार लोग हैं जो देसी गाय के दूध का गुण आर्धारित (अधिक) मूल्य अदा करने को तैयार हैं। यह संख्या आने वाले समय में बढ़ेगी। जरूरत है कि गाय के लिये चारा, उसकी ब्रीड और उसके दूध के गुण के बारे में सजगता और विकसित की जाये। और यह हो सकता है। लोकल राजनीति के पचड़े में पड़े बिना, सेल्फलेस काम से हो सकता है। … यह तो मैं साफ करना चाहूंगा कि मैं गड़ौली धाम में राजनीति करने नहीं आया हूं।” – यह सुनील ओझा जी के कहे का अंश था। मैं उनके शब्द नहीं लिख रहा। उनसे बात मैंने डिक्टाफोन ले कर तो की नहीं। पर जो मैं समझा, वह यही था।

लम्बे डिस्कशन की बोझिलता को हल्का करने के लिये मैंने जोड़ा – “तो मैं समझूं कि मैंं एक नई सोच वाले वर्गीज कुरियन से मिल रहा हूं?”
ओझा जी भी हंसे और मैं भी।
द प्रिण्ट के एक लेख में नीलम पाण्डे ने सुनील जी के बारे में लिखा है –
(He) is said to be the key architect of Modi’s victory in the 2014 and 2019 Lok Sabha elections in Varanasi. He is considered skilled in organisational affairs, and many within the party have credited this string of success to Oza’s “meticulous planning” and “astuteness”. […] “He is soft-spoken and gives respect to all,” a senior BJP leader told ThePrint on the condition of anonymity.
प्रिण्ट के इस लेख का संदर्भ तो मैंने ओझा जी के (कुछ) गुणों को रेखांकित करने के लिये दे दिया। वैसे वह सब पिछले कुछ दिनों में मैं स्वयम अनुभव कर चुका हूं। पर अभी भी मेरे अपने प्रश्न और शंकायें हैं। सुनील जी के अनुसार गौ आर्धारित स्थानीय जनता को जोड़ने के प्रयोग में उपयुक्त परिणाम छ साल में आ जाने चाहियें। छ साल बाद वे और मैं, तिहत्तर साल के होंगे और आज जितनी कुशलता से सब ऑजर्व करने लायक होंगे ही। … गड़ौली धाम के प्रयोग को तिहत्तर की उम्र तक तो देखो और उसपर ब्लॉग पर अपनी मानसिक जुगाली ठेलो, जीडी! 😆
प्रसंगवश सुनील जी ने एक बात कही दीर्घजीवन की अपनी इच्छा को ले कर। वे 105 साल तक जीना चाहेंगे। इधर मैं भी अपने लिये यह काउण्टर 103 साल पर सेट किये बैठा हूं। एक सौ पांच और 103 लगभग एक ही ऑर्डर के टार्गेट हैं। पर इसमें भी वे दो साल की बाजी मार ले गये हैं मुझसे। 🙂
दीर्घजीवन की सेंच्यूरी मारने की इच्छा शायद मेरे शहरी जीवन त्याग कर इस ग्रामीण अंचल में बसने के निर्णय के मूल में है। हो सकता है दीर्घ और सार्थक जीवन की चाह ही सुनील जी को गड़ौली धाम ले आयी हो। जो हो; आगे का बहुत सा समय इस शतकीय सोच की एक एक गेंद कैसे खेली जाती है, वह देखना, समझना और लिखना – यही काम है मेरे पास।

आनंद लो जीडी! और आशा करो कि यू ही सवेरे, बिना बुलाये, अ-तिथि की तरह, वहां पंहुचने पर सुनील जी के साथी – सतीश और बलराम एक कप बढ़िया चाय पिलाते रहेंगे!
जय हो! जै गौ माता, जय गंगा माई! हर हर महादेव!
शानदार अभिव्यक्ति के लिए आपका हृदय से धन्यवाद।।
आप दोनों विभूतियां शतायु हो,एक दूसरे से स्पर्द्धा करें।।महादेव।।
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धन्यवाद बंधुवर 🙏🏼
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