वह लेवल क्रॉसिंग बहुत खराब है, पर उससे भी ज्यादा खराब मैंने देखे हैं। अगर उससे एक दो बार गुजरना होता तो शायद मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। दिक्कत यह है कि मुझे अपनी साइकिल ले कर दिन में दो चार बार उससे गुजरना होता है। वह भी हर रोज और साल दर साल। वह मेरे घर के पास का समपार फाटक है।
उसकी खराबियत से मन ऊब गया है। गांव में बसने-रहने का अपना निर्णय गलत लगने लगा है, उत्तरोत्तर। गांवदेहात में साइकिल ले कर कच्चे में, पगडण्डी पर या खेत की मेड़ पर अपने को बैलेंस करते हुये चलने में मुझे कष्ट नहीं है। या, अमूमन अच्छा ही लगता है। पर यह लेवल क्रॉसिंग पर गुजरना, वह भी बारिश और कीचड़ को लांघते हुये, वैतरणी सा लगने लगा है। आशंका घर कर गई है कि किसी दिन गिर कर कोई हड्डी न टूट जाए!
यह उतना खराब शुरू से नहीं था। जब मैं गांव में आया तब रेलवे की इकहरी लाइन थी। तीन साल पहले इसका दोहरीकरण हुआ। उसके साथ ही दुर्गति हुई। रेल की पटरियों के बीच हेक्सागोनल इण्टरलॉकिंग की सीमेण्ट वाली ईंटें बिछाई गयीं। बिछाने वालों को विधिवत बिछाने की तमीज नहीं है। उसकी सतह समतल नहीं थी। दो टाइलों के बीच दरार भी एक सी नहीं थी। सो तीन चार बार वे टाइलें उखाड़ कर फिर जमाई गयीं। पर संतोषजनक कारीगरी कभी नहीं हो पाई। उलटे उत्तरोत्तर खराब ही होती गयी। अब तो मुझे साइकिल से उतर कर पटरी पार करनी होती है।

रेलवे की गतिविधि देखना-निहारना अब इस लेवल क्रॉसिंग तक ही सीमित हो गया है। कटका रेलवे स्टेशन भी मैं साल में एक आध बार ही जाता हूँगा। जबकि वह मेरे घर से चार सौ कदम पर ही है। रेलवे के किसी दफ्तर में गये तीन साल गुजर गये। मैं गंगा किनारे समय व्यतीत करना अधिक सार्थक समझता हूं। रेलवे के साथ तो तीन-चार दशक गुजार ही लिये हैं। उसी में क्या आसक्त बने रहना?!
पर पिछले कुछ समय से लगा कि लेवल क्रॉसिंग और भी खराब हो गया है। उसके पास इंतजार करते समय मेरे वाहन की ओर आगे का ट्रेक्टर रोल बैक होने लगा। सड़क का डामरीकरण नहीं हुआ है, सो उसमें गड्ढ़े बन गये हैं। चांद की सतह की तरह। ट्रेक्टर वाला अपना ब्रेक नहीं लगा पाया। अगर मेरा वाहन चालक समय से बैक नहीं करता तो दुर्घटना हो जाती। … एक और दिन सड़क की खराब दशा के कारण एक ट्रेक्टर की कमानी टूट गयी। एक बार तो मोटर साइकिल पर जाते आदमी की मेहरारू उछल कर गिर गयी।
आरवीएनएल (रेल विकास निगम लिमिटेड) वाले अपना काम कोरोना लॉकडाउन में आधा अधूरा कर गायब हो गये। दोहरी लाइन किसी तरह चालू कर दी। पर उसके साथ वे इस लेवल क्रॉसिंग की दुर्गति कर गये। 😦
… यह सब में हमेशा देखता रहा। पर रेलवे के काम में मीन मेख न निकालने और उसे ले कर किसी निरीक्षक/अधिकारी को न टोकने के अपने रिटायरमेण्ट बाद के आत्मानुशासन का मैंने पालन किया।

पर पिछले दिनों मैंने बनारस जाने और मण्डल रेल प्रबंधक जी से मिलने की सोच ही ली। चार पांच मिनट के लिये ही मुलाकात हुई उनसे। वे किसी जरूरी बैठक में जा रहे थे। मैं उनसे केवल अनुरोध ही कर पाया लेवल क्रॉसिंग के बारे में। बड़ी सज्जनता से उन्होने मुझे सुना और कुछ करने का आश्वासन दिया।
बहुत सालों बाद मैं किसी रेल अधिकारी से मिल रहा था। वे (रामाश्रय पाण्डेय जी) निहायत विनम्र और सज्जन लगे। पांड़े जी पूर्वोत्तर और पूर्व-मध्य रेलवे में रहे हैं अधिकतर। यद्यपि मैंने अपने रेल कार्य के चार साढ़े चार साल पूर्वोत्तर रेलवे पर गुजारे हैं, पर उनसे पहले मिलने का सौभाग्य नहीं मिल पाया था। मेरे मन में पूर्वोत्तर रेलवे के इस हिस्से – वारणसी रेल मण्डल पर इंजन या गार्डब्रेक वान में यात्रा कर एक ट्रेवलॉग लिखने का विचार है। अगर रामाश्रय पाण्डेय जी से पटरी बैठी और उनका सहयोग रहा तो यह यात्रा लेखन प्रॉजेक्ट मैं आगामी सर्दियों में शायद कर सकूंगा।
रामाश्रय जी के साथ आत्मीयता कितनी गहरी होती है, कितनी स्थाई बनती है और रेलवे से उच्चाटन के बाद पुन: जुड़ाव के वे कितने सघन निमित्त बनते हैं; यह आने वाला समय बतायेगा। फिलहाल तो अपेक्षा है कि वे अपने लोगों को प्रेरित कर लेवल क्रॉसिंग की दशा कुछ सुधरवा दें। बहुत बढ़िया हो जाये, उसकी अपेक्षा नहीं है, पर ऐसा तो हो जाये कि गांव में रीवर्स माइग्रेशन का अपना निर्णय खराब न लगने लगे और गांव में बसने का पछतावा मन में स्थाई भाव न बन जाये।
पांडे जी आपको गंगा जी पसंद है तो मुझे भी गंगा जी पसंद है/ कानपुर शहर जहा मै रहता हू वहा से गंगा जी 2 किलोमीटर दूर है और गंगापार करके जहा मेरा उन्नाव जनपद मे मकान है वहा से गंगा जी मात्र 200 मीटर दूर है/ रोजाना औसत मे गंगा का पुल पार करता हू लेकिन यह मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है/ कभी कभार रुककर गंगा की धारा पुल से देखता हू/पहले दो तीन रेलवे की क्रासिंग पार करनी पड़ती थी लेकिन अब पुल बंन जाने से यह समस्या दूर हो गई और अब कोई क्रासिंग नहीं मिलती है /शहरों मे क्रासिंग बहुत चौकस है/मुझे ग्रामीण जीवन बहुत पसंद है और इसीलिए मै अपआने मित्रों के गावों मे जाकर अपना कुछ समय बिताता हू/योगी की सरकार ने बहुत काम किया है/खेद की बात यह है की रेलवे का एडमिनिस्ट्रेशन केंद्र के हाथ मे है और केंद्र सरकार ही रेलवे ट्रैक का रखरखाव करती है/ अब देखरेख करने वाले ही लापरवाह हो तो क्या किया जा सकता है/आप तो अफसर रहे है रेलवे मे क्या आप अंदर की बात नहीं जानते है ?
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ट्रेन चलन प्राथमिकता है, सड़क नहीं. मेरा विचार पहले यही था. अब दूसरी ओर होने से प्राथमिकता बदल गई है. 😁
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Sir ap Railway ke sammanit officer rahe h apki baat m abhi bhi vahi dum h ap kisi Engg deptt Wale ko bolenge lc approach thik ho jayegi
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Let’s see what happens. One should not have high expectations.
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दिनेश कुमार शुक्ल, फेसबुक पेज पर –
वाह क्या ही भव्य दृश्य है …..नागार्जुन जी की कविता है न ,”पंक बना हरिचंदन मेघ बजे” सो ये हरिचंदन है। वैसे कम से कम अच्छी बात ये है कि उधर कुछ वर्षा तो हुई है।
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चेतन विश्वकर्मा, फेसबुक पेज पर –
एक बहुत बड़ी आबादी को लगता है कि गाँवों में जन्नत है। हर आदमी दूसरे के काम आता है, सब मिल-जुल कर रहते हैं।पैसा कम भी है तो लोग ख़ुश हैं, बड़ा शुद्ध खान-पान है। रही-सही कसर सोशल मीडिया पर सरसों के खेत और हरियाली देख कर पूरी हो जाती है।
मैंने अपना बचपन बिहार के गाँव में बिताया है, उत्तर प्रदेश और पंजाब के मित्रों से वहाँ के गाँवों के बारे में बात होती रहती है। गाँवों में ऐसा कुछ नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। मुझे तो गाँवों जैसी धूर्त्तता और मक्कारी कहीं देखने को नहीं मिलती। हर किसी का ज़मीन का झगड़ा है। हर किसी की नज़र दूसरे की ज़मीन पर है। धोखे से अपने पड़ोसी की, भाई की ज़मीन क़ब्ज़ा लेना आम है। दूसरे की तरक़्क़ी तो फूटे आँख नहीं देख सकता कोई। संपत्ति के झगड़े की वजह से भाई-भाई में पूरी ज़िंदगी बात नहीं होती। घर-घर में कलह, केस-मुक़दमा देखने को मिलेगा।
झोंक कर कीटनाशक डाला जाता है फसलों में। पैदावार बढ़ाने का हर वो तरीक़ा अपनाया जाता है जो घनघोर अनैतिक है।
शहर इससे कहीं बेहतर हैं।
प्रेमचंद एक महान लेखक हैं इसमें कोई शक नहीं लेकिन उन्होंने गाँवों को ऐसा romanticise किया जैसे वो स्वर्ग लोक हो। लाख झगड़ा हो अलगू-जुम्मन में लेकिन आख़िर में सब अच्छा हो जाएगा। सबका ज़मीर जाग जाएगा। सब ईमानदार हो जाएँगे। गाँव ऐसे नहीं होते। फणीश्वर नाथ रेणु या श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों में जैसे गाँव हैं वैसे ही होते हैं। धोखे, छल, राजनीति में डूबे हुए। मुझे गाँवों के मुक़ाबले शहर बेहतर लगते हैं।
सब कुछ होने के बावजूद अपनी ज़मीन है तो अच्छी-बुरी जैसी भी है, जुड़ाव तो है ही।
(ये मेरे निजी अनुभव हैं। आपके अनुभव मुझसे अलग होंगे तो आपकी राय भी मुझसे अलग होगी। अलग राय का सम्मान है।)
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आप किसी अन्य के द्वारा राष्ट्रपति के pgportal पर शिकायत दर्ज करा दिजिये, समस्या का समाधान हो जाएगा।
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https://helpline.rb.nic.in/GrievanceNew.aspx
इस पर शिकायत दर्ज करा दिजिये।
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रवींद्र नाथ दुबे, फेसबुक पेज पर –
किसी भी प्रोजेक्ट पर पैसा तो बहुत मिलता है पर ठेकेदार गुणवत्ता का सत्यानाश कर रहे हैं। किसे दोषी करार किया जाए । मनुष्य का लोभ सब अवगुणों की जननी,- जनक सब है। काम और नौकरी का रोना चरम पर है जबकि कार्यकुशलता का स्तर बहुत घटिया है। प्रशिक्षित और अप्रशिक्षित एक ही लाठी से हांके जा रहे हैं।हम लोगों के जीवन काल में ऐसे ही चलेगा। आगे का ईश्वर जाने।
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दुखद है रेलवे के गेट पर इस तरह के खराब रखरखाव के कार्य का। कभी भी बड़ी दुर्घटना हो सकती है यहां पर।
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देखते हैं कुछ सुधार सम्भवतः हो जाए.
आपको धन्यवाद टिप्पणी के लिए 🙏🏼
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