पिछले नौ-दस सप्ताह से हम – मेरी पत्नीजी और मैं – चक्रीय ताल अर्थात सरकेडियन रिदम (Circadian Rhythm) के आधार पर दिनचर्या (मुख्यत: भोजन) को नियमित करने का प्रयास कर रहे हैं। उस प्रक्रिया में शरीर और स्वास्थ्य में बहुत अनुकूल और सुखद परिवर्तन हो रहे हैं।
इस विधा (सरकेडियन रिदम और इंटरमिटेंट फास्टिंग) का नाम हम काफी अर्से से सुनते आ रहे थे, पर अंतत प्रेरित हुये भारतीय मूल के वैज्ञानिक सच्चिदानंद पण्डा जी के यूट्यूब पर उपलब्ध सामग्री के द्वारा। सच्चिदानंद पण्डा जी अमेरिका के साल्क इंस्टीट्यूट में जीवविज्ञान के प्रोफेसर हैं। उनके बारे में जो सामग्री मुझे नेट पर दिखती है उससे लगता है कि वे नोबेल प्राइज मटीरियल हैं। कभी उन्हें नोबेल मिलता है तो मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत प्रसन्नता होगी।
वे विद्वान हैं और सरल भी। उनका उच्चारण बनावटी अंग्रेजी का नहीं है, उसमें उडिया पुट है जो मुझे आकर्षित करता है। उनके नाम में पण्डा है जो बताता है कि वे उत्कल के ब्राह्मण हैं जिनके पूर्वज उत्कल के राजा द्वारा वाराणसी से पुरी ले जाये गये रहे होंगे जगन्नाथ मंदिर के प्रतिष्ठा-यज्ञ में श्रोत्रिय के रूप में। और (सम्भवत:) यूपोरियन मिश्र, द्विवेदी, तिवारी, शुक्ल और पाण्डेय किसी न किसी प्रकार से उड़िया ब्राह्मणों से जुड़े हैं। अन्य उपनाम तो यथावत मिलते हैं पर उत्कल मेंं पंडा और अवध-पूर्वांचल में पाण्डेय सम्भवत: एक ही हैं – सरयूपारी जीन! वाराणसी/प्रयाग और पुरी का एक हजार साल पुराना सम्बंध तो है ही, कम से कम!

सच्चिदानंद पण्डा जी की चक्रीय ताल – सरकेडियन रिद्म – पर आम जनमानस के लिये दो पुस्तकें हैं। वे दोनो मैने पढ़ी हैं। उनकी मधुमेह विषयक पुस्तक को ऑडीबल पर शुरू से अंत तक सुना भी है। अब उनके एप्प “माई सरकेडियन क्लॉक (myCircadianClock)” पर रजिस्टर कर पिछले 68 दिनों से दस घण्टे के भीतर भोजन सीमित करने के प्रयोग में भाग भी ले रहा हूं।


मैं और मेरी पत्नीजी सवेरे चार-पांच बजे उठते हैं। पैदल चलने और साइकिल चलाने के बाद सवा सात बजे पहली चाय पीते हैं। शाम सवा पांच बजे अंतिम भोजन कर रात साढ़े नौ बजे सोने चले जाते हैं। रिटायरमेण्ट का लाभ यह है कि गांव में रहते हुये हमारी दिनचर्य्या नियमित है। देर रात तक क्लब में शरीक होने या घर के बाहर डिनर पर जाने की कोई बाध्यता नहीं है। हम बड़ी सरलता से अपना भोजन नियत समय में समेट पा रहे हैं। और भोजन भी घर का ही बना होता है।
जब हमने प्रारम्भ किया था तो 11-12 घण्टे में अपना भोजन सीमित कर रहे थे। धीरे धीरे हमने अपने भोजन को और भी संकरी समय खिड़की में समेटा। अब लगभग पौने दस घण्टे में भोजन कर रहे हैं। नित्य चौदह घण्टे से अधिक का उपवास हो रहा है।
यह सब परिवर्तन हम क्यों कर रहे हैं? उस सवाल के उत्तर देने के लिये पहले चक्रीय ताल के सिद्धांत पर जाया जाये। सच्चिदानंद पंडा जी का कहना है कि पृथ्वी पर दिन रात का चक्र होने के कारण जीव उसी के आधार पर सोने जागने का अपना चक्र चलाते हैं। प्रत्येक कोशिका में एक घड़ी है जो दिन रात के क्रम का आकलन करती है और उसी आधार पर कोशिका का संचालन होता है। जैसे किसी शहर की सभी घड़ियां शहर के क्लॉक टावर से मिलाई जाती थीं, वैसे ही शरीर की कोशिकाओं की घड़ियां दिमाग में उपस्थित मास्टर-क्लॉक से सिक्रोनाइज होती हैं। आधुनिक युग में जब हम दिन और रात का अनुशासन नहीं मान रहे तो यह हमारा यह मास्टर क्लॉक ही गड़बड़ा गया है। उस मास्टर घड़ी की गड़बड़ी से पेट की समस्यायें, अनिद्रा, तनाव, मधुमेह और यहां तक की केंसर भी – ये सभी उपजते हैं। पंडा जी के चूहों पर किये गये प्रयोग से यह सामने आया है कि अगर भोजन को नियत समय-खिड़की में अनुशसित कर दिया जाये तो मास्टर क्लॉक की सही मरम्मत की जा सकती है। जीवन सुधर सकता है। कालांतार में सीमित आधार पर मनुष्यों पर किये गये प्रयोग से यह धारणा सही प्रमाणित हुई है।
मैं अपना जीवन देखता हूं। रेलवे अधिकारी के रूप में दशकों से मेरी नौकरी अनियमित समय काम करने की रही। मेरा सवेरा पांच बजे शुरू होता था और देर रात तक फोन पर लगे रहना होता था। उसके अलावा भी कभी भी मुझे किसी अनहोनी घटना पर निर्णय देने के लिये रात में जगा दिया जाता था। और वैसी घटनायें होती ही रहती थीं। मेरा सरकेडियन रिद्म तो बहुत ही टूट गया था और यह टूटन दशकोंं से थी और अब भी है।
मेरे बब्बा प्राइमरी के हेड मास्टर थे। गांव में घर के आसपास ही उनकी जिंदगी चली। सवेरे भोर में उठते थे और दिन में एक बार ही भोजन करते थे। एकादशी को अलोना (बिना नमक का भोजन) किया करते थे। बिजली नहीं थी तो सूरज की रोशनी ही उनकी गतिविधियां चलाती थी। वे अपने समय के हिसाब से लम्बा जिये – अठ्ठासी साल। ज्यादा भी चलते, पर नब्बे के दशक के आते आते गांव में कुटुम्ब व्यवस्था का क्षरण होने लगा था और उनकी पर्याप्त देखभाल करने वाला नहीं था। तब वे हमारे पास शहर आये और शहरी जीवन उन्हें रास नहीं आया। गांव में उनका वही नियमित जीवन रहता तो वे शतायु जीवन पाते। उनकी मास्टर क्लॉक बहुत सही काम करती थी। वैसे भी वे घड़ी का प्रयोग नहींं करते थे। सूरज की रोशनी और उसमें छाया की लम्बाई से ही समय का आकलन किया करते थे।
अपने बब्बा – पण्डित महादेव प्रसाद पाण्डेय की तर्ज पर अगर मेरा भी सरकेडियन रिद्म सही हो जाये और मेरे पास वर्तमान चिकित्सकीय बैक-अप भी रहे तो शतायु जीवन सम्भव है। बावजूद इसके कि रेलवे की तनाव भरी अनियमित जिंदगी ने अनिद्रा, तनाव, उच्च रक्तचाप और मधुमेह प्रसाद के रूप में थमा दिये हैं, पर अब भी जीवन पटरी पर लाया जा सकता है। और इस विषय में सच्चिदानंद पंडा जी की रिसर्च आकर्षक लग रही है।
और मेरी पिछले दस सप्ताह में चक्रीय ताल की जद्दोजहद उसका प्रमाण देती है। पता नहीं सच्चिदानंद जी को उनकी रीसर्च में मेरी केस-स्टडी सहायक होगी या नहीं; पर मेरा प्रयोग कुछ प्रकार से अनूठा जरूर है –
- मेरे जीवन के चार दशक रेल परिचालन की चौबीसों घण्टे की काम में डूबी जिंदगी में सरकेडियन रिद्म बुरी तरह टूटा रहा है। पिछले तीन दशक मैं नित्य नींद की दवा के बल पर रहा हूं। ये दशक उच्च रक्तचाप के भी रहे हैं और दो दशक से डायबीटीज और थायराइड की दवा भी चलती रही है। कम से कम आधा दर्जन बार मैं एक सप्ताह या उससे अधिक समय के लिये अस्पताल में भांति भांति की व्याधियों से भरती रहा हूं। कई बार तो अस्पताल में मेरे सिरहाने फोन और परिचालन-कण्ट्रोल फोन भी दिया गया था जहां से मैं ट्रेनों के परिवहन से अवगत रहूं और आवश्यकता पड़ने पर निर्णय भी दे सकूं। बहुधा कार्य अस्पताल में भी पछियाये गया! मैं शिफ़्ट ड्यूटी में कभी नहीं रहा। उसके उलट मैं चौबीसों घण्टे की ड्यूटी पर पूरी कामकाजी जिंदगी बिताता रहा। :lol:
- मेरी पत्नीजी याद करती हैं कि तीन दशक पहले अस्पताल में मैं सरवाइकल दर्द में भरती था। मेरी परिचालन की पोजीशन शीटें, जो नित्य ट्रेन-परिचालन का तीस पन्ने का दस्तावेज हुआ करता था, मेरे कण्ट्रोल का चपरासी अस्पताल के कमरे में देने आया। डाक्टर साहब ने देख लिया और वह पोजीशन चपरासी से छीन कर जोर से चिल्लाये – तुम लोग अपने साहब को अस्पताल में भी नहीं छोड़ रहे हो। आगे से अस्पताल में घुसना मत!
- रिटायरमेण्ट के बाद यद्यपि मैने सारा तनाव छोड़ गांव में रीवर्स माईग्रेशन किया और एक साइकिल ले कर गांव-गंगा भ्रमण का रूटीन बनाया पर दवाओं ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। रेलवे अस्पताल से मंझले साइज का एक थैला भर दवायें हर महीना मुझे मिलती हैं। मेरी और मेरी पत्नीजी की दवायें। उनमें अधिकांश मेरे लिये होती हैं।
- सन 2023 के उत्तरार्ध में मैने तय किया कि बहुत हुआ। मैने नींद की दवा लेना बंद कर दिया। भीषण विथड्रॉवल सिम्प्टम्स हुये। पर वह सब मैने झेला। कई रातें अनिद्रा में गुजरीं। पर अंतत: दवा से अपना पीछा छुड़ा लिया। मेरी नींद बिना दवा के चार घण्टे की हुआ करने लगी। चार घण्टा नींद मानक से पूरी तरह अपर्याप्त है, पर यह भी मेरे लिये एक बड़ी उपलब्धि थी।
- अब चक्रीय ताल के दस सप्ताह के अनुशासन से नींद में एक पायदान आगे का लाभ हुआ है। मेरी नींद चार घंटे से बढ़ कर छ घण्टे से अधिक की हो गयी है। किसी किसी दिन तो आठ घण्टे भी सरलता से सो पा रहा हूं। उठने पर मेरी ऊर्जा का स्तर कहीं बेहतर है। रात में नौ बजे बिस्तर पर जाने के पंद्रह मिनट में नींद आ जा रही है। पहले घण्टों नींद आने की प्रतीक्षा किया करता था। इनसोम्निया की समस्या समाप्त ही हो गयी है।
- मेरा वजन भी, कई दशकों में पहली बार सामान्य की सीमा में आया है। रेल सेवा के दौरान यह 74 किलो हुआ करता था। एक बार तो 78 किलो तक भी गया। सन 2015 में रिटायरमेण्ट के समय 71-72 किलो था। धीरे धीरे गांव की जिंदगी में यह 68 किलो पर स्थिर हुआ। चक्रीय ताल के प्रयोग में शुरू में तेजी से वजन कम हुआ। शायद समय-कुसमय चरने पर अंकुश लगने से। उसके बाद कम होने की रफ्तार धीमी हुई पर अब भी वजन कम हो रहा है। इस समय मेरा वजन 63किलो है। चालीस साल में पहली बार मेरा बीएमआई 24 पर आया है, जो सामान्य वजन और ऊंचाई का अनुपात है। मैं Obase से Overweight होते हुये अब Normal Weight की सीमा में आ गया हूं। इस वजन कम होने के लाभ मुझे दिख रहे हैं। नींद बेहतर है, व्यग्रता लगभग मिट गई है और शरीर में ऊर्जा का स्तर बेहतर हुआ है।
- बेहतर नींद, व्यग्रता में कमी और वजन का सामान्य स्तर पर आ जाना – इन सब का लाभ मुझे मेरे मधुमेह (डायबीटीज) के आंकड़ों मेंं हुआ है। मेरा फास्टिंग शूगर 126-130एमजी/डीएल हुआ करता था। अब यह 110 से कम रहने लगा है। एक दिन तो यह 95 भी रिकार्ड किया मैने। मेरा तीन महीने का औसत एचबीएवनसी आंकड़ा 6.4 या उससे अधिक होता था। दो दिन पहले यह 6.2 आया। आगे तीन महीने बाद ही सही लाभ का आंकड़ा बन पायेगा, पर अब मुझे लगता है कि दो तीन महीने बाद मेरी मधुमेह और रक्तचाप की दवायें कम हो सकेंगी!
- आगे के जीवन के बारे में नजरिया बदला लगता है। पहले जीवन की दीर्घायु के लक्ष्य धुंधले लगते थे; अब उनमें स्पष्टता आती जा रही है। आशावादिता में अभूतपूर्व सुधार है। नकारात्मकता को चिमटी से पकड़ कर बाहर निकालने की इच्छा-शक्ति प्रबल होती जा रही है।

चक्रीय ताल के ये लाभ और लोगों को भी हो रहे होंगे। बिना किसी खर्चे के यह सब होने के कारण स्वास्थ्य उत्पादों और दवा कम्पनियों को निश्चय ही कष्ट हो रहा होगा। एक स्टडी सामने आ रही है कि चक्रीय ताल के प्रयोग से दिल की बीमारी बढ़ने की सम्भावना है। यह स्टडी बिना किसी पीयर रिव्यू के और अपर्याप्त तथा संदिग्ध आंकड़ों पर आर्धारित है। मेरे ख्याल से यह सब चक्रीय ताल की सही अवधारणा से लोगों को भ्रमित करना और सरकेडियन रिद्म के शोध को डीरेल करना है।
मैं और मेरी पत्नीजी सच्चिदानंद जी की रीसर्च से बम बम हैं। पंडा जी की जय हो! :-)
[पोस्ट के हेडर और सच्चिदानंद पंडा जी विषयक चित्र उनसे सम्बंध इंटरनेट सामग्री के स्क्रीनशॉट हैं]

अरे वाह… स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के अलावा इतना कुछ एक साथ… पढ़ने, जानने और समझने को मिला कि बस आनंद आ गया। 😊
आगे भी ऐसे ही ज्ञानवर्धक और अनुकरणीय posts की प्रतीक्षा रहेगी.
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वाह, हालांकि मैं अपने स्तर पर खान पान में सुधार कर रहा हूं, लेकिन पाण्डाजी को सुनना पड़ेगा लगता है।
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ये कोई नई खोज या अवधारणा पांडा जि नही खोजी है /यूरोपीय देशों और भारतीय उपमहाद्वीप के वातावरण मौसम एशिया महाद्वीप के देश काल परिसतिथि जीवन चर्या दिन चर्या ऋतु चर्या सब अलग अलग है और एक जैसी नही है/पूरे यूरोप मे जिस तरह का वातावरण है वैसा एशिया के देशों मे नही है /मिडल ईस्ट का वातावरण तो बहुत खराब है/मै ऐसा इसलिए कह रहा हू क्योंकि मैंने यूरोप के सभी देशों मे जा चुका हू वहा रहा हू और एशिया के पूर्व,उत्तर और पश्चिम की तरफ के देशों मे जा चुका हू और वहा रहा हू/इसलिए मुझे पता है की वहा के खान पान रहन सहन मे भारतीय स्तिथि जैसी नहीं है/पूरे यूरोप मे लोग सुबह उठाते ही कुछ न कुछ खाते रहते है/हर दो घंटे मे कुछ न कुछ कहते है और रात तक खाते रहते है/इनका लंच और डिनर सब एक मे ही समाहित है/कब सो रहे है और कब जग रहे है ऐसी अस्तव्यस्त दिनचर्या पूरे यूरोप की है/यूरोपवासी उपवास नहीं जानते की किस चिड़िया का नाम है/इनको ये पता चल जाए की पुनर्नवा की सब्जी खाने से फलानी फलानी धिकानी धिकानी चीजों मे फायदा होता है तो सारा यूरोप पुनर्नवा के ऊपर टूट पड़ेगा/वहा की पारिवारिक स्तिथिया हमारे यहा से भिन्न है/आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा विज्ञान है इसके दो भाग है पहला भाग स्वास्थ्य रक्षा का है ,जिसमे यह बताया गया है की मनुष्य को दीर्घ जीवन की प्राप्ति के लिए क्या क्या उपाय करना चाहिए,इन उपायों को दिन चर्या,रात्री चर्या,ऋतु चर्या देश,काल,बातावरण आदि आदि स्तिथियों के अनुसार आयुर्वेद के मनीशियों ने बताया है/स्वास्थ्य रक्षा कैसे की जा सकती है इसके बारे मे आयुर्वेद के ग्रंथों मे बहुत विस्तार से दिया गया है/आयुर्वेद का दूसरा भाग सभी को यह ज्ञान देता है की अगर शरीर बीमार हो जाए तो क्या उपाय करे जिससे अस्वास्थय की अवस्था को स्वस्थता मे पूर्ण किया जाए/हमारे देश के कुछ विद्वान भारत के प्राचीन ज्ञान को नया बताकर सारी दुनिया को बेवकूफ बना रहे है/इसका कारण ये है की भारत के अलावा दूसरे देशों के लोगों को आयुर्वेद के बारे मे बहुत सतही जानकारी है और इसी का फायदा वे भारतीय उठाते है जो नया प्रोज कर वह वाही लूट ले/वैसे भी अमेरिका अफ्रीका एशिया आस्ट्रेलिया और यूरोप के लोगों को आयुर्वेद की ऐसी जानकारी के बारे मे पता ही नही है/जिसका फायदा सभी उठाते है/
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आप सही कहते हैं। चक्रीय ताल के आधार पर गांव में अभी भी अनेक लोगों को जीवन जीते देखा जा सकता है। मेरे बाबा या सच्चिदानंद पंडाजी के बाबा कोई अपवाद नहीं हैं। यह अवश्य है कि पंडा जी ने चूहों पर प्रयोगों के आधार पर उसे वेलीडेट किया है।
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अरे वाह सर, आज मैं भी चार बजे जग गया. फिलहाल नहाने के बाद आपका ब्लॉग देखने हेतु इंटरनेट पर आया तो इसे पढ़कर सुखद अनुभूति हुई. लगता है कि जल्दी ही फैसला करना ही पड़ेगा, अन्यथा नौकरी तो न जाने क्या क्या अलामतें दे देगी. सरकारी नौकरी निजी से ज्यादा रूड हो गयी है, यहाँ तो लाला को भी नहीं बदला जा सकता. कम से कम निजी में ये सुविधा तो है. और जरूरतें शायद सबकी पूरी हो जाती हैं, इच्छायें कभी नहीं. वैसे भी सरकारी नौकरी उसको करनी चाहिये जो अपने लिए राजा मानता हो, सेवक मानने वाले को तो कभी नहीं.
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आपको शुभकामनायें।
इस विधा में एक सहूलियत मुझे लग रही है कि आपको अपना लाला नहीं बदलना। आपको अपने खान पान पर भी केलोरी कैल्कुलेटर ले कर नहीं पिल पड़ना। आपको बस उसी समय खाना है जब आदि मानव खाता था। आप आवश्यक व्यायाम भी करते रहें – मसलन 6-7 हजार कदम चलते रहें तो नींद भी धीरे धीरे ठीक हो जायेगी। :-)
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अरे वाह सर, आज मैं भी चार बजे जग गया. फिलहाल नहाने के बाद आपका ब्लॉग देखने हेतु इंटरनेट पर आया तो इसे पढ़कर सुखद अनुभूति हुई. लगता है कि जल्दी ही फैसला करना ही पड़ेगा, अन्यथा नौकरी तो न जाने क्या क्या अलामतें दे देगी. सरकारी नौकरी निजी से ज्यादा रूड हो गयी है, यहाँ तो लाला को भी नहीं बदला जा सकता. कम से कम निजी में ये सुविधा तो है. और जरूरतें शायद सबकी पूरी हो जाती हैं, इच्छायें कभी नहीं. वैसे भी सरकारी नौकरी उसको करनी चाहिये जो अपने लिए राजा मानता हो, सेवक मानने वाले को तो कभी नहीं.
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