तुलसीपुर प्राइमरी स्कूल के क्वारेण्टाइन सेण्टर में बम्बई से आया एक परिवार रखा गया था। वह अवधि पूरा किये बिना घर चला गया और उसमें से एक बालक डायरिया से मर गया।” 😦
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प्रवासी मजदूर – मुख्यमंत्री की लताड़ से ही हरकत में आया प्रशासन
पिछले डेढ़ महीने से सड़कों पर आती भीड़ नहीं दिखी जिलाधीशों को? मानवता की “न भूतो न भविष्यति” वाली त्रासदी सड़कों पर लटपटाती डोलती रही और इन मित्रों को नजर नहीं आया?
गांव के इन नौजवानों ने मेरा नजरिया बदलना शुरू कर दिया है
इन नौजवानों के चरित्र/व्यक्तित्व में बहुत सशक्त परिवर्तन हो रहे हैं। …
वे मानवता के देवदूत बन कर उभर रहे हैं!
गांव को लौटते हतप्रभ और हारे श्रमिकों को भोजन
गरीब और विपन्न हैं। छ दिन पैदल चलने पर शरीर और मन टूट गया है। पर फिर भी अपने जेठ का आदर और किसी बाहरी के देखने पर मुंंह छिपा लेने का शिष्टाचार अभी उनमें बरकरार है।
उन्होने लॉकडाउन में हजारों घर लौटते श्रमिकों को भोजन कराया
सुशील ने जितना बताया उससे यह तो स्पष्ट हुआ कि गांव में भी उत्साही और रचनात्मक लोगों की कमी नहीं है। वर्ना मेरा सोचना था कि यह गांव बड़बोले और अकर्मण्य निठल्लों का गांव है। गांव के प्रति मेरी धारणा बदल गयी।
माणिक सेठ कहते हैं जिंदगी गोलों में बंध गयी है
“अब बस यही गोले हैं, और गोलों में खड़े ग्राहक। जिंदगी गोलों में बंध गयी है। पता नहीं कितने दिन चलेगा। शायद लम्बा ही चलेगा!” – माणिक कहते हैं।