घर में बैठे बैठे/लेटे लेटे शरीर अकड़ रहा है। ऑस्टियोअर्थराइटिस है, इसलिये चहलकदमी सीमित है। घर के परिसर में उसके बढ़ाये जाने की सम्भावना नहीं बनती। लॉकडाउन को दस दिन हो चुके हैं। भोजन में यद्यपि अति नहीं है, रक्तचाप और डायबिटीज पूर्णत: नियंत्रित है; पर अनिद्रा की समस्या उभर रही है। पहले सवेरे लगभग 12 किलोमीटर साइकिल भ्रमण हुआ करता था। अब वह नहीं हो रहा।
इसलिये लगा कि सामाजिक आदान-प्रदान की सम्भावनाओं को नकारते हुये आसपास की ग्रामीण सड़कों और पगडण्डियों पर जाया जा सकता है। एहतियात के लिये यह तय किया कि अपने हाथ से अपना मुँह पूरी साइकिल सैर के दौरान टच न किया जाये और आपात व्यवस्था के लिये पास में सेनीटाइजर की शीशी रखी जाये।
यह विचार कर आज सवेरे निकला। यात्रा का खाका मन में बना लिया था कि गांवों की बस्तियों से दूर रहा जाये। ग्रामीण सड़कों पर अगर लोग नजर आयें तो उनसे कगरिया कर निकला जाये, बिना रुके। अगर रुकने की नौबत भी आये तो कम से कम 10 फिट की दूरी बना कर रखी जाये।

ग्रामीण सड़कें लगभग खाली थीं। कुछ स्पॉट थे, जहां लोगों के होने की सम्भावना थी। उनसे दूरी बना कर निकलना था। सवेरे लोग अलसाये से उठे थे और आपस में बोल बतिया रहे थे।

अचानक डईनियाँ और कोलाहलपुर के बीच एक ठेला लिये आदमी और बच्चा आते दिखे। ठेले पर सब्जी ताजा लग रही थी। सवेरे सवेरे निकल लिया है यह बंदा सब्जी ले कर। आवाज भी लगाये जा रहा है बेचने के लिये। बाहर निकलने और बेचने में एक रिस्क तो ले ही रहा है। पर काम न करेगा तो काम कैसे चलेगा? गांव है तो ठेला ले कर निकल ले रहा है। शहर में तो निकल भी न पाता।
वह मुँह पर मास्क (ग्रामीण भाषा में – खोंचा) लगाये था। वह भी कोरोना विषाणु के बारे में उतना ही सतर्क था, जितना मैं। दिख रहा है कि हर आदमी पूरी सावधानी बरतते हुये अपने कामधाम में लगा है।

द्वारिकापुर में गंगा किनारे आने के पहले गांव के छोर पर गड़रिये का भेड़-बकरी का बाड़ा है। अभी सवेरा हुआ ही था और भेड़ें बाड़े में ही थीं। भेड़ें भी साफ सफाई मांगती होंगी। चारा भी। दिन में छ घण्टा इन्हे चराता होगा गड़रिया। आसपास के इलाके में ही जाता होगा और पानी पिलाने के लिये दिन में दो बार गंगा के किनारे ले जाता होगा। किस तरह सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करता होगा वह? या वह जानता भी होगा कि सोशल डिस्टेंसिंग क्या चीज है?

गंगा किनारे जाने के लिये बालू ढुलाई करने वालों के ट्रेक्टर जाने के रास्ते को चुना मैंने। मुख्य घाट पर नहाने वाले होने और उसमें से किसी के परिचित निकल जाने की सम्भावना को देखते हुये वहां जाना ठीक नहीं समझा।
इस रास्ते में तेज ढलान थी। करीब 150 मीटर का रास्ता। पाया कि पूरे रास्ते किनारे पर बांस गाड़ कर बिजली का तार खींचा गया है – गंगा तट पर रोशनी की व्यवस्था के लिये। आजकल तो लॉकडाउन में खनन कार्य बंद है; वर्ना 24X7 काम का इंतजाम कर रखा था उद्यमियों ने। रविशंकर जी (जो पुरातत्ववेत्ता हैं) ने कहा था कि जातक में उल्लेख है द्वारग्राम (द्वारिकापुर) का एक कुम्हारों की बस्ती के रूप में। कुम्हार तब रहे होंगे यहां। फिलहाल तो यह गांव/बस्ती गंगा की बालू का वैधावैध खनन का ही है।

गंगा तट पर बालू का ढेर नहीं दिखा। केवल नावें किनारे पर लगी हुई थीं। कुछ कौव्वे – ज्यादातर डोमरा कौव्वे (पूरे काले और ज्यादा बड़े आकार के) वहां मिले। जगह एक नावों के डॉक-यार्ड सरीखी थी जिसमें बालू की परत दिख रही थी। एक दो कुत्ते अलसाये से बालू के बचे अंश पर लेटे थे। मुझे देख थोड़ा कुनमुनाये-गुर्राये। फिर मेरा आना निरापद मान कर पसर गये।
(दो आदमी रस्सी से नाव टो कर रहे थे)
करीब दस मिनट रहा मैं गंगा तट पर। नदी में आगे दूर दो आदमी नहाते नजर आये। सामान्यत: 8-10 लोग होते थे। आजकल नित्य स्नान करने वाले भी नहीं हैं। कोई ज्यादा एक्टिविटी नहीं थी। एक नाव जरूर गुजरी किनारे किनारे गंगा की धारा के विपरीत – पश्चिम दिशा में जाती। उसे गंगा किनारे पैदल चलते दो व्यक्ति रस्सी से खींच रहे थे। मेरे पास बेहतर कैमरा नहीं था उनकी गतिविधि रिकार्ड करने के लिये। मछेरों की नाव थी। नाव पर जाल लादे दो लोग सवार थे।

वापसी में देखा तो एक पतली सी जींस-शर्ट पहने गड़रिये की लड़की बाड़ा खोल कर रेवड़ चराने ले जा रही थी। गांव देहात के परिवेश के हिसाब से उसके कपड़े अलग प्रकार के थे। पर वह उसे ले कर कॉन्शस हो रही हो, ऐसा नहीं लगता था। शायद वह उस उम्र में अभी प्रवेश ही कर रही थी, जिसमें कॉन्शस होने की शुरुआत होती है। अगर मैं पाउलो कोहेलो के उपन्यास “कीमियागर” के हीरो की उम्र का होता तो उस लड़की में मेरी दिलचस्पी होती। … बेचारी रेवड़ चराते चराते जिंदगी गुजार देगी। भारत विचित्र देश है। एक साथ तीन चार शताब्दियों में जीता है यह देश।
रेवड़ के सड़क पार करते समय मुझे साइकिल रोकनी पड़ी। वह लड़की और एक महिला उन्हे अगियाबीर के टीले की ओर हाँक ले गये। शाम तक ही वापस लौटेंगे?

गांव पार करने पर देखा कि कई लोग अपनी गायों-भैंसों-बकरियों को ले कर चराने निकल पड़े थे। औरतें निराई-कटाई में लग गयी थीं। एक दो आदमी, अधनंगे मुंह में मुखारी/टूथ ब्रश दाबे भी मिले। लोग कामधाम में लगने लगे थे। गांवदेहात पूरी तरह चैतन्य हो गया था। सड़क पर चलने वाले नहीं थे। मुझे नमस्कार पैलगी करने वाले दो चार मिले। उनको मैं व्यक्तिगत तौर से नहीं जानता। वे जानते होंगे। शहरी आदमी गांव में बस गया है, इस आधार पर मेरी पहचान है। और जैसा लगता है, लोग मुझे माइन्यूट-ली ऑब्जर्व करते हैं।
कोलाहलपुर और डईनियाँ के बीच पाही पर रहने वाली बुढ़िया महिला दूर से ही मुझसे बोली – आज कहां से होई क आवत हयअ (आज कहां जा कर आ रहे हो)?
वह महिला सत्तर साल के आसपास होगी। अपनी जवानी में सुंदर रही होगी। वाचाल है। एक बार मुझे रोक कर अपनी कथा सुनाई थी। उसके रिश्तेदारों ने जमीन के झगड़े में बहुत तंग किया था उसके परिवार को। (बकौल उसके) उन्होने उसके एक जवान लड़के की गला रेत कर हत्या भी कर दी थी। मैं अगर कथाकार होता तो उसकी कथा पर एक कथा या उपन्यास (?) बुन चुका होता।
जब यह लॉकडाउन फेज खत्म होगा तो एक दिन उसके पास रुक कर बातचीत करूंगा – कैसे रहा करोना लॉकडाउन का समय।

साइकिल रोकने का एक निमित्त मिला – यह भूसा ढोने वाला ट्रेक्टर। सवेरे सवेरे काम पर लग गया था। लगता है एक घण्टा पहले निकलना चाहिये साइकिल ले कर। अन्यथा लोग काम धंधे पर लग जाते हैं और सड़क उतनी वीरान नहीं रहती, जितनी अपेक्षा करता था मैं।
मैं सोचने लगा कि चलती साइकिल से, या रोक कर बिना साइकिल से उतरे, पर आसपास के चित्र लेना और अपना भी चित्र लेना सीख गया हूं, बतौर ब्लॉगर। अभी शायद आठ-दस साल यह कलाकारी दिखा सकूंगा। उसके बाद वृद्धावस्था जैसे जैसे हावी होगी, वैसे वैसे साइकिल पर घूमना, देखना, लिखना शायद संकुचित होता जाये। जब तक यह एक्रोबैटिक्स चल रही है, तब तक चलाने का पूरा मन है। जीवन का रस कस कर निचोड़ना है, जीडी!

आगे, घर के पास बच्चे सड़क पर खेलने निकल लिये थे। वे अपनी गायें-बकरियाँ चराने ले आये थे और गोरू हाँकने के डण्डे तथा प्लास्टिक की एक गेंद से रगबी जैसा कोई खेल खेल रहे थे। उनपर कोविड19 का कोई प्रभाव नहीं दिखता था।
घर आने पर मैने अपने हाथ सबुन से विधिवत 20 सेकेंड नहीं, लगभग एक मिनट तक धोये। मुँह भी साफ किया।
आज तो आना-जाना मिला कर कुल आठ किलोमीटर साइकिल चला आया। पर बड़ा सवाल अभी मन में है कि कोरोना-संक्रमण कितना फैलेगा? लॉकडाउन कितना चलेगा? अर्थव्यवस्था कितने समय तक मंदी में रहेगी? और अर्थव्यवस्था के डिसलोकेशन का मेरे ऊपर इस गांव में कितना असर होगा, जहां दूध, अनाज और सब्जी की उपलब्धता लगभग सामान्य रहने की सम्भावना है?
मेरा अनुमान है कि मूलभूत स्तर की जिंदगी ठाठ से जीने के सभी साधन गांव में उपलब्ध हैं। मंदी और मन्हगाई को ठेंगे पर रख कर यहाँ जिया जा सकता है। बस कागज, कलम, किण्डल और इण्टरनेट की व्यवस्था भर रहे। और अस्पताल में भर्ती होने की नौबत न आये।
पर, इस इलाके में भी इक्कादुक्का कोरोना संक्रमण के केस अगर खबर में आये तो शायद सतर्कता के आधार पर गांव की सड़कों (पर बिना किसी से मिले भी) निकलने पर भारी पड़े।
जीवन ऐसे ही तोलने-सोचने-पढ़ने और चलने का नाम है!
आपके साथ हमने भी यात्रा कर ली। कोरोना के लॉकडाउन में अच्छी यात्रा कर ली आपने। गाँव अभी इस कोरोना की चपेट से मुक्त है और उधर रोजमर्रे की जीवन में असर कम हुआ है। हाँ, ठेले वाले भाई लोग शहर में भी निकल रहे हैं। मेरे मोहल्ले में लोग अक्सर सब्जी फल इत्यादि बेचने के लिए आते हैं। जिन माता जी से आप मिले उनके विषय में जानकार उनकी कहानी जानने को मन उत्सुक हो गया है। हो सके तो लिखियेगा उनकी कहानी भी।
गाँव के जीवन के विषय में आपके ख्याल से सहमत हूँ कि अगर स्वास्थय अच्छा है तो गाँव में अच्छी जीवन शैली जीने के लिए कम ही खर्चे की आवश्यकता होता है। मैं एक कस्बे से आता हूँ और फ़िलहाल अभी गुरुग्राम में रह रहा हूँ। मेरे कस्बे में भी अच्छा जीवन जीने के लिए शहर से काफी कम पैसे ही लगते हैं। गाँव में तो और भी कम होंगे। अपने खेत हों तो और बेहतर होता है। सब कुछ उगाया जा सकता है।
कोरोना का अलग अलग क्षेत्रों में प्रभाव तो हमे दिखने को मिलेगा। लेकिन उम्मीद है जल्द ही हम लोग इससे उभर लेंगे।
अगले लेख की प्रतीक्षा रहेगी।
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