आज रीता पाण्डेय ने लिखा, पढ़िये उनकी अतिथि-पोस्ट :-
आज दोपहर में एक फ़ोन आया। बड़े प्यार से पूछा – बेबी दीदी?
मैं अचकचा गयी। आवाज पहचान में नहीं आ रही थी। उसने हंस कर कहा – अन्दाज लगाइये। हम पड़ोस में रहते थे। मैं कोई अन्दाज न लगा सकी तो अन्त में उसने ही समाधान किया – मैं मुन्ना बोल रहा हूं।
मैं दंग रह गयी। तीन-चार दशकों बाद उसकी आवाज सुन रही थी। आश्चर्य की बात थी कि कैसे उसे मेरा मोबाइल नम्बर मिला? उसी ने बताया कि आज उसने गुड्डू भईया, टुन्नू भईया (मेरे भाई। एक बन्गलोर में रहता है, दूसरा बनारस/गांव में) आदि से भी बात की।
वाह कोरोना! वाह लॉकडाउन! इनके चक्कर में भूले बिसरे लोग-रिश्ते जुड़ रहे हैं। न आदमी घर में बन्द होता, न अतीत की याद करता और न बचपन के सम्बन्ध खोजता।
मुन्ना का परिवार मेरे बचपन की स्मृतियों से जुड़ा है। मारवाड़िन आण्टी बनारस कैण्ट में हम लोगों की पड़ोसी थीं। हमारा पूर्वांचल का गांव से आ कर वाराणसी में बसने वाला परिवार था। वे लोग मारवाड़ी थे और मारवाड़ी अपने व्यवसाय के चक्कर में किसी तरह बनारस में आये और बस गये थे। हम दोनों परिवारों की आर्थिक स्थिति एक सी थी और एक दूसरे के रहन सहन से बहुत कुछ सीखते थे हम। एक दूसरे की किचन से बहुत कुछ आदान प्रदान होता था। हम दोनों परिवार किराये के मकान में थे। कालान्तर में अपने अपने रास्ते चले गये और सम्पर्क धीरे धीरे खत्म हो गये।
मुन्ना उन आंटी जी का लड़का है।
आज मुन्ना का वह सम्पर्क रिवाइव करना बहुत भला लगा।
कुछ दिनों पहले तक आदमी रेस में लगा था। किसी को किसी से बात करने की फ़ुर्सत नहीं थी। घर में आराम से बैठा आदमी बड़ी हेय दृष्टि से देखा जाता था। समृद्धि और सम्पन्नता के लिये लोग गांव से शहर और शहर से परदेस की दौड़ लगा रहे थे। रोजगार और व्यवसाय इन्ही जगहों पर केन्द्रित हैं।
अब मन में सपने उठते हैं कि क्या सरकार उद्योगों को विकेन्द्रित कर सकेगी या करेगी? क्या उत्तर-कोरोना युग में गृह उद्योग को बढ़ावा मिलेगा?

सालों पहले जब बिजली गांव गांव पंहुच गयी तो गुजरात जैसे राज्य में छोटे छोटे उद्योग धन्धे गांव में पंहुच गये। मसलन हीरे तराशने, कपड़े की रंगाई/छपाई जैसे काम।

सुनने में आता है कि स्विस घड़ियों की कोई बड़ी फेक्टरी नहीं है। उसके कलपुर्जे पूरे देश में बनते हैं। और असेम्बल हो कर पूरे विश्व में वहां की घड़ियों का डंका बजाते हैं। गिग अर्थव्यवस्था में स्विग्गी और जोमेटो इसी पद्धति पर काम करते हुये घर की किचन को पूरे बाजर तक ले जा सकते हैं।
आजकल घर में बैठे बैठे आगे आने वाले युग के लिये सपने देखने का बहुत अवसर मिलता है। मन में आस जगती है। शायद मोदी जी ऐसा कुछ करने कराने की दिशा में चलें और देश को चलायें। पिछले महीनों में बहुत कुछ अभूतपूर्व हुआ है। धारा 370 का सरलता से हटना और राममन्दिर बनने का मार्ग प्रशस्त होना तो कोई सोच भी नहीं सकता था। अब सपने देखने और उनके फ़लीभूत होने की आस पहले से कहीं ज्यादा प्रबल है। उत्तर-कोरोना युग और अच्छा, और शानदार होगा; ऐसा सपना देखने में कोई बुराई नहीं।
सपने सच होंगे, यह आस रखी जाये।
प्रिय रीता ,
तुम्हारा लेख पढ़ा, कोई आश्चर्य नहीं हुआ, कारण ,मैंअपनी सखी की संवेदनशीलता से परिचित थी । बस यही कहूंगी कि और लिखो, वैसे ही काफ़ी दिन निकाल दिए इस गहन वैचारिक अभिव्यंजना की प्रस्तुति में। बहुत सराहनीय लेखन। बधाई ।
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चाची जी को प्रणाम पहुंचे।
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शेष विश्व के लिए संभवतः इतना बेहतर ना हो, लेकिन भारत के लिए अनन्त आशाएं हैं।
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आपने बहुत सही कहा कि कोरोना ने पुराने रिश्तों से एक बार फिर जुड़ने का मौक़ा दे दिया है।यह इसका एक सकारात्मक पहलू है। आभार।
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