गांव का नाई

ट्विटर और फ़ेसबुक पर कई लोगों ने हजामत सम्बन्धी लॉकडाउन युगीय पीड़ा व्यक्त की है। उनका कहना है कि लॉकडाउन से उबर कर जब बाहर आयेंगे तो बहुत से मित्रों को उनकी शक्ल पहचान में नहीं आयेगी। कुछ का कहना है कि बाल-दाढ़ी-मूंछ इतने बढ़े होंगे कि वे भालू लगेंगे।

इसमें निश्चय ही अतिशयोक्ति है। पर यह जरूर है कि नाई की दुकान शहरों में बन्द है। गांव में उतनी दारुण दशा नहीं है।

यहां कटका स्टेशन के सामने नाऊ की तीन चार गुमटियां हैं। एक ही पट्टीदारी के तीन चार नाऊ वहां सवेरे से काम पर लग जाते थे। आजकल वहां सन्नाटा है। पुलीस वाले रेलवे स्टेशन के आसपास आते रहते हैं। इस लिये वहां केवल पाल का मेडिकल स्टोर खुलता है। बाकी दुकानें बन्द रहती हैं। चाय समोसे वाले भी यदा कदा चोरी छिपे बना-बेच लें; वर्ना उनकी चट्टी भी बन्द है।

हमारा ऑफ़ीशियल नाऊ – सुन्दर शर्मा की भी वहां गुमटी है। आजकल बन्द रहती है। उसे घर बुलाया था। अपनी कैंची, कंघी दी और उसके अन्य उपकरण साबुन से धुलवा कर सेनीटाइजर भी मला उनपर। तब उसने बाल काटे। सो हमारा काम तो चल गया।

आज एक गांव में, प्रधानमन्त्री ग्रामीण सड़क के किनारे दो नाऊ की गुमटियां आबाद दिखीं। उनके पास करीब चार साइकलें खड़ी थीं। दो नाई काम पर लगे थे और आधा दर्जन लोग वेटिंग लिस्ट में थे। नाई द्वय के लिये बिजनेस जोरदार था।

कहीं कहीं लोग खोंचा (मास्क या गमछा) मुंह पर लगाये सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन करते नजर आते हैं और कहीं कहीं इस उलट प्रकार के दृष्य भी दिखते हैं। … लोग सिर के बाल तो क्या, रोज रोज की दाढ़ी बनवाने के लिये भी नाऊ की सेवाओं का उपभोग कर रहे हैं। अपनी शेव भी खुद नहीं बनाते। शहर में यह रईसी कहां!

अभी सवेरे के सात भी नहीं बजे थे और इतने लोगों की आमद! मैं सोशल डिस्टेन्सिन्ग का पालन कर रहा था, इसलिये वहां रुका नहीं। वर्ना साइकिल से उतर कर रेट पूछता – लॉकडाउन के चक्कर में नाई ने रेट तो नहीं बढ़ा दिये? … वैसे गांव वाले एक अधेला एक्स्ट्रा नहीं देते। कुछ तो उधारी हेयर कट करवाने/दाढ़ी बनवाने में यकीन करते हैं।

हां, नाई और कई ग्राहक मास्क लगाये-लटकाये जरूर थे। कोरोना वायरस का कुछ लिहाज तो कर रहे हैं लोग।

शहर और गांव – दोनों में लॉकडाउन है पर दोनो लॉकडाउन की प्रकृति में अन्तर है। कोरोना भारत में हवाई जहाज से उतरा है और शहरों के इर्दगिर्द मंडरा रहा है। वह इण्टीरियर मे जितना घुसा है उतना गहन वहां लॉकडाउन हुआ है।


नाई की दुकान में जाने की आवृति क्या होनी चाहिये?

मैं कभी फ़ैशनेबल नहीं रहा। बचपन से ही कोई चार्म नहीं था बालों के साथ। पिताजी नहीं चाहते थे कि बाल लम्बे हों। नाई को बाल आधा इन्च से ज्यादा न रहने देने के निर्देश हुआ करते थे। वही आदत चलती रही। उसका परिणाम यह हुआ कि बिट्स, पिलानी के दिनों में कोई लड़की हम पर मोहित ही न हुई। राजेश खन्ना स्टाइल बालों का जमाना था और हमारे बाल किसी रन्गरूट की तरह होते थे – क्र्यू-कट। सो बचपन से ही नाई के पास जाने की आवृति एक महीने से ज्यादा नहीं रही। बाल बढ़ ही न पाते थे।

ज्यों ज्यों उम्र बढ़ी, बाल महीन होते गये। पीछे का एक हिस्सा लगभग खाली भी हो गया। अब बाल दो-ढाई महीने में भी इतने नहीं बढ़ते कि नाऊ ठाकुर के दर्शन किये जायें। ढाई महीने बाद भी आवश्यकता महसूस होती है कि नाई केवल साइड के और पीछे के बाल ठीक कर दे। खत बना दे और कानों पर उग आये बालों को कैंची से निप कर दे। इस जरा से काम के लिये जब वह पूरी हेयर कटिंग का चार्ज लेता है तो व्यक्तित्व में छिपे कन्जूस जी को बड़ा कष्ट होता है।

आप कितने दिन बाद नाऊ ठाकुर के दर्शन करते हैं?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “गांव का नाई

  1. कुछ चित्र हैं ब्लॉग में, काका जी (पिताजी) बेल्थरा रोड में पोस्टेड थे अंतिम पोस्टिंग के दिनों में, शायद रेलवे ने उन्हें धीरे से समय से पहले बिना काम वाली जगह पर रिटायरमेंट की ट्रेनिंग लेने भेज दिया था छपरा से । पर बेल्थरा रोड कस्बा काफी अच्छा लगता था । निवास के बाद कुछ दूरी पर कस्बे से हटकर बिल्कुल इसी तरह की क्रॉसिंग और कुछ गुमटियां थी । शांत पर जीवंत गुमटियां । बहुत कुछ यादें कुछ टीस भी वह जीवंतता छोड़ने की। आज फिर से वह यादें जीवंत हो गई ।

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  2. अपने बड़ों की आज्ञा मानना सदा ही लाभप्रद होता है, सुना था, अनुभव भी किया था, मगर न केवल अभिव्यक्ति की ऐसी सरस मौलिकता काबिल- ए- तारीफ़ है, बल्कि लेखक की लेखनी भी बधाई की पात्र है। आपकी सुंदर सहज- सहज प्रस्तुति और जीवन से जुड़े प्रासंगिक विषय सदा ही पाठक का मन बांध लेते हैं।
    धन्यवाद।

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  3. प्रणाम 🙏,
    “बचपन से ही कोई चार्म नहीं था बालों के साथ। पिताजी नहीं चाहते थे कि बाल लम्बे हों। नाई को बाल आधा इन्च से ज्यादा न रहने देने के निर्देश हुआ करते थे। वही आदत चलती रही।”
    यही दशा हमारी भी है, महीने में एक बार ही जाना होता है, दाढ़ी स्वयं बनाते हैं, कक्षा दस तक घर थे, इस्लाम चाचा बाल बना देते थे, अब तो खैर कालेज में है, लेकिन बाल
    छोटे ही रखते हैं, आदत में आ गया है|

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