
मई 21, 2020, विक्रमपुर, भदोही
मेरे गांव के सखा गुन्नीलाल पाण्डेय मुझे आज सवेरे हरिशंकर पाल से मिलवाने अगियाबीर की गड़रियों की बस्ती में ले गये। मैं गुन्नी पांड़े के घर सवेरे गया था। वे अपनी साइकिल पर बैठ, मुझे साथ ले कर निकले। गड़रियों के घर अगियाबीर के पश्चिमी किनारे पर हैं। वह मिर्जापुर जिले में है। उनकी बस्ती के बाद एक नाला है और नाले के बाद भदोही जिले का सीमावर्ती गांव आता है द्वारिकापुर। गुन्नीपांड़े ने मुझे हरिशंकर के बारे में पहले बताया था। आज उनसे हरिशंकर से मिलवाने की इच्छा जाहिर की तो पांड़ेजी मिलवाने ले आये।
हरिशंकर उधना (सूरत) से घर लौटे हैं। लॉकडाउन में काफी समय तक सूरत में ही रहे। पर जब काम नहीं चला और गुजारा चलाने में समस्या होने लगी तो थक हार कर वापस लौटने की सोची। वापसी के लिये रजिस्ट्रेशन कराया। बस का इंतजाम होने में देर लगी। सूचना मिलने पर उधना में पांच किलोमीटर पैदल चल कर बस पकड़ने आये तो पता चला कि मिर्जापुर की बस है ही नहीं। अचानक एक बस का, भाग्य से, इंतजाम हुआ। उसमें जगह भी मिल गयी। उससे सहूलियत से घर आये। रास्ते में महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश की सीमा पर रुकना पड़ा। इन जगहों पर काफी जांच पड़ताल के बाद बस को आगे जाने का रास्ता मिला। घर आने पर भी चौदह दिन घर से अलग थलग गुजारे। परिवार वालों ने भी कहा कि दूरी बनाये रखें।

सूरत में हरिशंकर फल सब्जी की लॉरी (सम्भवत: ठेला) चलाते थे। बनारस के एक बाबू साहब के कमरे में किराये पर रहते थे। अभी भी वहीं पर उनका दस हजार का सामान पड़ा है। जब वहां से छोड़ कर वापस आये तो मनस्थिति यही थी, कि चाहे जो हो जाये, वापस नहीं लौटना है। अब शायद उतनी गहराई से वह फीलिंग नहीं है, पर वापस वहां जाने का विचार मन में नहीं आता। सूरत से वापसी के लिये बस का इंतजाम गुजरात सरकार ने बहुत अच्छे से किया। वहां रहते हुये लोगों की तंग हालत होने पर भोजन आदि का इंतजाम किया गया था। पर “पचास लोगों को तहरी खिला कर हजार लोगों को खाना खिलाने का प्रचार करते थे वे। अगर दिन में तीन बार भोजन का इंतजाम हो जाता तो इतनी बड़ी संख्या में लोग छोड़ छोड़ कर नहीं निकल पड़ते।“
हरिशंकर मोदी और योगी की प्रशंसा करते हैं। इस हिसाब से न्यूयॉर्क टाइम्स में जो मोदी की लोकप्रियता बढ़ने की बात कही जाती है, वह सही प्रतीत होती है। हरिशंकर की बस्ती में पांच सात और लोगों से मुलाकात हुई। ज्यादातर बम्बई से लौटे हैं। वहां वालों की दास्तान विकट है। बम्बई में ही बीस किलोमीटर पैदल चलने पर उन्हें ट्रक मिला जिससे आगे यात्रा की। तिरपाल लगे एक ट्रक में नब्बे लोग सवार थे। एक सवारी से ट्रकवाले ने तीन हजार लिये। एक अन्य ट्रक में कम लोग थे – चालीस। चूंकि ट्रक अनाधिकृत तरीके से मनुष्यों को ढ़ो रहे थे, राज्यों की सीमा पर उन्हें खाली अवस्था में ही जाने दिया जा रहा था। राज्यों की सीमा के दो किलोमीटर पहले ही सभी यात्रियों को उतार कर कच्चे रास्तों से सीमा पार करने को कहा जाता था। इस तरह हर सीमा पर करीब पांच किलोमीटर पैदल चलना होता था।
बम्बई से आये एक नौजवान ने बताया कि उन्होने सुना था एक पैदल चलने वाले परिवार ने तीन सौ किलोमीटर बम्बई से चलने के बाद पैसा न होने और भोजन का कोई जुगाड़ न हो पाने के कारण सामुहिक आत्महत्या कर ली थी।

करीब आधा दर्जन पलायन कर लौटे लोग थे वहां। और हर एक के पास सुनाने को बहुत कुछ था। हर एक के पैर में छाले थे टांगें सूज गयी थीं। हर एक कुछ न कुछ कह रहा था। मैंने उनके फोन नम्बर ले लिये हैं। आगे समय मिलने पर उनसे बातचीत करूंगा और मिलूंगा भी। उनसे बातचीत मुझे ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन की समझ के गहरे इनपुट्स देगी। उनसे मिल कर जो समझ गांव ने बारे में विकसित की जा सकती है, वह कई किताबों को पढ़ने पर भी नहीं मिल सकती।
पूर्वांचल में प्रवासी आये हैं बड़ी संख्या में साइकिल/ऑटो/ट्रकों से। उनके साथ आया है वायरस भी, बिना टिकट। यहां गांव में भी संक्रमण के मामले परिचित लोगों में सुनाई पड़ने लगे हैं। इस बढ़ी हलचल पर नियमित ब्लॉग लेखन है – गांवकाचिठ्ठा https://gyandutt.com/category/villagediary/ |
गांव वापस लौटने के बाद हरिशंकर और अन्य सभी, जिनसे मैं वहां मिला, के पास कोई पक्का रोजगार नहीं है। गुन्नीलाल जी ने बताया कि कुछ सब्जियां उगा रखी हैं हरिशंकर और उनके परिवार ने। भिण्डी, करेला और पालक जो भी निकलता है, तोड़ कर महराजगंज आदि आसपास के बाजार में बेंच आ रहे हैं। हरिशंकर एक हिस्सा ले कर भगवानपुर गांव के बाहर खड़े हो जाते हैं। गांव वाले वहीं उनसे खरीद लेते हैं। पर यह कोई लम्बा चलने वाला व्यवसाय नहीं है। कोई पुख्ता काम की तलाश में हैं वे लोग।

उन्ही के साथ बैठे थे शिवशंकर। शिवशंकर भेड़ पालन करते हैं और यहीं गांव में रहते हैं। उनपर मेरी एक पहले की ब्लॉग पोस्ट है – शिवशंकर भेडिअहा।
मैं हरिशंकर को सुझाव देता हूं कि गड़रिया होने के कारण वे पशुपालन का काम तो समझते ही हैं; क्यों नहीं डेयरी का व्यवसाय करते। इस समय तो सरकार भी यह सोच रही है कि लोग कुछ पूंजी-लोन से काम धाम शुरू करें। उनमें से कई बम्बई में भैसों के तबेले में काम भी कर चुके हैं और यह काम अच्छे से जानते हैं। पर समस्या यह लगी कि वे बतौर कर्मचारी की सोचते हैं। व्यवसायी के रूप में सोच नहीं बनी। इस हिसाब से मुझे व्यवसाय करने में हरिशंकर में सम्भावनायें अधिक लगीं। वैसे, यह लगता है कि अगर जल्दी ही उनके वापस गुजरात-महाराष्टट्र जाने की स्थितियाँ नहीं बनीं तो वे अपने हुनर और अनुभव के आधार पर कोई न कोई काम धंधा खड़ा कर ही लेंगे। ज्यादा समय बिना रोजगार-व्यवसाय नहीं निकाल पायेंगे।
हरिशंकर पाल के ही गांव वाले अपने ट्रकों में बम्बई से यहां प्रवासी लोगों को ढ़ोने का काम कर रहे हैं। पूरी तरह बिजनेस है। वे एक यात्री से 3000रुपये लेते हैं। यहां मौजूद एक नौजवान ने उनके ग्राहक जुटाने में मदद की। उनका सामान लदवाया। पर जब खुद के आने की बारी आई तो तीन हजार में जरा सी भी रियायत नहीं की भाड़े में। बोला कि गांव-रिश्ते की बात अलग है। किराये में कोई छूट नहीं होगी उसके कारण।
चलते चलते हरिशंकर जी ने अपने खेत से निकाल कर कुझे एक थैले में करेला दिया। स्नेह वश। मैंने उन्हे दाम देने की आधी अधूरी कोशिश की। मैं यह जान रहा था कि अगर ज्यादा जोर दूंगा तो उनके पास बैठने-बोलने-बतियाने का माधुर्य खतम हो जायेगा। पर यह जरूर है कि हरिशंकर और अन्य को आमदनी-व्यवसाय की तलाश और जरूरत है। मुझमें रिटायर होने के कारण बहुत सम्भावनायें नहीं बचीं, पर जो भी बन पड़े मुझे (और समाज को) करना चाहिये। अगर उन्हें घर पर रहते हुये एक सम्मानजनक व्यवसाय मिल जाता है, जो प्रवास से भले ही कुछ कम आमदनी दे, तो वे सब यहीं रुक जायेंगे और यह समाज और उत्तर प्रदेश की बड़ी जीत होगी।
गुन्नीलाल जी उस मुलाकात में मेरे फेसिलिटेटर रहे। उसके बाद गुन्नीलाल जी अपने घर गये और मैं अपने। उन्होने पूरब दिशा पकड़ी और मैंने पश्चिम। गांव में ट्रॉली से बालू और मिट्टी ढ़ोने वालों की आवाजाही और बढ़ गयी है। लॉकडाउन में जब उनकी गतिविधि बंद रही तो जो कमी आयी होगी, वह दिन रात काम कर पूरी कर ले रहे हैं। मेरे ड्राइवर ने मजाकिया अंदाज में बताया कि इंस्पेक्टर आया था। इनको लताड़ लगा कर बीस हजार की उगाही कर ले गया। उसके बाद ये और जोश में खोदने-ढ़ोने लग गये। आखिर बीस हजार के नुक्सान की भरपाई भी तो करनी है। भ्रष्टाचार यूं आर्थिक गतिविधियों को गति देता है। 😆
मैंने आज बिटिया-दामाद को उनके विवाह की सालगिरह पर फोन पर बधाई दी। आज ही के दिन पंद्रह साल पहले उनका वाराणसी के डीएलड्ब्ल्यू के अतिथि गृह परिसर में विवाह हुआ था। दामाद (विवेक) ने फोन पर बधाई तो स्वीकार की पर यह जरूर जोर दे कर कहा कि मैं घर से बाहर निकलने, लोगों से मिलने आदि को त्याग दूं। मेरी अवस्था के जो खतरे हैं, उनका ध्यान कर यह उचित होगा। विवेक का कहना सही है। अत्यावश्यक होने पर ही बाहर निकला जाये। मैं साइकिल सैर में लोगों से सम्पर्क बनाये बिना दस बारह किलोमीटर चनले का कार्य करता हूं। वह तो (मेरे विचार से) निरापद है। केवल हरिशंकर से मुलाकात जैसी स्थितियाँ कम करनी होंगी और जो हैं, उनमें भी अतिरिक्त सतर्कता दिखानी होगी। अब भी, मैं दूरी, मास्क और सेनीटाइजर को साथ लेकर ही किसी से मिलता हूं। पर विवेक के कहे को अतिरिक्त तवज्जो देना ही है।