मैं अपने मित्र गुन्नीलाल पाण्डेय के यहां घर के बाहर धूप मैं बैठा था। गांव देहात की, इधर उधर के जीवन की, खेत खलिहान की और उनके वृद्ध पिता की बुढापे की गतिविधियों की बातें चल रही थीं। अचानक एक व्यक्ति साइकिल ले कर पैदल आया और पास में रुका। उसने लुंगी की तरह धोती और कुरता पहन रखा था। सर्दी के मौसम के हिसाब से एक जाकिट (शायद खादी का) भी था कुरते के ऊपर। हैण्डल में दोनो ओर थैले टांग रखे थे। दुबला शरीर, सिर पर पीला गमछा लपेटा और हल्का सा तिलक लगाने का मेक-अप था – इतना कि साधू और गृहस्थ के बीच में अंदाज लगाना कठिन हो।

वह आ कर पूरे आत्मविश्वास से गुन्नीलाल जी के पास धूप में रखी खाली कुर्सी पर बैठ गया। मानो कोई परिचित व्यक्ति हो। पर गुन्नीलाल उसे जानते नहीं थे। फिर भी अतिथि के साथ जिस सभ्यता से पेश आया जाता है; उसको निभाते हुये उन्होने पूछा – “बोलें महराज। आने का प्रयोजन?”
उसने बिना भूमिका के कहा कि वह प्रयागराज से आ रहा है। उसे “प्रेरणा” हुई है कि फलानी जगह मंदिर बनाना है। उसी के लिये श्रद्धालू जनों से सहयोग की अपेक्षा से दरवाजे दरवाजे जा रहा है।

गुन्नी जी ने कहा – “बईठा रहअ महराज (बैठे रहिये महराज)।” फिर घर में जा कर कुछ दक्षिणा लाने गये।
गुन्नी घर में गये थे तो मैंने उस व्यक्ति से पूछा – कितना चलते हैं आप रोज?
“राम जितना चलायें।” उसने निरर्थक सा जवाब दिया। फिर सोच कर जोड़ा कि पांच छ साल से वह इस ध्येय (प्रॉजेक्ट मंदिर) में जुटा है। “मंदिर क काम फाने हई त उही में लगा हई (मंदिर का काम हाथ में लिया है तो उसी में लगा हूं)।”
हम जब अपने देश को बेहतर बनाना चाहते हैं, प्रगति करना चाहते हैं; तब इस तरह के भिखमंगत्व को बहुत कड़ाई से निपटना होगा। … आखिर भारत में भी कई प्रांत हैं जहां भिखमंगे नहीं हैं। इस तरह के एबल-बॉडीड भिखमंगे तो बिल्कुल नहीं हैं।
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“कहां रुकते हैं?”
“बस, जहां शाम, वहां बिश्राम। रमता जोगी, बहता पानी का क्या? जहां जगह मिली, रुक गये।”
गुन्नी पांड़े ने घर से एक नोट ला कर उस व्यक्ति को दिया। बोले – बस यही दे सकता हूं। आप ग्रहण करें और जायें।
वह व्यक्ति नोट को जेब में रख कर उठा और साइकिल ले कर पड़ोस का घर खटखटाने चल दिया।

गुन्नी पांड़े से मैंने कहा – कितना दिया?
“दस रुपया। इससे ज्यादा देने लायक नहीं लगा मुझे।”
आपने दस दिया, बहुत दिया। मैं तो बैरंग लौटाता।
गुन्नी पांड़े अपने संस्मरण सुनाने लगे – “कई आते हैं। एक तो फलाने गांव के बाबाजी ने मंदिर बनवाना प्रारम्भ किया। मेरे पास आये तो बहुत पेशोपेश में पड़ा। फिर उन बाबाजी से कहा कि यह पांच सौ रुपया दे रहा हूं। इसे ग्रहण करें और इसके बाद किसी और सहयोग की अपेक्षा आगे न करें।” पर वे बाबाजी फिर भी नहीं माने। अगली बार आये तो गुन्नी पांड़े उन्हे दूर से देखते ही घर के अंदर चले गये और बाहर निकले ही नहीं।
इस पोस्ट को अयोध्या के राम मंदिर के लिये जन जागरण द्वारा जुटाये जा रहे चंदे से जोड़ कर कदापि न देखा जाये। अयोध्या का रामलला मंदिर भारत की हिंदू अस्मिता और जागरण का प्रतीक है। यहां बात केवल धर्म के नाम पर अपनी अकर्मण्यता को छिपा कर आजीविका कमाने की वृत्ति का विरोध है। अनेकानेक मंदिर भारत में हैं जो उपेक्षित हैं। उनकी साफ सफाई और देख रेख करने वाला कोई नहीं। मुहिम तो उनके उद्धार की और उसके माध्यम से हिंदू जागरण की होनी चाहिये। |
“बहुत बढ़िया धंधा है। अब यही व्यक्ति जो यहां से दस रुपये ले कर गया; दिन भर में कम से कम पांच सौ कमा लेगा। कहीं कहीं चाय, नाश्ता, भोजन भी पा जायेगा।”
भारतवर्ष में अच्छी खासी जमात इस तरह के लोगों की है जो भगवान के सपने में आने की कथा बांटते हुये “प्रोजेक्ट मंदिर” ले कर छान घोंट रहे हैं। ये आत्मनिर्भर भारत नहीं; अकर्मण्य भारत के आईकॉन हैं! 😦
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इस व्यक्ति की अच्छी भली स्वस्थ काया। देखने में मेधा भी कुंद नहीं लगती। पर कुछ सार्थक उद्यम की बजाय मंदिर की “प्रेरणा” से भिखमंगत्व को अपना कर पिछले पांच छ साल से जीवन यापन कर रहा है। लोग रोकड़ा देते होंगे तो जेब में रखता होगा और जो सीधा-पिसान-सामान देते होगे उसके लिये साइकिल पर दो थैले लटकाये है। पहले भिखमंगे दो गठरियां – एक आगे और एक पीठ पर लटकाये चलते थे। अब सुविधा के लिये साइकिल ले ली है।
मेरे गांव में लोग दैनिक मेहनत मजूरी से रोज का औसत दो ढाई सौ कमाते हैं। यह निठल्ला पांच सौ रोज पीटता है! अपना आत्मसम्मान व्यक्ति वेताल की तरह पेड़ पर टांग कर निकल दे तो भिखमन्गे की जिंदगी में बेहतर खा सकता है। भारतवर्ष में अच्छी खासी जमात इस तरह के लोगों की है जो राम जी के सपने में आने के कारण “प्रोजेक्ट मंदिर” ले कर छान घोंट रहे हैं। ये आत्मनिर्भर भारत नहीं; अकर्मण्य भारत के आईकॉन हैं! 😦

भारत में यह भिखमंगा वृत्ति आज के युग की नहीं है। एक आईरिश महिला देर्वला मर्फी ने साइकिल से आयरलैण्ड से भारत तक की यात्रा की 1960 के दशक में। उनके संस्मरण हैं Full Tilt – Ireland to India With a Bicycle में। इसमें उन्होने लिखा है कि भिखमंगे उन्हे ईरान और भारत में पाये। आश्चर्यजनक रूप से अफगानिस्तान में, जहां ज्यादा विषमता थी, ज्यादा विपन्नता, वहां भिखमंगे नहीं थे।
हम जब अपने देश को बेहतर बनाना चाहते हैं, प्रगति करना चाहते हैं; तब इस तरह के भिखमंगत्व को बहुत कड़ाई से निपटना होगा। लोगों को किसी तरह से समझाना होगा कि सम्पन्नता भीख मांगने से नहीं आती, मेहनत और उद्यम से आती है। … आखिर भारत में भी कई प्रांत हैं जहां भिखमंगे नहीं हैं। इस तरह के एबल-बॉडीड भिखमंगे तो बिल्कुल नहीं हैं।
“नारि मुई घर सम्पति नासी। मूड़ मुडाइ भये सन्यासी।” – तुलसी बाबा का वह सन्यासी युग भी अब नहीं है। अब तो सन्यासी भी मोबाइल ले कर चलते हैं। इस बंदे से मैंने पूछा नहीं; क्या पता यह भी मोबाइल लिये हुये हो! पांच सौ रोज कमाता है तो होगा ही। शायद स्मार्टफोन भी हो!
एक बात आपने बहुत अच्छी कही, जो पहले से इतने मंदिर हैं, उनका रखरखाव ही करने को लोग नहीं हैं।
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हां…मुश्किल े ये है कि इसमें सच में समाज के लिए कुछ करने की इच्छा रखने वाले लोग भी उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं। एक बात आपने बहुत अच्छी कही, जो पहले से इतने मंदिर हैं, उनका रखरखाव ही करने को लोग नहीं हैं। r
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शहरों में तो ऐसे सक्षम लोग भीख मांगते कम ही देखने को मिलते हैं परन्तु तरीके भिन्न होते हैं। कभी चंदे के रूप में , कभी अनाथालय के नाम कभी मूक-बधिर आदि के नाम से पैसे मांगते हैं।
किंतु भगवान के नाम पर मांगने पर इमोशनल ब्लैकमेल बढ़िया काम कर जाता है। लोग कूढेंगे पर भिक्षा दे देंगे।
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पहाड़ में भिक्षा मांगने वालों की क्या स्थिति है? वहां कम है यह वृत्ति या सामान्य है, जैसी यहां?
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वहां का परिदृश्य ही और तरह का है। देवभूमि होने के कारण साधुओं-संतों का आवागमन लगा रहता है। पहले दिनों में पहाड़ के लोग साधुओं के आने की प्रतीक्षा किया करते थे क्योंकि वे बद्रीनाथ केदारनाथ जा रहे होते थे जो कि सौभाग्य की बात मानी जाती थी। तब भोजन आदि के साधन भी नहीं होते थे आने वालों के लिए सो लोगों को सेवा करने का मौका भी मिल जाता था। पर ये तो रही तब की बात। अब भी सेवा भाव लोगों में है लेकिन टूरिजम से अधिक प्रभावित हैं।
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अच्छा लगा जान कर. Stephen Alter के यात्रा पुस्तकों में भी कुछ कुछ आभास मिलता था इस प्रकार के जीवन का. पर उनकी दृष्टि अलग प्रकार की है…
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