अक्तूबर 2015 के पहले दिन मैं रिटायर होने के बाद पहले दिन, सपरिवार, माधोसिंह रेलवे स्टेशन के रेस्ट हाउस पंहुचा।
हम माधोसिंह के रेस्ट हाउस में आ गये थे। गांव में रहने के जो सपने बुने थे, वे पहले ही दिन से धूमिल होने लगे। माधोसिंह स्टेशन पर मुझे जो मिले वे रेलवे के ही लोग थे। स्टेशन मास्टर साहब, उनके चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी और टी आई भोलाराम जी। उन सब ने बड़ी फुर्ती से हमारा सामान उतरवाया और हमें रेस्ट हाउस ले कर गये। कोई लोकल, कोई गांव वाला, कोई संबंधी नहीं थे। यह स्वप्न था कि गांव हमें बांहे फैला कर स्वागत करेगा, वैसा कुछ नहीं था वास्तविकता में। भविष्य एक जीर्ण शीर्ण ताल सा लगा, जिसमें काई की मोटी परत थी और जिसे हमें दोनो हाथ से हटा कर पानी चीरते हुये अपना रास्ता बनाना था।
हमने वैसे ही किया।
और, सोचने पर लगता है कि सारी जिंदगी रेल को समर्पित कर अपनी गांव-देस, नाते रिश्ते, सम्बंध सब को ठेंगे पर रख कर काटने के बाद अगर मैं अपेक्षा करता था कि गांव हमें “बांहे फैला कर स्वागत” करेगा; तो वह एक निहायत मूर्खतापूर्ण आशावाद था। हम पूरी नौकरी में दोनो हाथ पैसा पीटे होते और सम्पन्नता में सगे सम्बंधियों को “पाले” होते, तब भी शायद लोग आगे की आशा में आपके आगे पीछे घूमते। हमने तो दशकों से न सामाजिकता निभाई थी, न सम्पन्नता अर्जित की थी। हमें तो आगे भी अपना जीवन, अपना रास्ता, अपने तरीके से जीने की जद्दोजहद करनी थी। दूसरी पारी में रिटायरमेण्ट का रोमाण्टिसिज्म नहीं था, एक ठोस यथार्थ आगे था, जिसे हमें फेस करना था और अपनी शर्तों पर, अपने तरीके से गांव में रहना था।
दो दिन बाद हमने अपने सम्बंधियों – मूलत: अपने तीनों साले साहब और उनके परिवार को माधोसिंह रेस्ट हाउस में आमंत्रित किया। वे सभी आये। हमने रेस्ट हाउस में भोजन का इंतजाम किया। लगभग चार पांच घण्टे उन्होने हमारे साथ व्यतीत किये। मेरी बिटिया-दामाद-नाती और बेटा-बहू-पोती भी पंहुचे। अकेले होने की जो मायूसी पहले दिन हुई थी, वह काफी हद तक दूर हुई।

माधोसिंह से कटका पिछला ब्लॉक स्टेशन है। सड़क से जुड़ा हुआ। स्टेशन से 300 कदम पर वह जगह है जहां हमारा मकान बन रहा था। हमें वहां रोज बनते मकान को देखने जाना था। कोई वाहन नहीं था। अंतत: एक ऑटो वाले से बात की। हर रोज का भाड़ा तय किया। वह हमें माधोसिंह से कटका के हमारे मकान तक ले जाने और वापस रेस्ट हाउस में लाने वाला था। बड़ा भला नौजवान था वह। ऑटो में आना जाना भी एक अनुभव था। दशकों से कार या रेलवे के व्यक्तिगत सैलून की प्राइवेसी के अभ्यस्त हो गए थे, तो रोज ऑटो की यात्रा परिवर्तन की शुरुआत थी।

हम लोग सवेरे रेस्ट हाउस में नाश्ता कर निकलते थे। दोपहर का भोजन – पराठां सब्जी साथ में टिफन में ले जाते थे। और शाम चार बजे वापस रेस्ट हाउस आ जाते थे। हमारे जाने से मकान बनने की गति बेहतर हो गयी थी – या कम से कम हमें वैसा लगा।
वहां पहले दिन जाते हुये गांव की सड़क पर एक मोटा सा सांप दिखा। धीरे धीरे चलता हुआ। ऑटो रोक कर उसे ध्यान से देखा। डर भी लग रहा था कि गांव का जीवन भी क्या विकट है। पहले ही दिन सांप के दर्शन हुये, वह भी सड़क पर सरेआम घूमते। खैर, वह सांप क्या, गूंगी थी। सैण्ड बोआ। निरीह सांप। लोगों ने बताया कि उसका दिखना शुभ शकुन है। धन सम्पदा की वृद्धि होती है। इसी में हम प्रसन्न हुये! अन्यथा एकबारगी लगा कि किस अरण्य में अपनी रिहायश बना ली है। उसके बाद सांप बहुत बार दिखे और भयानक लगने वाले भी। ऐसा नहीं कि रेल सेवा के दौरान सांप न दिखे हों, पर अब उनके दिखने की आवृत्ति बढ़ गई थी।
रोज रोज कटका/विक्रमपुर आना और बनते हुये मकान को देखना शुरू में अच्छा लगा। फिर तो एक रुटीन सा हो गया। मानो दफ्तर जाना और वहां से लौटना हो। कटका की बजाय माधोसिन्ह स्टेशन का जीवन ज्यादा रसमय था। सवेरे साइकिल ले कर मैं स्टेशन प्लेटफार्म की तीन चार चक्कर लगाता था। एक चाय की ट्रेन में वेण्डिंग करने वाले व्यक्ति हरिहर से मुलाकात हुई। स्टेशन के दूसरी ओर किसी रेलवे क्वार्टर में वह चाय बनाता था। चौरी चौरा एक्स्प्रेस के समय पर प्लेटफार्म पर आता था और उसी ट्रेन में इलाहाबाद सिटी तक जा कर रास्ते भर चाय बेचता था।

पहले दिन मुझे देख कर वह चौंका। एक अपरिचित, बाहरी व्यक्ति लगा। फोटो खींचते देख उसे यह भी लगा कि मैं किसी मुसीबत में डाल सकता हूं, उसको। उसने प्रतिवाद भी किया। पर बाद में और लोगों से मेरे बारे में पूछा होगा। अगले दिन उसने नमस्कार कर मुझे एक कुल्हड़ चाय भी पिलाई। मुझे उस चाय का पैसा देने में भी दिक्कत हुई। वह ले नहीं रहा था।
वह मेरा मित्र बन गया। रोज सवेरे तैयारी से आता था। साफ सफेद कुर्ता-पायजामा और एक जैकेट। जेब में करीब 200 रुपये की रेजगारी। एक कुल्हड़ की डालिया और एक चाय का टोंटी लगा ड्रम – यह उसका किट होता था। एक दिन वह चाय का ड्रम और कुल्हड़ के बिना प्लेटफार्म पर दिखा तो पता चला कि दो किलो दूध की चाय बना रहा था पर दूध फट गया। बड़ा ‘नुस्कान’ हो गया। उसके नुक्सान से मुझे भी मायूसी हुई।
अब पांच साल बाद भी मन होता है माधोसिंह स्टेशन जा कर हरिहर के बारे में तहकीकात करूँ और मुलाकात करूँ।

माधोसिंह कालोनी के एक अंत पर मुझे एक टर्नटेबल के अवशेष दिखे। यहां चील्ह से माधोसिन्ह तक एक नैरो गेज की रेल लाइन हुआ करती थी। उसका स्टीम इंजन यहां आ कर टर्न हुआ करता था। चील्ह से गंगा उसपार मिर्जापुर बिंध्याचल से यात्री माधोसिंह आया करते थे। यहां उन्हें मुख्य लाइन की इलाहाबाद और मऊ या गोरखपुर अथवा बलिया/गाजीपुर की ओर जाने को गाड़ियां मिलती थीं। उसके अलावा मिर्जापुर से तांबे या पीतल के बर्तन भी आया करते थे। उनका माधोसिंह में यानांतरण (Transshipment) होता था।

उस रेल लाइन की अपनी संस्कृति थी, अपना अर्थशास्त्र। रेलवे के लिये वह यातायात, बदलते समय के साथ मिर्जापुर का शास्त्री पुल बनने, पीतल का उद्योग खत्म हो जाने और सड़क यातायात विकसित होने से घाटे का सौदा हो गया और वह लाइन कालांतर में खत्म कर दी गयी। ध्यान से देखने पर मुझे माधोसिंह मेंन प्लेटफार्म की बगल में एक बे-प्लेटफार्म (bay-platform) की जगह और कोचों में पानी भरने के लिये लगे वाटर फिलिंग कॉलम भी दिखे। अभी भी कुछ अवशेष बचे थे पुराने सिस्टम के।

पहले, जब चील्ह तक की रेल लाइन थी और बहुत सा पार्सल यातायात भी था, माधोसिंह की रेल कॉलोनी निश्चय ही आज से बड़ी रही होगी। यहां ट्रेन ड्राइवर, गार्ड और ट्रेन परीक्षण के कर्मचारी भी रहते होंगे। ट्रेनों को और कॉलोनी को बिजली पानी की कहीं अधिक आवश्यकता होती होगी। स्टीम इंजन यहां वाटर कॉलम पर पानी लेते होंगे और उसके कारण ट्रेनें यहां 15-20 मिनट रुकती होंगी। उस समय बहुत से चाय-भजिया-पकौड़े समोसे या भोजन की दुकानें/स्टॉल भी होते होंगे। आज तो स्टेशन उस उजड़े चमन का कंकाल भर ही रह गया है। मुझे वहां एक भूतिया पम्पहाउस का अवशेष भी दिखा। उसमें स्टीम इंजन के जमाने के स्टाफ की आत्मायें जरूर निवास करती होंगी, जिन्हे स्वर्ग की जिंदगी की बजाय रेल का वातावरण पसंद आता होगा! और ऐसे बहुत से लौकिक पारलौकिक जीव होंगे यह मैं शर्तिया कह सकता हूं। 🙂

करीब दो तीन हफ्ते हम लोग वहां रहे। इस दौरान बहुत बारीकी से मैंने स्टेशन और कॉलोनी को रेलकर्मी की निगाह से और एक बाहरी की निगाह से – दोनो प्रकार से देखा। दिन प्रति दिन मैं रेल अधिकारी से आम नागरिक बनता जा रहा था। रेल का खोल उतरता जा रहा था। और वह उतरना मुझे परेशान नहीं कर रहा था।
अक्तूबर के महीने में भी गर्मी काफी थी। बिजली बहुत जाया करती थी। हमने स्टेशन के जनरेटर पर अपनी निर्भरता अपने इनवर्टर को कमीशन कर समाप्त कर ली थी। इसके लिये स्टेशन के बिजली विभाग के कर्मी ने ही काम किया। शायद इरफान नाम था उसका। कुल मिला कर हम वहां इतने सहज और सुविधा संपन्न हो गये थे कि वहां से निकल कर अपने गांव के घर में (जहांं सुविधायें हमें बनानी पड़तीं) जाने का विशेष मन नहीं हो रहा था।
फिर भी हम जल्दी मचा रहे थे कि हमारा घर बन कर तैयार हो और हम उसमें शिफ्ट कर सकें। अखिर एक दिन वहां शिफ्ट होना ही था।
“हमने तो दशकों से न सामाजिकता निभाई थी, न सम्पन्नता अर्जित की थी।”
पर व्यक्तित्व की जो सहजता आपने अर्जित की और प्रयुक्त की वही आपके आगत भविष्य की सारी जमा पूँजी होने वाली थी।
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इस कोण से भी सोचना पड़ेगा।
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