सन 1985-86 का समय। रेलवे पच्चीस तीस प्रतिशत यातायात वैगन लोड में लदान करती थी और उसे पटरी पर पूरे रेक के रूप में चलाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। गुड्स शण्टिंग यार्ड जिंदा थे। रेलवे की प्रोबेशनरी ट्रेनिंग में मैंने बहुत सा समय रेलवे गुड्स यार्डों की कार्यप्रणाली समझने में लगाया था। देश के पूर्वी भाग में अण्डाल, और धनबाद से जुडी रेल कोल लोडिंग साइडिंग्स, कोट्टवालसा – किरंदुल रेल खण्ड की यात्रा और बछेली यार्ड आदि अनुभव अभी भी दिमाग में हैं। उनका मस्तिष्क में दर्ज समय गड्डमड्ड हो सकता है। मेरे नोट्स जो काफी सालों तक मेरे सामान में रहे; तबादलों के दौरान कालांतर में कहीं इधर उधर हो गये हैं। अन्यथा बेहतर तरीके से उनके बारे में लिख सकता।

मेरा मूल रेलवे पश्चिम रेलवे है; अत: वहां कई यार्ड देखे और ट्रेनिंग में काफी घिसाई की। कोटा रेल मण्डल में ट्रेनिग करते हुये मैंने दिल्ली का तुगलकाबाद यार्ड चार-छ दिन घूम घूम कर देखा। मुझे अब भी याद है कि दिन भर ट्रेनिंग के बाद जब चीफ यार्ड मास्टर वेद प्रकाश जी (आशा है, उनका नाम ठीक से ले रहा हूं) यार्ड ऑफिस में एक कप चाय और एक बालूशाही के साथ आधे घण्टे अपने अनुभव सुनाते थे तो अपना रेलवे के साथ जुड़ाव मजबूत होते पाता था! मैंने उस मण्डल की ट्रेनिंग में आगरा ईस्ट बैंक, जमुना ब्रिज, ईदगाह, गंगापुर और सवाई माधोपुर यार्ड एक कोने से दूसरे कोने तक घूम घूम कर देखे और उनकी शंटिंग का अनुभव किया। शंटिंग इंजनों – स्टीम और छोटे डीजल शंटिंग इंजनों पर भी चढ़ा। शौकिया तौर पर बॉयलर में कोयला भी झोंका। कालांतर में जब मैं कोटा मण्डल का वरिष्ठ परिचालन प्रबंधक बना तो वह पुरानी ट्रेनिंग मेरे बहुत काम आयी।
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पर मेरी पहली पोस्टिंग रतलाम मण्डल में सहायक परिचालन अधीक्षक के रूप में हुई थी। रहने को रतलाम स्टेशन पर एक पुराना सैलून मिला था। उसका फायदा यह था कि एक अटेण्डेण्ट मिल गया था जो (अपनी भयंकर दारू पीने की आदत के बावजूद) अच्छे से मेरे मन माफिक सादा भोजन बनाता था और जब तब तलब लगने पर चाय पिलाया करता था।
नौकरी ज्वाइन करने के बाद दूसरे या तीसरे दिन मुझे उज्जैन यार्ड जाने को कहा गया। 111 नम्बर सवारी गाड़ी में मेरा चार पहिये का सैलून लगा। जो चार पहिये और पुरानी तरह की स्प्रिंग के कारण बहुत हिलता था। उसमें यात्रा करना एक सजा की तरह होता था। रात की यात्रा में सैलून में हिलते डुलते मैं उज्जैन पंहुचा। नींद अच्छे से आयी नहीं थी।
नयी नौकरी में अपने आप को “प्रमाणित” करने का जोश इतना था कि मैं बहुत जल्दी ही गुड्स यार्ड में पंहुच गया। उज्जैन स्टेशन के पूर्वी किनारे पर बना वह यार्ड पच्चीस लाइनों का था, और वैगनों से भरा था। मुश्किल से दो चार रेल लाइनें खाली थीं। इंजन को एक ओर से दूसरी ओर ले जाने के लिये भी एक ही लाइन खाली थी!
यार्ड का मुख्य काम भोपाल की ओर से आने वाली तीस बॉक्स वैगन की कोयले की ट्रेनों को यार्ड में ले कर चालीस वैगनों की ट्रेन बना कर रवाना करना था। इसके अलावा दिन भर में पांच छ मिक्स्ड लोड (फुटकर लदान के वैगनों से बनी ट्रेनें) यार्ड में आते थे, जिनकी छ्न्टाई कर अलग अलग दिशाओं की ट्रेनें बनानी पड़ती थीं। मुझे जल्दी ही समझ आ गया कि अच्छे (और मेहनती) यार्ड मास्टर, मूवमेण्ट इंस्पेक्टर आदि की टीम के बावजूद यार्ड बहुत अच्छी तरह काम नहीं कर रहा था। शण्टिंग की अधिकता, वैगनों के कैरिज-वैगन परीक्षण में लगने वाला समय और उसमें वैगनों का ‘सिक’ किया जाना, अन्य विभागों से तालमेल और मण्डल के परिचालन की समस्याओं के प्रभाव यार्ड की वर्किंग पर थे। महीने में एक या दो बार ऐसा अवसर आता था कि यार्ड वैगनों-ट्रेनों से ‘पैक’ हो जाता था और उसकी सहायता के लिये माल गाड़ियां यार्ड में लेने की बजाय बाई-पास करनी होती थीं।
दो मूवमेण्ट इंस्पेक्टर/चीफ यार्ड मास्टर मुझे अब भी परिवार के अंग की तरह याद हैं। आर एस सोढ़ी सिक्ख थे और अय्यर दक्षिण भारतीय होने के बावजूद बहुत अच्छी हिंदी बोलते थे। इन दोनो से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। महीने में पांच छ दिन तो मैं वहां पंहुचा ही रहता था। मैं अपने को यार्ड का अंग सा मानने लगा था।

यार्ड में बहुत समय व्यतीत करने के कारण मैं उज्जैन यार्ड का ‘एक्सपर्ट’ जैसा हो गया था। मुझे अच्छी तरह याद है कि ई. श्रीधरन (कोंकण और मैट्रो रेलवे ख्याति वाले) बतौर पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक उज्जैन यार्ड आये थे और यार्ड ऑफिस की दीवार पर बहुत ऊंचे टंगे यार्ड डायग्राम के आधार पर यार्ड कार्यप्रणाली समझाने के लिये मैंने एक लम्बी लकड़ी हाथ में प्वाइण्टर की तरह ली थी। श्रीधरन बहुत बारीकी से किसी भी विषय को समझा करते थे। उस प्वाइण्टर से यार्ड की पच्चीस लाइनों को अपने कद (पांच फुट साढ़े तीन इंच) और डायग्राम की ऊंचाई के कारण मैं अलग अलग चिन्हित नहीं कर पा रहा था। लिहाजा मैंने बिना झिझक जूते उतारे और यार्ड ऑफिस की टेबल पर खड़े हो कर दस पंद्रह मिनट का प्रेजेण्टेशन यार्ड वर्किंग के बारे में महाप्रबंधक महोदय को दिया। नौजवान था मैं। जोश था और महाप्रबंधक जैसे शीर्षस्थ अधिकारी का भय नहीं था मुझमें। अन्यथा, कोई भी अन्य अधिकारी इस तरह की “भदेस” प्रेजेंटेशन तकनीक की कल्पना नहीं कर सकता था। 🙂
पर श्रीधरन जी ने मेरी प्रशंसा की और बाद में मण्डल रेल प्रबंधक महोदय ने भी कहा – जीडी, बहुत बढ़िया किया तुमने!
उज्जैन गुड्स यार्ड, जिसे एन सी यार्ड कहा जाता था, ने मुझे रेलवे संस्कृति के बारे में बहुत कुछ सिखाया। एन सी यार्ड का मतलब था Newly Constructed Yard. नया बना होगा।
पर बहुत जल्दी रेलवे का फुटकर लदान का युग खत्म हो गया। कोयला लदान के वैगन भी बेहतर बनने लगे। ट्रेनें तीस बॉक्स वैगनों की बजाय पहले चालीस और फिर 56-58 बॉक्स-एन वैगनों की होने लगीं, जिनकी यार्ड में ले कर चालीस या पैंतालीस डिब्बों की ट्रेन बनाने की आवश्यकता ही नहीं रही। और उज्जैन यार्ड अप्रासंगिक हो गया। उज्जैन ही नहीं; पूरी रेलवे के यार्ड अपनी महत्ता खो बैठे। सबसे दयनीय दशा तो मुगल सराय यार्ड की सुनने में आती थी जो एक तरफ बना और दूसरी तरफ बनते ही अप्रासंगिक होने लगा था!
मेरे रतलाम मण्डल में जाने के बाद एक दशक भर लगा यह परिवर्तन होने में।
अनेकानेक यादें जुड़ी हैं उज्जैन गुड्स यार्ड और रतलाम-उज्जैन की लगभग नियमित यात्राओं की। और वे सब एक ब्लॉग पोस्ट में समेटी नहीं जा सकतीं।
(उस जमाने में डिजिटल कैमरा नहीं था। मेरे पास चित्र नहीं हैं। जो चित्र पोस्ट पर लगे हैं वे इधर उधर से प्रतीकात्मक रूप से लगाये गये हैं।)
GD, Great article. Please write more of your railway experience. This is a neglected field.
skpande
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I’ll try posting once a week, Sir.
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☺️☺️☺️☺️आपकी यादें पढ़कर बहुत अच्छा लगा मुझे, आपने तो सर शाब्दिक चित्रण कर दिया। बहुत-2 धन्यवाद इस पोस्ट के लिए।☺️☺️☺️☺️
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यार्डों में बहुत सीखने को मिला है। बंडामुंडा यार्ड लगभग ४-५ किमी लम्बा था, समय कब निकल जाता था, पता ही नहीं चलता था।
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एंड टू एंड मालगाड़ी यातायात, पीसमील/ फुटकर माल की लदान (स्माल रिपैकिंग वान/SRV), व ढुलाई छोटे स्टेशनों से माल एकत्रित कर एसआरवान ट्रेन यार्ड में बनाकर चलाने को समाप्त करने , बीच के यार्डों को बाईपास कर अतंत: समाप्त करने की योजना सरदार महिंदर सिंह गुजराल अध्यक्ष रेलवे बोर्ड के कार्यकाल में 1981-82 में बनी थी, जिससे यार्डों का उपयोग कम होता चला गया और फिर नब्बे के दशक में शुरू हुई रेल ट्रैक के यूनीगेज योजना ने तो ट्रांशिपमैंट का कार्य भी खत्म कर दिया। पैंतीस साल में रेल यातायात का पूरा परिदृश्य ही बदल गया है, और अब डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर योजना तो बहुत ही परिवर्तनकारी होने वाली है।
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निश्चय ही!
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