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वह गंगा का ऊसर किनारा, जिसमें करारी कंकर हैं, गंगा के बाढ़ के पानी से बना एक तालाब है, इक्का दुक्का घूमते नीलगाय हैं और नीरव शांति है; वह मेरे नित्य सवेरे घूमने का नया जुनून है। मेरे घर से टेढ़े मेढ़े रास्ते से वह करीब छ किलोमीटर दूर पड़ता है। रास्ते में जो भी दिखता है और जो भी अनुभूतियां होती हैं वो मन में बहती चली जाती हैं। उन्हें बाद में बैठ कर कागजबद्ध किया जाये तो अनूठी चीज बने। पर वे सब बहुत तरल होती हैं। लेकिन, मैं कभी कभी सोचता हूं कि कागज (या कीबोर्ड) बद्ध करना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है अनुभूतियों को जीना। वह मैं कर रहा हूं। और उसमें आनंद है!

देव दीपावली के अगले दिन सवेरे उस स्थल पर पंहुचता हूं तो सतीश सिंह पिछले दिन की देव दीपावली के पीतल के दीपक और अन्य उपकरण मांज-धो कर सहेजते नजर आते हैं। सतीश की सरलता को देख कर लगता है कि सुनील ओझा जी को आदमी के चरित्र को परखने की गजब की काबलियत है। इस एकांत में इस काम के लिये सतीश से बेहतर कौन आदमी होता। इस गांव-गंगा-जंगल-झाड़ी में सतीश अकेले टेण्ट में रहते हैं। झाड़ू भी लगाते हैं; आरती भी करते हैं; मजदूरों की गतिविधि पर निगाह भी रखते हैं। सतीश की दिनचर्या भी रोचक है। उसपर फिर कभी लिखूंगा। शहर-महानगर की जटिल जिंदगी से उलट एक सरल दिनचर्या भी हो सकती है, जिसमें दिन भर सतीश कुछ न कुछ करते नजर आते हैं – वर्ना वे पतले दुबले इकहरे बदन के नहीं होते। मेरी तरह स्थूल होते।

मैं अपनी साइकिल ले कर गंगा के बिल्कुल किनारे चला जाता हूं – उस ऊंची नीची जमीन पर साइकिल लहराते चलती है – जैसे बच्चे रोलर-कोस्टर पर ऊपर नीचे आते हैं। वहां उस प्लेटफार्म पर अभी भी सजावट के फूल पड़े हैं, जहां कल देवदीपावली की सांझ में गंगा आरती हुई थी। वहां पूरी नीरवता है। दूर विश्वेश्वरानंद घाट के पास इक्का दुक्का लोग नहाते दीखते हैं। चार सौ कदम दूर इसी गौंगंगौरीशंकर स्थल पर ही एक कद्दावर नीलगाय खरामा खरामा चलता नजर आता है। उसे भी शायद आश्चर्य हो रहा हो कि इस जगह की कुशा की घास कहां चली गयी। वह मेरी ओर भी देखता है, पर मैं शायद उसे एक इनसिग्नीफिकेण्ट चीज नजर आता हूं। धीरे धीरे आगे वह कुशा के झांखाड़ की ओर चला जाता है।

पास में ही शमी का वह वृक्ष है, जिसे कल मेरी पत्नीजी और मैंने अपने घर से लाये दियों को सजाने के लिये चुना था। उसके आसपास करीब चालीस पचास दिये सजाये थे। उनसे एक स्वास्तिक चिन्ह बनाया था। शमी में एक कोटर है। उसमें आरपार दिखता है। उस कोटर में भी एक दिया रखा था। आज सवेरे देखा तो सभी दिये वहां जस के तस थे। वह कोटर वाला दिया भी। दिन में कौव्वे उनसे छेड़छाड करेंगे।
आशा करता हूं कि जब यहां महादेव मंदिर बनेगा तो गंगा किनारे के इस शमी को छुआ नहीं जायेगा। बाकी, निर्माण करने वालों की विध्वंसक ताकत की आशंका तो होती ही है।

मुझे गंगा किनारे आया देख एक मजदूर भी पीछे पीछे चला आया। नाम है हीरालाल। यहीं पास के गांव अगियाबीर का है। उस मिस्त्री का सहायक है वह जिसने कल यह गंगा आरती का प्लेटफार्म बनाया है। बताता है – “फलाने जी प्लाई कम लाये इसलिये दोनो ओर शेल्फ के पल्ले नहीं लग सके। आज शायद काम हो। मिस्त्री आयेंगे तो बतायेंगे क्या करना है।”

हीरालाल की साइकिल का कैरियर आम साइकिल वाला नहीं है। वह लोहे के एक मोटे पतरे से बना है। उसपर सामान भी ढोया जा सकता है। इस प्लेटफार्म को बनाने के लिये पटिया इसी कैरियर पर लाद कर गंगा किनारे लाया था हीरालाल। उसपर बिठा कर अपनी पत्नी-बच्चे को मेला-ठेला भी घुमा लाता है। कल कार्तिक पुन्निमा के मेला में भी इसी साइकिल से गया होगा उसका का परिवार। उस कैरियर से साइकिल गरीब की मोटरसाइकिल बन गयी है।

कल देवदीपावली को अच्छी चहल पहल हो गयी थी यहां। सौ के आसपास लोग थे। गणेश वंदना और गंगाआरती गाने वालों का दो चार लोगों का संगीत उपकरणों से लैस ग्रुप भी था और आरती करने के लिये पण्डिज्जी भी थे। वैसे नित्य आरती तो सतीश सिंह ही किया करेंगे।

जिन लोगों का कल शाम जमावड़ा था, उनमें एसयूवी वाहनों पर आये दो दर्जन से ज्यादा वे लोग भी थे जिनका ध्येय आसन्न विधायिका चुनाव में टिकट साधना है। यह टिकट-साधना बेचारे कलफ-क्रीज वाले झकाझक कपड़े पहने उन बड़े लोगों को कहां कहां के चक्कर नहीं लगवाती!… बेचारे गंगा आरती में जुटे थे। गंगा माई के बंधक-भक्त। 😆
मैं गंगा तट से लौटता हूं। सतीश दीपक मांज चुके थे। आरती भी कर चुके थे। उन्होने मुझे प्रसाद दिया – लाचीदाना और किशमिश। उसके बाद मुझे नमस्ते की – “बाबूजी, घर को निकलूंगा। मेरा मोबाइल खो गया है। वही तलाशना है। सवेरे गईया को सानी करते समय शायद झुकने में वहीं गिर गया होगा। वह इधर उधर हो जाये इससे पहले मुझे तलाश लेना है।”
करीब पौना घण्टा वहां गंगा-नीलगाय-हीरालाल-सतीश के साथ बिता कर मैं भी घर के लिये लौटता हूं। मुंह में जीभ पर सतीश के दिये गये प्रसाद की किशमिश अभी भी चुभुलाने को बची है। आज अच्छी सैर रही। ऐसी ही रोज रहती है। जीवन का यह स्वर्णिम काल है?! 🙂