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फास्ट-टैग क्रांति से मुझे बहुत सुकून मिला था। व्यक्तित्व में कुछ है जिसे किसी बैरियर पर चेक किया जाना अच्छा नहीं लगता। रेलवे का आदमी हूं और कभी न कभी टिकेट चेकर्स मेरे कर्मचारी हुआ करते थे। पर खुद मुझे टिकेट चेक कराना बहुत खराब लगता है। इसी प्रवृत्ति के कारण मैं किसी फाइव स्टार होटल में नहीं जाना चाहता – वहां दरबान जो होता है। वहां पैदल जाओ तो वह घूर कर देखता है। साइकिल से जाने की तो सोच ही नहीं सकता! किसी फाइव स्टार में साइकिल पार्किंग की व्यवस्था ही नहीं होगी।
मुझमें कुछ है जो अपने ऑर्डिनरी होने में विशिष्टता देखता है। जब मैं रतलाम में ब्रांच अफसर था – और मण्डल परिचालन का मुखिया होने के नाते पद का वैशिष्ठ्य तो था ही। पर घर से पैदल ही दफ्तर आता था। कांख में ट्रेन ऑपरेशन की बड़े साइज के पचीस तीस पन्नो की पोजीशन दबाये, सोचता हुआ दफ्तर में दाखिल होता था। कभी कभी तो किसी ठेले वाले से अमरूद खरीद कर खाते हुये आता था। बाकी ब्रांच अफसर अपने सरकारी वाहन से आते थे। उनके उतरने पर उनका चपरासी उनका ब्रीफकेस और पोजीशन लेने के लिये खड़ा रहता था। साहब गाड़ी से उतरते थे और सिक्यूरिटी वाला उन्हें नमस्कार-सैल्यूट करता था। वे खट खट खट सीढ़ियां चढ़ अपने चेम्बर में दाखिल होते थे। चेम्बर का दरवाजा खोलने के लिये दूसरा चपरासी रहता था। पर मेरे लिये वह कोई तामझाम नहीं होता था। मैं बगल में पोजीशन के कागज और सिर में ट्रेन रनिंग की सोच के बोझ से दबा यंत्रवत दफ्तर में जाता था और अपने चेम्बर में जाने की बजाय सीधे कण्ट्रोल कक्ष में दाखिल होता था।

एक दिन कोई नया सिक्यूरिटी वाला रहा होगा, उसने रोक लिया। “कहां जा रहे हो? किससे मिलना है?” – उसके सवालों के लिये मैं तैयार नहीं था। एक बारगी तो समझ नहीं आया। फिर मुझमें दुर्वासा ने फुल इण्टेंसिटी से प्रवेश किया। मैंने कमाण्डेण्ट साहब को खूब सुनाया, भड़ास निकाली। मण्डल रेल प्रबंधक महोदय को शिकायत की। मण्डल रेल प्रबंधक महोदय का मैं चहेता था। वे मेरे मेण्टोर थे। उन्होने अपने चेम्बर में बुला कर चाय पिलाई। मुझे थोड़ी देर कूल-डाउन किया। फिर कहा – “तुम पैदल टहलते हुये आते हो। अफसर वाला रुआब दिखाते ही नहीं तो इस तरह की स्थिति के लिये तैयार भी रहा करो!” खैर, उन्होने सिक्यूरिटी वालों को ‘अभद्रता’ न दिखाने की हिदायत दी। कमाण्डेण्ट साहब को कड़ाई से अपने बंदों को सही आचरण करने के लिये सहेजने को भी कहा। पर मेरी आदतें वैसी ही रहीं।
अपनी ‘सामान्य’ होने और दिखने की चाह को मैंने कई बार अपनी राजसिक वृत्तियों से भिड़ाया है। मन में कुछ है जो अपने को विशिष्ट जताना चाहता है। पर वह विशिष्टता कपड़े, तड़क-भड़क, शो-ऑफ या रौब रुआब से नहीं; अलग दिखने से नहीं, अलग होने से आनी चाहिये – यह मेरा सोचना है।
सिक्यूरिटी वाला और चेकपोस्ट मुझे गांवदेहात में मिलने की आशंका नहीं थी। अहाता वाले घरों को छोड़ कर और कहीं भी मेरी साईकिल आ जा सकती थी। केवटाबीर का रामजानकी मंदिर, कमहरिया का योगेश्वरानंद आश्रम, अगियाबीर और दिघवट का टीला और सुनील ओझा जी का गौ-गंगा-गौरीशंकर का परिसर – सभी जगह निर्बाध थीं मेरे लिये। उस दिन कटका के भाजपा मण्डल मंत्री विशाल ने मुझे संक्रांति पर गौगंगागौरीशंकर आने का निमंत्रण दिया तो मैं साइकिल से ही निकला। वहां आज बनने वाले महादेव मंदिर का भूमि पूजन होने जा रहा था।

पर वहां नये लगे बैरियर और उसपर उपस्थित सिक्यूरिटी गार्ड से सामना हुआ। गार्ड साहब ने कहा कि साइकिल अंदर लाना वर्जित है। “आप उसे बाहर ही खड़ा कर दें।”
मुझे ठेस लगी! यह स्थान बड़ी कारों के लिये ही है जीडी! नेताओं और सरकारी सेवा वाले नौकरशाहों के लिये। तुम कहां चले जा रहे हो?! मेरे अंदर का दुर्वासा जग गया। क्रोध किसी और पर नहीं अपने आप पर आया। तेज क्रोध। मैंने गार्ड साहब से कहा – “ठीक है। जब साइकिल नहीं आ सकती तो मैं भी क्या करूंगा आ कर।”
मैंने साइकिल बैक करने का उपक्रम किया। तब उस सिक्यूरिटी वाले को जाने क्या लगा, उसने बैरियर उठाते हुये कहा – “ठीक है। आप चले आइये। साइकिल यहां खड़ी कर दीजियेगा।” उसने स्थान बताने की कोशिश की।
अंदर गंगा किनारे भूमि पूजन का कार्यक्रम चल रहा था। वहां ओझा जी से मुलाकात हुई। उन्होने बड़े स्नेह-आदर से स्वागत किया। वहां बड़ा समारोह था। कई सौ लोग थे। परिसर बहुत विस्तृत है इसलिये सोशल डिस्टेंसिंग की समस्या नहीं थी। अच्छा लगा वहां। पर मन में सिक्यूरिटी वाले द्वारा टोके जाने की किरकिरी तो रही ही।

मैं पूरे कार्यक्रम तक रुका नहीं। पत्नीजी के साथ दोपहर के भोजन के लिये घर पंहुचना था। अन्यथा गौगंगागौरीशंकर परिसर में ही नाश्ता भोजन बन रहा था। वापसी में सिक्यूरिटी वाले सैनिक ने नमस्कार भी किया और बैरियर मेरी साइकिल के लिये उठाया भी। इस बीच शायद किसी ने मेरा परिचय दे दिया होगा। कुल मिला कर वापसी में ईगो पर मरहम लग गया! इसी में खुश रहो जीडी! और अपने वजन के साथ अपना ईगो भी पांच सात किलो घटाओ। जैसे जैसे उम्र बढ़ेगी, वैसे वैसे तुम्हारी ईगो अप्रासंगिक होती जायेगी। उत्तरोत्तर अपने को सिक्यूरिटी और बैरियर की स्थितियों से दूर रखने का प्रयास करो। सयास!
हम लोग स्कूल में प्रार्थना करते थे – “जीवन हो शुद्ध सरल अपना” लेकिन उसको यथार्थ में उतारने का काम आप ही कर पा रहे हैं,अन्यथा दिखावा में ही जीवन व्यर्थ किये जा रहे और उनको पता भी नहीं चलता।
आप तो स्वयं एक उच्च पद पर थे, आजकल तो लोग बहुत दूर का कोई मित्र/रिश्तेदार भी किसी उच्च पद पर हो तो स्वयं को ही उस पर पदासीन घोषित करने में संकोच नहीं करते।😀
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हाहा, नेम ड्रॉपिंग की आदत तो पूर्वांचल में एक महामारी की तरह है. 😁
और आप के परिवार में कोई दारोगा बन जाए तो उस परिवार की शान देखिए!
“देस बरे कि बुताये पिया; हरसाये जिया तुम होउ दरोगा!” 😁
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सही 😀😀
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अपने मनोभावों को ईमानदारी से व्यक्त करने का साहस कोई आपसे सीखे। झूठ, फरेब, दिखावा, भौकाल, आदि जिसे दुनियादारी कहा जाता है वह सब सीखने में तो हम उम्र खपा देते हैं। इन सब से मुक्त होकर अपने नैसर्गिक रूप में पारदर्शी जीवन जीना बहुत बड़ा काम है। आपका ग्राम्य जीवन स्तुत्य है।
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जय हो सिद्धार्थ जी! आपकी भी सेन्सीटिविटी तो स्तुत्य है. आपकी और आपकी धर्म पत्नी जी की भी! 🙏
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वक्त के साथ बदल ही जाना चाहिए.
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जी, सही कह रहे हैं आप…
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रतलाम रेल मंडल कार्यालय में रेलवे पुलों और ट्रैक पर ओवरहेड बिजली के तारों की क्रासिंग की रेल्वे की मंजूरी के सिलसिले में कुछेक बार जाना हुआ – वही, लालफीताशाही और सरकारी मंजूरी में अनावश्यक देरी – तो वहां के समकक्ष अफसरों के कक्ष में मेरे मन में भी एकाध बार दुर्वासा का प्रवेश हुआ था।😊
दुर्वासा तो एक टांग पर तैयार खड़ा रहता है….
मंडल कार्यालय का चित्र देख कर बहुत सी यादें ताजा हो गईं।
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नौकरशाही तो कुत्ते की दुम है! 😁
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