चुनाव, त्यौहार, बाढ़ और आलू


मैं तो कल की पोस्ट – "आलू कहां गया?" की टिप्पणियों में कनफ्यूज़ के रास्ते फ्यूज़ होता गया। समीर लाल जी ने ओपनिंग शॉट मारा – "…मगर इतना जानता हूँ कि अर्थशास्त्र में प्राइजिंग की डिमांड सप्लाई थ्योरी अपना मायने खो चुकी है और डिमांड और सप्लाई की जगह प्राइज़ निर्धारण में सट्टे बजारी नेContinue reading “चुनाव, त्यौहार, बाढ़ और आलू”

शुगर फ्री सच की दरकार


सच बोलो; मीठा बोलो। बहुत सच बोला जाना लगा है। उदात्त सोच के लोग हैं। सच ठेले दे रहे हैं। वही सच दे रहे हैं जो उन्हें प्रिय हो। खूब मीठे की सरिता बह रही है। करुणा भी है तो मधु युक्त। डायबिटीज बढ़ती जा रही है देश में। शुगर फ्री ज्यादा बुद्धिवादी सच ठिलाContinue reading “शुगर फ्री सच की दरकार”

हिन्दी का मेरा डेढ़ साल का बहीखाता


मेरा डेढ़ साल के ब्लॉग पर हिन्दी लेखन और हिन्दी में सोचने-पढ़ने-समझने का बहीखाता यह है: धनात्मक ॠणात्मक हिन्दी में लिखना चुनौतीपूर्ण और अच्छा लगता है। हिन्दी में लोग बहुत जूतमपैजार करते हैं। हिन्दी और देशज/हिंगलिश के शब्द बनाना भले ही ब्लॉगीय हिन्दी हो, मजेदार प्रयोग है। उपयुक्त शब्द नहीं मिलते। समय खोटा होता हैContinue reading “हिन्दी का मेरा डेढ़ साल का बहीखाता”

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