मई 23, 2020, विक्रमपुर, भदोही
अखबार में कहीं पढ़ा कि आरएसएस ने कोई आंतरिक सर्वे कराया है जिसमें प्रवासी पलायन कर वापस आये साठ फीसदी मजदूर कहते हैं कि मौका लगने पर वे वापस लौटेंगे, अपने काम पर। मैंने जिससे भी बात की है – वापस लौटने वाले से, वह कोविड समस्या से बड़ी समस्या अपने रोजगार की मानता है। पर, फिलहाल, वापस जाने के लिये अभी लोग दुविधा में हैं।
हरिशंकर से मिला था तो उनका कहना था कि सूरत से आते समय उनके मन में यह पक्की धारणा थी कि वापस नहीं जाना है; यद्यपि उनका 10 हजार का घरेलू सामान वहां रखा हुआ है। ठाकुर साहब, जिनके कमरे में हरिशंकर किराये पर रहते थे, उन्होने अगले दो-चार महीने किराया न लेने की बात कही है। इस दौरान वैसे भी कोई और किरायेदार मिलता भी नहीं।

लेकिन यहां जो सब्जी वे बेच रहे हैं – मसलन भिण्डी 5-10 रुपया किलो, वह सूरत में 40रुपया किलो बिक रही है। उन्हें यह पता चला जब ठाकुर साहब से फोन पर बात की। हरिशंकर यह समझ रहे हैं कि काम धंधा (उनका काम धंधा सब्जी और फल फेरी लगा कर बेचने का है) करने का माहौल सूरत में ही है, यहां नहीं। आठ दस लोग वहां अगियाबीर की गड़रिया बस्ती में आये हैं सूरत, अहमदाबाद, बम्बई से। पर उनके पास यहां कोई दिशा नहीं है काम करने की। किसी ने उन्हें गाइडलाइन भी नहीं दी है। किसी ने कोई सम्पर्क भी नहीं किया है।

अगर सरकार प्रवासी कामगारों को खपाने के लिये गम्भीर हो तो इन लोगों का डाटाबैंक बनाने का काम त्वरित गति से होना चाहिये। किसमें क्या हुनर है, उसकी सारिणी तो बने। उस सूचना के आधार पर यह तय हो सकता है कि किसे किस तरह के काम में खपाया जा सकता है और कौन उद्यमी किस तरह का उद्यम लगा कर उनें रोजगार दे सकता है। ये लोग पशुपालन में कुशल हैं। भदोही में अगर श्वेत क्रांति करनी हो, तो इन सब को पशुपालन में खपाया जा सकता है। भदोही जिला छोटी जोत के काश्तकारों का जिला है। यहां जमीन पर निर्भरता किसान को और मजदूर को खेती (गेंहू, धान) से इतर हॉर्टीकल्चर या पशुपालन में लगाया जाना बेहतर होगा – ग्रामीण इलाके में। कार्पेट बुनाई के धंधे में भी सम्भावनायें तलाशी जा सकती हैं। पर जैसा लगता है, वह धंधा पहले ही कामगारों से संतृप्त है।
हाल ही की पोस्टें –
- यात्रा के दूसरे चरण की वापसी
- बज्रेश्वरी देवी शक्तिपीठ, कांगड़ा
- चिंतपूर्णी से ज्वाला जी
- मड़ैयाँ डेयरी का एक चरित्र
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पूर्वांचल में प्रवासी आये हैं बड़ी संख्या में साइकिल/ऑटो/ट्रकों से। उनके साथ आया है वायरस भी, बिना टिकट। यहां गांव में भी संक्रमण के मामले परिचित लोगों में सुनाई पड़ने लगे हैं। इस बढ़ी हलचल पर नियमित ब्लॉग लेखन है – गांवकाचिठ्ठा https://gyandutt.com/category/villagediary/ |
राज्य सरकार उद्यम स्थापित करने के बारे में कई पॉलिसी निर्णय ले चुकी/ले रही है। अंत: कुछ सम्भावनायें नजर आती हैं कि लोगों को यहीं काम मिलेगा। पर जब हो जाये, तभी कहा जाये। लालफीताशाही की गुड़गोबर करने की क्षमता अपार है। उससे मुख्यमंत्री कैसे पार पायेंगे, देखना बाकी है।

सवेरे राजू की गुमटी पर आधा दर्जन लोग बतियाते, गप हाँकते देखे जा सकते हैं। आज मैंने जब गुमटी का चित्र लिया तो वे मुझसे बातचीत करने लगे। बताया कि स्कूल के क्वारेण्टाइन में इस समय कोई नहीं है। सब समय पूरा गुजारे बिना अपने अपने घर जा चुके हैं। कोई उनमें से बीमार नहीं लगता, पर सब ऐसे ही इधर उधर डोल रहे हैं।
वापस जायेंगे क्या? मैंने पूछा।
उनमें से एक ज्यादा होशियार था, बोलने और उत्तर देने में। वह बोला – “ई साल त अईसेइ चले (यह वर्ष तो ऐसे ही चलेगा)।” शायद वह समझता है कि उन जगहों पर कामधाम इतनी जल्दी से शुरू होना मुश्किल है। आर्थिक गतिविधि, जो अचानक ठप हो गयी थी और मजदूर तितर बितर हो गये हैं, वह बटन दबाते शुरू होने से रही। अनपढ़ आदमी का इस साल व्यतीत होने का आकलन बहुत से अर्थशास्त्रियों के आकलन से मेल खाता है।
कोरोना से जूझना एक समस्या है; पर ये लोग कहते हैं कि मेहनत-मजदूरों को काम मिलना कोरोना से बड़ी समस्या है। वे लोग बम्बई, गुजरात, दिल्ली, पंजाब से लौटे हैं तो काम ठप हो जाने के कारण। चलते समय या रास्ते में – जब वे अस्सी नब्बे की संख्या में एक ट्रक में ठुंस कर आये, तो उन्हें कोरोना का भय नहीं, आसरे और भोजन का भय था। अब भी वही भय उनपर हावी रहेगा।
जरा हरिशंकर पाल की सोचें। सूरत में जब धनी और मध्यमवर्ग के लोग लॉक डाउन में घरों में बंद थे कोरोना के भय से, तब उनके जैसे लोग फेरी लगा कर सब्जी लाने और बेचने की जुगत में थे। वे विषाणु के अपने भय को दरकिनार कर काम कर रहे थे। उनके और उन जैसे के लिए रोजगार ज्यादा अहमियत रखता है।
यह जो बड़ी संख्या में आबादी आ कर गांव में टिकी है, वह यह नहीं पता कर रही कि यहां अस्पताल कितने हैं; कितने बिस्तर उनमें कोविड19 के लिये हैं; कहां कोरोना पॉजिटिव की जांच होगी? कितने वेण्टीलेटर्स होंगे आसपास के जिलों में? इस तरह के सवालों का उनके दिमाग में स्थान ही नहीं है। वे यह जानना चाहते हैं कि रोजगार कब, कहां और कैसे मिलेगा। कोरोना से जूझना दोयम दर्जे की प्राथमिकता है। पहली और अहम प्राथमिकता रोजगार और अर्थव्यवस्था है।