“इहै तो गलत करत रहे। अमूल का तो कभी न लेना चाहिये। वह तो खूब घोल कर दूध में से ताकत खींच लेता है। बचा दूध जो देता है, उसमें कौन सेहत बनेगी?” – मंगत जी ने वह ज्ञान मुझे दिया जो अमूमन गांवदेहात में चल जाता है।
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दैनिक दूध के विकल्प की तलाश
दैनिक जरूरतें हैं – आटा, दाल, चावल, सब्जी, दूध। जब इनकी कीमतें बढ़ती हैं तो उनको सस्ता पाने के विकल्प तलाशने में लग जाते हैं हम। यह पोस्ट उसी कवायद पर है।
दूध एसोसियेशन आई, बाल्टा वाले गये
सवेरे साइकिल सैर के दौरान मुझे आठ दस बाल्टा वाले दिखते थे। घर घर जा कर दूध खरीदते, बेंचते। बचा दूध ले कर अपनी मोटर साइकिल में बाल्टे लटका कर बनारस दे आते थे। उनकी संख्या कम होती गयी। अब तो कोई दिखता ही नहीं। यह बड़ा परिवर्तन है।
