कोरोना का काल हमें कोहनिया रहा है कि हम गांव वाले बनें। किराना के सामान के प्रकार और गुणवत्ता को ले कर व्यक्तित्व में जो अफ़सरी तुनक बाकी रह गयी है (रिटायरमेण्ट के चार साल बाद भी) वह खतम होनी चाहिये। चॉकलेट की बजाय गुड़ की भेली और नूडल्स की बजाय देसी सेंवई पर सन्तोष करना चाहिये।
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ग्रामीण जीवन और अर्थव्यवस्था गम्भीर संकट में नहीं लगते
कटाई करने वाले ही नहीं, ईंट भठ्ठा मजदूर, आनेवाले पेट्रोल पम्प की दीवार बनाते आधा दर्जन लोग, सूखते ताल में मछली पकड़ते ग्रामीण, ठेले वाले, किराना की दुकान में छोटे वाहन से हफ़्ते भर की खेप लाने वाले, कटाई के बाद खेत से बची हुई गेंहू की बालें बीन कर जीवन यापन करने वाले, धोबी, नाई .. ये सब काम पर लगे हैं। ग्रामीण जीवन और अर्थव्यवस्था (लगभग) सामान्य है।
रवींद्रनाथ दुबे – एन.आर.वी. और शहर-गांव का द्वंद्व
रवींद्रनाथ जी अपने गांव से हर समय किसी न किसी प्रकार जुड़े रहे हैं। वे मेरी तरह “बाहरी” नहीं हैं।
गाँव देहात और गंगा तट का एकांत
सुबह शाम सूरज की किरणें, गंगा नदी का बहाव, बबूल के झुरमुट और उनके झाड़ों पर उखमज (पतिंगे) वैसे ही हैं, जैसे थे। किसी आयरस-वायरस का कोई प्रभाव नहीं।
गांव में रिहायश – घर के परिसर की यात्रा : रीता पाण्डेय
घर में अपने पति समेत बहुत से बच्चों को पालती हूं मैं। ये पेड़-पौधे-गमले मेरे बच्चे सरीखे ही हैं। ये सब मिलकर इस घर को एक आश्रम का सा दृष्य प्रदान करते हैं। बस, हम अपनी सोच ऋषियों की तरह बना लें तो यहीं स्वर्ग है!
पिछले सप्ताह के मेरे कोविड19 विषयक ट्वीट्स
भविष्य की ट्वीट्स इसी तरह ब्लॉग पर लम्बे समय के लिये रखने और बाद में सर्च करने की सहूलियत के लिये संजोता रहूंगा।