मैं एक दो दिन में बाढ़ देखने जाता हूं। बाढ़ मापने के दो गंगा-घाट हैं मेरे पास – द्वारिकापुर और कोलाहलपुर। द्वारिकापुर सवर्णों का घाट है और कोलाहलपुर अवर्णों का। दोनो के अपने अलग मिजाज हैं। द्वारिकापुर में पीपल का एक विशालकाय वृक्ष है। एक पाकड़ भी है जिसके नीचे की पत्थर की बैंच पर बैठ कर चौधरी टाइप लोग अपनी बालू की नावों का ट्रेक्टरों में ट्रांस-शिपमेण्ट सुपरवाइज किया करते थे। अब वहां वह बेंच जलमग्न हो गयी है। किनारे लंगर डाली मोटर लगी बड़ी नावें जिनपर बालू ढुलाई होती थी, अब बाढ़ के साथ साथ अपना स्थान बदल रही हैं। उन्हें गंगा की धारा से बचाने का यत्न करते हैं उसके मालिक लोग।

कोलाहलपुर में गांव वालों के नित्यकर्म गंगा किनारे होते आये हैं। वह अभी भी हो रहा है। लोग गंगा की मुख्य धारा में जाने की जहमत नहीं उठा रहे, पर उसका पानी एक बांध से गांव की ओर बढ़ने से रोका गया है; उस रुके पानी में अब नहाते, कपड़े धोते, पूजा में अर्ध्य देते और मछली मारते दिखते हैं।

आज देखा कि उस बांध को लांघ कर पानी आगे बढ़ गया है। सन 1978 की बाढ़ की याद दिलाता है यह बढ़ा हुआ पानी। बांध के बचे हुये हिस्से पर कुछ लोग मछली पकड़ने के लिये केचुआ फंसा कर कांटा फेंकते दिखे। एक उम्रदराज आदमी का चित्र मैंने लिया।

उम्रदराज आदमी; क्लीन शेव, काला जूता पहने, फुल स्लीव कमीज, पैण्ट ऊपर सरकाये और चारखाने का गमछा सिर पर लपेटे थे वे। उन्होने नाम बताया नगीना। बात करने के लिये मैंने उनसे पूछा – कुछ लहा (कुछ हाथ लगा?)
नगीना ने जवाब दिया – “अबहीं का? अबहीं तो आ के बैठे हैं। घण्टा डेढ़ घण्टा बैठेगे। तब पता चलेगा। कौनो पक्का थोड़े है। लहा लहा नाहीं त दुलहा!” (अभी तो आ कर बैठे ही हैं। घण्टा डेढ़ घण्टा समय गुजारेंगे, तब पता चलेगा कि कुछ लहा या दुलहा बन गये। दुलहा का यहां प्रयोग निरर्थक श्रम का प्रतीक जैसा हुआ।)

नगीना हाजिर जवाब लगे। पता चला कि इस गांव में उनकी ससुराल है। वे रहने वाले खमरिया के हैं पर ज्यादा समय यहीं कोलाहलपुर में बिताते हैं।
चूंकि यहां उनकी ससुराल है, इसलिये वे गांव भर के सर्वमान्य जीजा और फूफा हैं। जीजा या फूफा से हंसी ठट्ठा करने का सभी को, विशेषत: महिलाओं को अधिकार प्राप्त है। और चूंकि नगीना स्वयम विनोदप्रिय हैं, यह हंसी ठट्ठा रोचक होता है।
उन्होने कहा कि घण्टा भर बाद पता चलेगा कि कितनी हाथ आती हैं। वैसे मछलियां भी होशियार हैं। कभी मिलती हैं तो सूखी रोटी के साथ सुरुआ (शोरबा) नसीब हो जाता है। नहीं तो दुलहा ही बन जाते हैं।
अपने बारे में बताने लगे नगीना। नाम भर ही नहीं है, हुनर में भी वे नगीना हैं। नाचने में उनके बराबर का बनारस भर में कोई नहीं था। नचनिया थे वे, जिल्ला टाप नचैय्या।

नाचने के अलावा वे वाद्य बजाने में भी माहिर हैं। मैंने पूछा – क्या बजाते हैं?
“सब कुछ। ढोलक, हरमुनियाँ, सारंगी, गिटार बेंन्जो, सब कुछ। दूर दूर तक बजाने के लिये बुलावा आता था।” नगीना ने बताया।
अब नाचते बजाते नहीं?
“अब उम्र हो गयी। अब मछली पकड़ने ही आ जाते हैं। यही मनोरंजन है।” नगीना ने कहा। आसपास के लोगों ने जो इनपुट्स दिये उसके अनुसार नगीना जीजा जी की उम्र पचास से साठ के बीच होगी। हो सकता है उससे ज्यादा भी हो।

मैंने चलते चलते उनसे पूछा – आज केवल मनोरंजन भर ही होगा या मछली मिलेगी भी?
नगीना बोले – “मिले, मिले। उसी की आस में तो आ कर बईठे हैं। हमके मिले जरूर।”
विनोदी, हाजिर जवाब, हरफनमौला और आशावादी नगीना से मिल कर बहुत प्रसन्नता हुई। एक नगीना ससुरारी में रह कर इतने खुश हैं और एक हम जो अपनी ससुराल में रह कर भी मुंह लटकाये रहते हैं! थोड़ा तुम भी विनोदी, हाजिरजवाब, हरफनमौला और आशावादी बनो जीडी!
shayad machli mil hi gai ho -dulha na bane hon us roj
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Nagina nach na karen magar vadhya to ab bhi baja hi sakte hain 🙂
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हो सकता है बजाते भी हों. बहरहाल हैं मजेदार आदमी. ☺️
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अपने जमाने के और जवानी के नचवैय्या बुढ़ापे में क्या करें? बड़ा प्रश्न है।
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अपने ज़माने के ट्रेन ऑपरेशन के बड़े धाकड़ भी क्या करें? बहुत से लोगों को समझ नहीं आता और साईकिल भ्रमण पर वे उतरते नहीं. अपनी शोभा कम होती है उससे. 😊
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