यह रीता पाण्डेय की लॉकडाउन काल की आज की नियमित पोस्ट है –

कल सुबह मेरा भाई आया था चाय के समय। शैलेंद्र दुबे। मेरा पड़ोसी है। कभी हम उसके घर चले जाते हैँ और कभी वह आता है; सवेरे की चाय पर।
मैंने कहा – मेरा पड़ोसी है। गलत कहा। मेरे परिवार का है। हम दोनों का घर एक परिसर में है।
चाय के साथ कुछ भी चर्चा हो जाती है। घर, गांव, जिला, उत्तर प्रदेश और मोदी। आजकल कोविड19 के चक्कर में परदेश की भी चर्चा होती है। ह्वाट्सएप्प ज्ञान का भी आदान प्रदान होता है।
उसने कहा – कितनी शांति है दिदिया। लॉकडाउन के इस काल में, घर में किसी की कोई डिमाण्ड नहीं है। सबको पता है कि जितना है, उसी में गुजारा करना है। अगर हमेशा सब को अपनी सीमा पता चल जाये और उसी हिसाब से खर्च हो तो कोई समस्या ही न हो।

कई अनूठे आंकड़े दे रहा था भाई। सड़क दुर्घटनाओं में एकदम कमी आ गयी है। श्मशान घाट पर भीड़ कम हो गयी है। अस्पतालों के ओपीडी बंद हैं तब भी लोगों को कोई शिकायत नहीं। लोग रिलेक्स्ड हैं। छोटी मोटी समस्याओं का समाधान लोग घर की चीजों – हल्दी, अदरक, पुदीना, काली मिर्च आदि से घर में ही कर ले रहे हैं। और तो और गांव के सिऊधरिया (डाक्टर शिवधारी, झोलाछाप डाक्टर) की भी दुकान बंद है।

शैलेंद्र के उक्त कथन को सही मान लिया जाये तो लगता है लॉकडाउन के पहले इंसान किस तरह की आपाधापी में लगा था। आखिर, प्राचीन काल में भी तो लोग जिंदगी जी रहे थे, बिना आपाधापी के। हिंदुस्तान की तो लोग प्राचीन समृद्धि की गाथा सुनाते हैं। तब और आजकल में अंतर शायद यह है कि उस समय लोग हर चीज को ईश्वर की नियामत समझ कर लेते थे। कोशिश होती थी कि अपनी ओर से प्रकृति के साथ कोई छेड़छाड़ न हो। … अब के दौर में तो आदमी हर कुछ अपनी मुठ्ठी में बंद कर लेना चाहता है। जंगलों,पहाड़ों, नदियों को अपनी मनमानी दिशा और दशा में मोड़ना चाहता है।
इसी से सारा संतुलन गड़बड़ हो जा रहा है। बंद मुठ्ठी में जिस चीज को आदमी पकड़ कर रखना चाहता है, वह मुठ्ठी से रेत की तरह निकलती चली जाती है। नहीं?