कोरोना और किराना


एक महीने का राशन इकठ्ठा कर लिया था जनता कर्फ़्यू के पहले। फ़िर लॉकडाउन हुआ। अब लॉकडाउन 2.0 होने जा रहा है। गांव से बाहर निकलने की सम्भावना ही नजर नहीं आ रही। वैसे भी महीने का एक बार सामान बनारस या इलाहाबाद के बिगबाजार/स्पैन्सर्स के स्टोर से लिया करते थे। अब वहां जाना कहां हो पायेगा?

कार में बीस लीटर तेल भरवा लिया था लॉकडाउन के पहले। उसके बाद से कार खड़ी ही है। ड्राइवर भी समझ गया है कि कहीं निकलना होगा ही नहीं। सो उसने हाजिरी लगाना बन्द कर दिया है। अब महीना बीतने पर पैसा लेने के लिये ही दर्शन दिये उसने।

एक गाड़ी आने लगी थी घर पर किराने का सामान ले कर। दो तीन बार आयी, फ़िर आना बन्द हो गया। उस गाड़ी वाले को शायद घर घर सप्लाई करना पूरता नहीं था। या यहां गांव में पर्याप्त ग्राहकी नहीं बन सकी थी। … वैसे भी सामान की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं थी कि उसकी प्रतीक्षा हो।

मैं साइकिल से निकलता हूं। आसपास के पांच किलोमीटर के दायरे में दो बड़ी दुकाने हैं किराने की। दोनो के अपने हैण्डीकैप हैं। वे सामान के गांवदेहात के थोक विक्रेता हैं। गांवों के छोटे दुकानदार उनसे सामान ले जाते हैं। पर उसके लिये वे वही सामान रखते हैं जो गांव की जनता की जरूरत होती है। सूजी, बदाम, अखरोट, कस्टर्ड पाउडर उनके पास होता ही नहीं। शेविंग ब्लेड की केवल साधारण ब्राण्ड उपलब्ध है। पत्नीजी को तकलीफ़ है कि गांव की इन दुकानों से खरीदी दाल, मूंगफ़ली, चना आदि की क्वालिटी खराब है। उसे बीनने, पछोरने में काफ़ी झन्झट करना पड़ता है। कई बार तो सामान बरबाद हो जाता है…

अगर गांव में रिवर्स माइग्रेट करते समय हमने तय किया होता कि लोकल मार्केट से जो सामान मिलेगा, उसी से अपना काम चलायेंगे, तो यह स्थिति न आती। अब तक हम अपनी आवश्यकतायें उसी के अनुसार कम कर चुके होते।

सो, असल बात यह है कि हम गांव में रह रहे हैं, पर गांव वाले नहीं हुये। हुये भी तो रुपया में चार आना बराबर। या उससे भी कम। :sad:

कोरोना का काल हमें कोहनिया रहा है कि हम गांव वाले बनें। किराना के सामान के प्रकार और गुणवत्ता को ले कर व्यक्तित्व में जो अफ़सरी तुनक बाकी रह गयी है (रिटायरमेण्ट के चार साल बाद भी) वह खतम होनी चाहिये। चॉकलेट की बजाय गुड़ की भेली और नूडल्स की बजाय देसी सेंवई पर सन्तोष करना चाहिये।

इन दोनो थोक दुकानों – एक बाबूसराय में है और दूसरी कटका पड़ाव पर – के दुकानदारों से दुआ सलाम शुरू कर दी है। कुछ खरीददारी की है। फ़ोन नम्बर लिये हैं। दुकानदार की और हमारी फ़्रीक्वेन्सी का मिस-मैच कम करने का प्रयास शुरू कर दिया है।

आज पड़ाव की दुकान वाले के यहां देखा कि एक छोटे वाहन से बनारस से सामान आया है और उतर रहा है।

पड़ाव की दुकान वाले के यहां देखा कि एक छोटे वाहन से बनारस से सामान आया है और उतर रहा है।

दुकानदार, कोई गुप्ताजी हैं, ने मुझे देख कर नमस्कार किया। मैने कहा – आज कितने दिन बाद सामान आया है?

“पांच दिन बाद। सामान मिलना और उसके बाद गाड़ी का इन्तजाम होना, दोनो मुश्किल हो गया है। बनारस में मण्डी के खुलने के समय में भी बन्दिश हो गयी है। रास्ते में गाड़ियों का चलना भी वैसा फ़्री नहीं रहा।”

कल बाबूसराय वाले के यहां भी सामान न होने की बात सामने आई थी।

बाबूसराय की किराना दुकान

ये दोनो दुकानदार बड़े अच्छे लोग हैं और अदब से पेश आते हैं। कोरोना युग में दुकान चलाने के बारे में उन्होने अपने को पर्याप्त एक्लेमेटाइज़ कर लिया है। बाबू सराय वाले ने रस्सी बांध कर काउण्टर पर भीड़ रोकने का इन्तजाम कर लिया है। कटका पड़ाव वाले गुप्ताजी अपना दरवाजा संकरा सा खोलते हैं कि ग्राहक उनके यहां भीड़ न लगायें।

समस्या शायद मेरेऔर मेरे परिवार के साथ है। हम कोरोना या उत्तर-कोरोना काल के हिसाब से अपनी आवश्यकतायें कम या परिवर्तित नहीं कर सके हैं।

पर करेंगे। करेंगे नहीं तो जायेंगे कहां। शहर जा कर रहने का तय कर “पुनर्मूषको भव:” का अभिशाप तो झेलने से रहे। परिवर्तन सदा कष्ट के साथ आता है। पर आता जरूर है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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